वो एक छोटा-सा टपरीनुमा होटल है। साफ-सुथरा।
भट्टी पर चाय उबल रही है। दो तरह का नमकीन और बिस्कुट के पैकेट काँच की बरनियों
में बड़े करीने से रखे हुए हैं।
‘अभी कहाँ पोस्टिंग है तुम्हारे बेटे की?’ मैंने बात जारी रखी।
‘नाम तो
याद नहीं,
पर इंदौर के पास किसी तहसील में...वहाँ।’ उसने कहा। कोई अट्ठावन-
साठ के बीच की उम्र होगी- मैंने सोचा।
‘तुमने खूब पढ़ाया-लिखाया अपने बेटे को... काबिल
बनाया।’ जब वह मुझे चाय दे रहा था, तब मैंने कहा।
‘हाड़तोड़ मेहनत की थी उसने, पढ़ाई में अव्वल रहता।’ वह बोला, ‘वहाँ उसे सरकारी
बंगला मिला है।’
‘बच्चे काबिल निकल जाएँ, तो इससे बड़ी बात किसी माँ-बाप
के लिए और क्या होगी।’
‘ये बात तो है बाबूजी। हमने भी उसे
पढ़ाने-लिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी... हमने अपना पेट काट-काटके उसे पढ़ाया।’
वाला कह रहा है, ‘सारे इलाके में उसने हमारी मूँछें ऊँची कर
दीं।’
‘अच्छा हुआ... अब तुम्हारी तकलीफें दूर होंगी।’
चाय पीते हुए मैंने कहा।
‘सब ऊपर वाले की मर्जी है।’
‘अब तुम्हें ये होटल का धंधा छोड़ देना चाहिए...
बेटा तहसीलदार बन गया है!’ मैंने चाय का आखिरी घूँट भर कर खाली कप रख दिया।
‘ये नहीं हो सकता बाबूजी।’
‘तहसीलदार के पिता हो!’ मैं मुस्कुराया।
होटल वाला भी मुस्कुराया, ‘हमें हमारे हाल पे छोड़कर वह चलता बना, तब?’
‘नहीं, ऐसा नहीं
होगा।’
‘मान लो बाबूजी, ऐसा ही
हुआ तो?’
‘तब तो...’ मैं और कुछ बोलना चाह रहा था, पर लगा कि जुबान तालू से चिपक गई हो।
होटल वाला मुझे देखते हुए मंद-मंद मुस्करा रहा
था।
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