- भावना सक्सैना
हेलो, हाँजी,
हाँजी...हाँ, लेकिन वो तो साइकिल चलाता ही
नहीं आजकल।
क्या कह रहे हैं... कहाँ, कैसे... ओह
मैं कहीं रास्ते मे हूँ उसके पापा पहुँचते हैं।
मैं उन्हें बताती हूँ।
उसको लगी तो नहीं...जी, जी, अच्छा। बहुत धन्यवाद आपका।
मेट्रो में सामने बैठी महिला अचानक उद्वेलित हो
उठी थी। उसकी साथी के चेहरे पर प्रश्न, असमंजस,
चिंता के भाव आ जा रहे थे। वह अपनी जिज्ञासा को संभाले अपनी मित्र
को देख रही थी जो पति को फोन करके बता रही थी कि किसी अनजान व्यक्ति ने उसे फोन पर
सूचित किया है कि उनका किशोर पुत्र साइकिल लेकर घर से निकला था और रास्ते में गिर
कर मूर्छित हो गया। उन व्यक्ति ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया दिया है। उसने पति
को ताकीद की, कि वह शीघ्रातिशीघ्र बेटे के पास पहुंचें।
पति से बात कर उसने पुनः उस व्यक्ति को फोन कर
भरे गले से पूछा -हाँजी वह बच्चा ठीक तो है न, सर में तो
नहीं लगी। होश में है न, खून तो नहीं बह रहा। जी, जी अच्छा, पहुँच रहे हैं।
फोन की स्क्रीन पर नज़र गड़ाए आँसुओं को रोकने का प्रयास करती रही वह।
साथ बैठी उसकी मित्र उसकी पीठ पर हाथ फेर लगातार
उसे मौन ढाढस बँधा रही थी।
फोन फिर बजा...
हाँ, अरे क्या हुआ,
आप रो क्यों रहे हैं, वो ठीक तो है? कुछ बोलिये, क्या ज्यादा चोट लगी है? अब उसका सब्र टूट गया था।
मित्र ने फोन उसके हाथ से ले बात करनी शुरू की, हाँजी भाई साहब कैसा है नीटू। हौसला रखिये ठीक हो जाएगा। बात कर सकता है
क्या? इनसे बात करा दीजिए न। बहुत परेशान हो गई हैं।
हाँ, एक मिनट बेटा...
लो बात करो, ठीक है।
हाँ!!!
कहाँ गया था? कौन सी सड़क पर?
साइकिल खराब थी, तो क्यों लेकर गया
आ गए मज़े
बेटा मैं लौटकर तुझसे बात करती हूँ।
फिर धीरे से...अच्छा लगी तो न ज़्यादा!!!
बेटा आज इतना कुटेगा कि याद रहेगी।
हम्म
फोन बंद कर फफककर रो पड़ी माँ।
1 comment:
मार्मिक लघुकथा।बधाई भावना जी।
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