-सारिका भूषण
सोहावन भैया या सुहावन भैया ठीक से याद नहीं कि
असली नाम क्या था । मगर गहरा रंग , गठीला बदन,
गोल - गोल आँखें और सबसे ज़्यादा याद है उनकी लम्बी मूँछें । गाँव
में तो सारे भैया जी लोग जो नाना जी की कोठी में सलाम ठोंकने आते थे, एक ही जैसे लगते थे । सभी की नज़रें झुकी हुईं, कंधे
पर लाल गमछा और हाथों में डंडा और वह भी सरसों तेल पिलाया हुआ । बस सोहावन भैया
थोड़ा अलग थे । उनकी नज़रें झुकती तो थीं, मगर गोल - गोल
नाचती थीं । नाना जी के मिज़ाज पढ़ने में माहिर।
पूरी कोठी के दुलारे थे । माँ - नानी के बीच में ख़ासा लोकप्रिय । खूब
गप्पें सुनाते थे । चूल्हे पर पकती तरकारी नीचे से लग भी जाए मगर सबका ध्यान
उन्हीं की बातों पर रहता था । फिर चाहे चूल्हा झोंकती मंजरी चार बातें भी क्यों न
सुन लें । ढेकी कूट रहे पाँव भी ठहर जाते थे उनके किस्से सुनने में । नानी भी तभी
तो पूरे गाँव की बिलाई मौसी बोलती थी । सोहावन भैया का ध्यान तो माँ और नानी को
खुश करने में ही रहता था । पाँच भाइयों में इकलौती बहन थी माँ । बड़े नाना की भी
दुलारी । आख़िर तभी तो नानी ने भी डिग्री होल्डर इंजीनियर दामाद लाने की ज़िद
पकड़ी थी और पूरी भी की । मुहल्ले के लोग कानाफूसी भी करते “ एगो बाड़ी इहे से
माथा चढ़ैले बाड़ी । बूढ़ा तरी बेटी । दिखात नईखे।” पर नानी की ज़िद के सामने किसी
की न चली । उन दिनों लड़की की तेईस की उम्र में शादी चर्चा का विषय बन जाता था ।
ख़ैर अब आते हैं सोहावन भैया पर । बुद्धू यादव
के इकलौता बेटा थे सोहावन भैया । तेरह वर्ष की उम्र में उनकी शादी हुई थी । दुल्हन
की उम्र का तो पता नहीं और शायद उस समय गौना भी नहीं हुआ था । हर छह महीने में
ससुराल जाते और लौटकर नानी के पास आकर अपनी कनिया ( नई दुल्हन ) की बात बताते । जब
नाना डाँटते, तभी अँगना से उठकर दालान की ओर जाते । उनके
बारे में यही सुनने को मिलता- “ ई सोहावना पूरे मौगा हो गइल बा।”
जब कभी हम बच्चों को सोहावन भैया अपने साथ या
कभी काँधे पर चढ़ाकर शाम में घुमाने ले जाते थे हमारा हमेशा उनसे यही प्रश्न होता
कि आपके पापा का क्या नाम है ? हमारी मुट्ठी में बेसन के
मीठे - मीठे लकठो डालते और बोलते “ का बा कि हम बहुते होशियार बानी । इहे से
बाबूजी के आपन नाम बुद्धू रखे के पड़ल । अब का बा कि न तो दू बुद्धू एके घर में रह
सकेलन और न दु गो होशियार ।”
हमलोग कितना समझते यह तो याद नहीं पर पूरा
गलियारा हमारे ठहाकों से गूँज उठता । फिर कोई बड़ा - बुज़ुर्ग ज़ोर से खखारता तब
हम चुप लगाते । सोहावन भैया के दोस्त श्रीगोविंद भैया भी साथ रहते मगर ये थोड़ा बक
- बक कम करते थे । इसीलिए हम सारी गप्पें सोहावन भैया से ही करते थे ।
हम देर शाम खेत के मेड़ों पर दौड़कर लौटते और थक
कर सो जाते। हाँ! सोने के पहले सोहावन भैया की कोई विधवा चाची थीं जो हमारे पैरों
में लहसुन पके तेल की हल्की मालिश करती। लहसुन पके तेल की तेज गंध हमें बिलकुल
अच्छी नहीं लगती थी। कितनी भी अनाकानी करते मगर सर पर पल्लू रखे नानी खड़ी होकर
मालिश करवाती थीं।
फिर माँ रोटी खीर खिलाकर गोद में सुलाती। बाक़ी
सब तो सो जाते पर मेरा छोटा सा ख़ुराफ़ाती दिमाग माँ, मामियों और नानी की बातों को ध्यान से सुनता था । कब और किस मोड़ तक
पहुँचकर नींद आती थी, यह तो याद नहीं पर मेरे पास कुछ किस्से
सुनाने के लिए इकट्ठा हो जाते थे, जो ममेरे भाई- बहनों पर
रोब झाड़ने के लिए काफ़ी थे। वे सोचते रह जाते कि यह सारे दिन तो हमारे साथ रहती
है ; पर इतनी बातें इसको कहाँ से पता रहती है ? कभी मामी से पूछ भी लेते, तो मामी सकपका जाती और
डाँटकर भगा देती। फिर उनके चेहरे की रेखाएँ भी उनसे ही प्रश्न करने लगतीं । मैं तो
खेल - खेल में लेती थी, पर कुछ बातें या कुछ प्रतिक्रियाएँ
बस याद रह जाती थीं और मैं कभी -कभार दिमाग पर ज़ोर लगाकर सोचने लगती। बचपन
से कुछ बातें दिल को छू जाती थी और बहुत
दिनों तक मंडराया करती थी।
शायद सारी कहानियाँ , सुख - दुःख, ज़मींदार घरानों के पीछे की सच्चाई
इन्हीं जनानी बातों में छिपा रहता था। रोहतास जिले के धनहरा गाँव के असल किस्से
यहीं ढिबरी की रौशनी में गढ़े जाते थे । किसी भी वर्ग की महिलाएँ सामने तो नहीं
आती थीं, पर घूँघट के पीछे से कुछ कहानियाँ जरूर लिखती थीं।
ये सिर्फ़ चाभियाँ नहीं, बल्कि पूरी ज़मींदारी भी सम्भालती थीं
और अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ भी उठाती थीं। मैंने सुना है धनाढ्य घरानों के कुछ
किस्से जिसमें अपनी झूठी आन- बान और शान बचाने के लिए घर के आँगन में अपनी बेटियों
को दफ़नाया गया। लेकिन यह सिर्फ़ पुरुष वर्ग द्वारा किया गया अत्याचार नहीं,
बल्कि इसमें घर की बुज़ुर्ग जनानियों की भी सहमति रहती थी ।
मेरे बड़े नाना यहाँ ज़मींदार थे । उन दिनों यह
प्रथा समापन पर था। पर कायस्थ, राजपूत और वामन के गाँव से
हेकड़ी जल्दी जाती नहीं और लोग भी अपने स्वार्थ के लिए जी हुज़ूरी करना नहीं
छोड़ते । पर मेरे नाना बहुत ही सीधे- सादे डालमियानगर शहर में नौकरी करने वाले और
छल - प्रपंच से कोसों दूर रहने वाले इंसान थे। उन दिनों डालमियानगर में डालमिया
ग्रुप की बड़ी- बड़ी सीमेंट की फ़ैक्टरियाँ थीं और शहर की चमक- धमक देखते बनती थीं
। हर गर्मी की छुट्टियों में हम माँ - पापा के साथ नानी- घर डालमियानगर जाते और
फिर कुछ दिनों के लिए दो घंटे की दूरी पर स्थित धनहरा गाँव। रोहतास जिला का धनहरा…
जैसा नाम वैसा ही धन - जन से समृद्ध गाँव। उम्दा क़िस्म की धान की खेती के लिए
मशहूर रहा है यह गाँव। बड़ी- बड़ी बातें करना, लम्बी- चौड़ी
डींगें हाँकना, हुज़ूर के लिए कुछ भी करने को तैयार ये
विशेषताएँ यहाँ के लोगों में दिखती थीं।
उन दिनों धनाढ्य लोगों के घर में काम करने वाले
आदमियों की कमी नहीं होती थी । वे कानू ( नाई ), कहार
और कुछ गरीब लोगों को अपनी कुछ ज़मीन दे दिया करते थे, जिन
पर वे उपज कर अपना घर चलाते थे। ज़मीन किसको और कितनी देनी है, वह उनकी ईमानदारी और स्वामिभक्ति पर निर्भर करता था। पोखर, तालाब और नदी से खेत की दूरी पर दाम आँका जाता था। बदले में वे गरीब जीवन
भर अपना श्रमदान देते थें। अगर मालिक अच्छा रहता, तो कई
जिंदगियाँ बच और बन जाती थीं। बाद में सिर्फ़ नक़द की चाह में लोगों के बच्चे घर
से बाहर निकलने लगे। मगर इस गाँव में अनाज की कमी कभी नहीं हुई।
सोहावन भैया का पूरा परिवार हमेशा नाना जी के
परिवार की सेवा में लगा रहा । बड़े नाना ने काफ़ी ज़मीन बुद्धू चाचा को दे रखी थी
। नाना जी नौकरी करते थे, इसीलिए वे ही अपनी मर्ज़ी से
कानू, कहार, जमादार, दाई माँ लोगों को थोड़ा नक़द दे देते थें। उनके बच्चों की हाथ पर दिया गया
दो- पाँच रुपया भी उन्हें खुश कर देता था। शादी - ब्याह, छट्ठी
- मरनी, रोपनी में कुछ पैसे अलग से दे दिए जाते थे।
इधर धनहरा गए कुछ वर्ष बीत गए। हमलोग भी बड़े हो
गए। मतलब इतने बड़े कि अब हमें सुहावन भैया या श्रीगोविंद भैया के साथ गाँव घूमने
नहीं भेजा जाता। किसी भी भैया लोग से ज़्यादा या अकेले में बात करने नहीं दिया
जाता। मुझे ग़ुस्सा तो तब आता , जब भैया को उनके साथ गाँव
दिखाने के लिए साइकिल पर भेजा जाता, पर हम बहनों को जाने
नहीं मिलता। मगर आज भी यह नहीं बोल सकती कि यह ग़लत सोच थी।
सोहावन भैया अब मैट्रिक पास कर चुके थे। उनके दो
बच्चे भी हो गए थे। माँ ने चाँदी की पायल भी दी थी उनकी कनिया को और बच्चों को
रुपये। मेरा भी मन करने लगा कि कनिया का चेहरा घूँघट उठाकर देखूँ। मगर मेरे पास उस
समय देने के लिए कुछ नहीं था। उनके बच्चों को फ़ाइव स्टार हमसे दिलवा ही दिया गया
था। काश! माँ को उस समय अपनी यह इच्छा बता देती, तो
कनिया का चेहरा तो देख लेती।
इस बार हम लम्बे समय के बाद गाँव आए थे। सोहावन
भैया में बचपना नहीं था, मगर हमारे प्रति उनकी निष्ठा
में कोई कमी नहीं आई थी। कुछ चिंतित भी दिखते थे। अब मुझे घर के अंदर ही रहने के
कारण ज़्यादा किस्से सुनने को मिलते थे। दिन भर आँखें खुली रहती। गर्मी की दोपहर
में सभी बड़े लोग सो जाते थे, पर बच्चों की आँखों में नींद
कहाँ? कच्चे आम के टिकोलों और इमली में काला नमक और कुटी हुई
लाल मिर्च डालकर खाने का मज़ा ही कुछ और था। जब पेट में लहर शुरू होती, तब बहुत डाँट पड़ती थी।
पहले की तरह खेत की मेड़ों पर दौड़ने जाना, गोसाईं के ठेले से लकठो ख़रीदने जाना और श्रीगोविंद भैया के खेत पर गुड़
की भेली बनते हुए देखने का मौक़ा मिलना, यह सब अब नहीं होता
था। सब कुछ सामने परोस दिया जाता, मगर न तो लकठो में और न ही
गुड़ की भेली या ताज़े शहद में वह मिठास रहती। हम तो उतने बड़े नहीं हुए थे,
मगर गाँव में बेरोजगारी और चोरी - छिनतई का कद बढ़ गया था। माँ - नानी को छौड़ों की नज़रों की
चिंता रहती थी।
कुछ दिनों बाद ही हम वापस अपने शहर लौटने वाले
थे। पापा भी साथ थे। इसीलिए खूब ख़ातिरदारी होती और जमघट लगता था दालान में। फिर
अचानक लौटते वक़्त पता चला कि सोहावन भैया हमलोगों के साथ पतरातू , हमारे घर जा रहे हैं । हम ख़ुशी से उछल पड़े । माँ- पापा भी खुश थे।
बाद में असलियत पता चली। कुछ महीने पहले जब
सोहावन भैया की कनिया पेट से थी, तब शायद तबीयत बहुत ख़राब
हुई और घर में किसी के पास इतने नक़द नहीं थे कि गाड़ी करके शहर के अस्पताल ले
जाया जाता। उस दिन कोठी में बड़े नाना भी नहीं थे। सारे लोग नाना जी के पास
डालमियानगर आए हुए थे। अगले दिन लेडी डॉक्टर के आते - आते बच्चा ख़राब हो गया और
कनिया को भी बहुत मुश्किल से बचाया गया। तब बुद्धू चाचा ने ठान लिया कि सोहावन
भैया को कहीं नौकरी लगवाने की सिफ़ारिश करेंगे। तब बड़े नाना ने पापा से बात की और
पापा उन्हें अपने पास ले आए। पतरातू के थर्मल प्लांट में उनकी नौकरी लग गई।
अब सोहावन भैया हमारे घर के आउटहाउस में रहते
थे। सुबह प्लांट जाते और शाम में लौट कर हमारे साथ थोड़ा खेलते और माँ से बातें
करते थे। शुरू में उनका रुआँसा चेहरा देखकर मुझे दुःख होता। पूछने पर माँ बताती कि
पहली बार अपने माँ- बाप, बीवी- बच्चों को छोड़कर निकला
है; इसीलिए याद आती होगी। पता नहीं क्यों तब हमें हँसी आ
जाती। शायद उनकी उम्र देखकर और शहरी भाषा बोलने की कोशिश सुनकर। फिर पापा हमें
समझाते और उनको शहरी तौर तरीक़े सिखाने में मदद करने बोलते।
सोहावन भैया लगन और धुन के पक्के थे। जो सोच
लेते वे कर लेते थे और जो उनको नहीं भाता उसे कभी नहीं करते थे। लेकिन उनकी मीठी
बातों से यह पता नहीं चल पाता कि वह कोई काम नहीं करेंगे।
गाँव के लोग शहरी लोगों की अपेक्षा मेहनती और
बहादुर तो होते ही हैं। घर के पीछे थोड़ा झाड़- झँखाड़ बढ़ गया था। बरसात के दिनों
में एक दिन साँप निकल आया। बड़ा धामिन था। हम काफ़ी डर गए। सोहावन भैया तुरंत अपना
डंडा लाए और साँप को मारकर हाथ में लेकर खड़े हो गए। तब मैंने पहली बार यहाँ उनका
गाँव वाला तेल पिलाया डंडा देखा। कब और कैसे आया यह, तो पता
नहीं। यह जरूर पता चला कि पूरे धनहरा गाँव में महीनों तक उनकी इस बहादुरी के
किस्से को सुनाया गया। काफ़ी मिर्च मसाले छिड़ककर कि सोहावन ने सभी की जान बचाई।
मालिक के प्रति अपना फ़र्ज अदा किया। कुछ लोगों ने यह भी मान लिया कि किसी मुखिया
ने उन्हें सम्मानित भी किया। पर उन्हें यह नहीं पता था कि शहर में तो मुखिया होता
ही नहीं। एक बार दुर्गा पूजा की छुट्टियों में रात वाली बस से उनके बच्चों को लेकर
श्रीगोविंद भैया आए थे। हमें भी बहुत अच्छा लगा था । पापा ने सभी को प्लांट और
नलकारी डैम भी घुमाया था । भरकुंडा के सिनेमा हॉल में टिकट कटाकर फ़िल्म देखने के
लिए भी भेजा था। शाम में सारे बच्चे मिलकर क्रिकेट खेलते और गेंद को दौड़कर उनके
बच्चे ले आते थे। हम भी खुश और वे भी।
दो - ढाई साल ही बीते थे । धीरे - धीरे हम भाई -
बहन अपनी पढ़ाई, डांस और पेंटिंग वग़ैरह में व्यस्त होते चले
गए और हमारे सोहावन भैया की पारिवारिक जिम्मेदारियाँ और बच्चों की चिन्ताएँ बढ़ती
गईं। उनकी कनिया यहाँ कभी नहीं आयीं। गाँव में उनके पूरे घर का चूल्हा - चौका तो
उन्हीं की ज़िम्मेदारी थीं । एक बार माँ के कहने पर सोहावन भैया अपने मन की बात
बुद्धू चाचा को बोले भी थे मगर बुरी तरह डाँट सुने थे । फिर तो कभी हिम्मत नहीं
हुई दुबारा अपनी कनिया को शहर लाने के लिए पूछने की। छुट्टियों में इन्हीं का गाँव
जाना होता था।
सोहावन भैया जब भी गाँव से लौटते, थोड़ा परेशान दिखते। गाँव में जैसे- जैसे शहरीपन बढ़ता गया, गाँव सिमटता गया और बहुत कुछ घटित होने लगा जो पहले कभी घटित नहीं होता
था।
सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं का असर जरूर दिखा, विकास भी हुआ, गाँवों में केंद्रीय बोर्ड के
विद्यालय भी खुल गए पर साथ- साथ बाहरी ताकतों के प्रवेश से उथल- पुथल भी होने लगी
। भोले- भले किसान अब भी ठगे जाते हैं। पहले ज़मींदार अपनी ज़मीन देकर गरीबों को
ज़िंदगी भर के लिए ख़रीद देते थे अब बिचौलिये या परियोजनाओं के बीच के अधिकारी
उनकी मजबूरी को ख़रीदते हैं । पहले से बहुत अच्छी नहीं हैं उनकी हालत। नतीजा,
नई पीढ़ी का पलायन और शहर की ओर बढ़ता गाँव अंदर से खोखला होता जा
रहा है। अधूरी जानकारी और बिचौलिये की पढ़ाई पट्टी से वे लोग आज भी किसी न किसी के
क़र्ज़ से डूबे रहते हैं। आज पहले की तरह एकजुट नहीं हैं गाँव। पहले कुछ वर्गों और
जातियों में गली मुहल्ला बँटता था आज वहाँ एक- एक घर या परिवार बँट गया है।
एक बार गाँव जाने के बहुत दिनों के बाद भी जब
सोहावन भैया वापस नहीं लौटे तब माँ ने हमारे पूछने पर बताया की बुद्धू चाचा नहीं
रहे,
इसीलिए इकलौती संतान होने के कारण उनको अब गाँव में ही रहना पड़ेगा।
उसके बाद सोहावन भैया कभी पतरातू नहीं आए। हाँ एकाध बार माँ के पास उनकी चिट्ठी आई
थी। माँ के कुछ मनीऑर्डर भी किया था।
अब नाना- नानी कोई नहीं हैं। अब तो बस धनहरा की
धूमिल स्मृतियाँ हैं जो माँ से बात करने के बाद थोड़ी स्पष्ट हुई। मैंने माँ से
पूछा कि अभी सोहावन भैया कहाँ हैं? माँ ने पूछा
तुम्हें अचानक उसकी याद कैसे आई, उसको तो गुज़रे दस वर्ष से
ज़्यादा हो गए। जिस सोहावन भैया की कनिया का चेहरा मैंने आज तक नहीं देखा आज उनके
लिए भी मेरी आँखों में आँसू आ गए। सोहावन भैया का स्थान तो अलग ही है। एक टीस-सी
उठती है, जिसे आज के कृत्रिम युग के बच्चे कभी समझ नहीं पाएँगे।
न उनको अपने काँधे पर बिठाकर अपनी संस्कृति को दिखाने- समझाने वाला कोई सोहावन
भैया है और न ही लकठो और लाई का स्वाद चखाने वाला।
लेखक परिचय- एक काव्य संग्रह, एक लघुकथा संग्रह, दो साझा कहानी संग्रह एवं विभिन्न विधाओं में 30 से ऊपर साझा संग्रह प्रकाशित । कई राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी, दूरदर्शन राँची से कविताएँ, कहानियाँ एवं नाटक का प्रसारण। सम्पर्कः राँची, झारखंड
1 comment:
अच्छी कहानी। गांव के पुराने समय की स्मृतियां जागृत हो गयी।
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