जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्राणी सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँचने की अभिलाषा रखता है और इसके लिए वह निरन्तर प्रयत्नशील भी रहता है। आज तक केवल बुद्धि तथा प्रतिभा को ही जीवन की सफलता का सोपान समझा जाता रहा है। कुशाग्र बुद्धि वाले बच्चे को देखकर यह मान लिया जाता था कि यह बच्चा बड़ा होकर अवश्य एक सफल अधिकारी बनेगा अथवा उच्च पदासीन होकर जीवन यापन करेगा। आज के प्रतिस्पर्द्धा के युग मे ऐसा देखा गया है कि यह आवश्यक नहीं है कि उच्च बौद्धिक स्तर वाले बच्चे ही आगे जाकर अपने कार्यक्षेत्र या व्यवसाय में सफल हों। ऐसे भी उदाहरण हैं कि कई मध्यम बुद्धि वाले लोग भी अपने व्यक्तित्व के अन्य गुणों के कारण सफलता की चरम सीमा को छू लेते हैं।
वास्तव में ऐसा क्यों होता है ? सफलता में बौद्धिक स्तर के महत्त्व की धारणा को तोड़ने वाले हार्वर्ड
विश्विद्यालय से मनोविझान में पी-एच. डी. तथा विज्ञान संबन्धी अनेक लेखों के लेखक
डेनियल गोलमेन हैं । इन्होंने सन् 1995 में अपनी पुस्तक
‘इमोशनल इंटैलिजेन्स -व्हाई इट कैन मैटर मोर दैन आई क्यु’ में तथा पुन: ‘व्हेयर
मेक्स ए लीडर’ में यह स्पष्ट किया है कि जीवन मे प्रतिभा एवं बुद्धि के महत्त्व को
नकारा नहीं जा सकता, किन्तु जीवन पथ पर अग्रसर होने के लिए
एवं सफलता प्राप्त करने के लिए प्रतिभा के साथ-साथ भावनात्मक बुद्धिमत्ता का होना
आवश्यक है। यानी कोई भी प्रतिभावान व्यक्ति अगर भावनात्मक स्तर पर भी परिपक्व होगा,
तो दोनों गुण सोने में सुगन्ध जैसा कार्य करेंगे। इस विषय में एक
बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि बौद्धिक स्तर जन्मजात तथा वंशानुगत हो सकता है;
किन्तु भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास किया जा सकता है।
भावनात्मक बुद्धिमत्ता से तात्पर्य यह है कि
मनुष्य अपनी निजी भावनाओं जैसे क्रोध, उद्वेग,
खुशी, तनाव आदि को पहचानकर उन्हें इस तरह से
संयमित एवं निर्देशित करे कि वे उसकी सफलता तथा उद्देश्य पूर्ति में सहायक हो
सकें। वह अपनी प्रतिभा तथा भावनात्मक योग्यता के अनुसार जीवन के हर क्षेत्र में
परिश्रम करते हुए अपने व्यावहारिक तथा व्यावसायिक जीवन में भी दूसरों की भावनाओं
को समझ कर समझदारी से प्रतिक्रिया करे। वास्तव में अपनी भावनाओं की सही पहचान एवं
उनका सही दिशा की ओर निर्देशन करना ही भावनात्मक बुद्धिमत्ता है।
समाज, परिवार एवं
कार्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति की अभिप्रायपूर्ण ढंग से कार्य करने, विवेकपूर्ण ढंग से सोचने और अपने वातावरण के साथ प्रभावपूर्ण ढंग से
निपटने की योग्यता का योगफल अथवा सार्वभौम योग्यता को भावनात्मक बुद्धिमत्ता कहा
जा सकता है।
मानव के मस्तिष्क का सही विश्लेषन करें, तो पता चलता है कि उसके दो भाग
हैं। बाएँ भाग में तर्क बुद्धि है तथा दाएँ भाग के द्वारा मनुष्य अन्त:करण की आवाज़
को सुनता और परखता है। दोनों भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं और दोनों का सामंजस्य ही
मनुष्य के सफल जीवन की पूँजी है।
भावनात्मक बुद्धिस्तर के विकास के लिए पाँच मुख्य गुणों का विकास अत्यावश्यक है-
1. खुद की पहचान- जब मनुष्य अपनी निजी भावनाओं
को तथा उनके कारणों को पहचानकर उन्हें सही तरह से निर्देशित करता है, तो वे पग -पग पर उसकी सहायक बन जाती हैं। यह आत्मविश्लेषण का गुण
भावनात्मक बुद्धिमत्ता का प्रथम सोपान है। ऐसा व्यक्ति अपनी योग्यताओं एवं कमियों
का सही मूल्यांकन करके अपने सहयोगियों द्वारा समय-समय पर दिए गए सुझावों का स्वागत
करता है। ऐसे व्यक्ति की परख करने के लिए यह देखा जाता है कि वह सुख-दुख, तनाव-खुशी आदि पर कैसी प्रतिक्रिया करता है, आस पास
के परिवेश मे अपने आप को कितना ढालने की चेष्टा करता है तथा अपनी जिम्मेवारियों का
निर्वाह कितनी कर्त्तव्यपरायणता से करता है। ऐसे व्यक्ति में अदम्य आत्म विश्वास
होता है तथा वह अपने विचारों को तटस्थता के साथ व्यक्त करने में संकोच नहीं करता।
2. आत्म संयम- अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख कर
किसी भी परिस्थिति में शान्त रहना, नकारात्मक विचारों को
पीछे धकेल कर सकारत्मक विचारों के सहारे कार्यकुशलता का परिचय देना ही आत्मसयंम
अथवा आत्म नियंत्रण है । इस विषय में यह आवश्यक हो जाता है कि मनुष्य क्रोध,
उत्तेजना, अनिर्णय आदि दृष्टिकोण, अनिष्ठा, तनाव आदि नकारात्मक विचारों पर विजय पाकर संयम, विश्वसनीयता,
कार्यसंलग्नता आदि सकारात्मक गुणों का विकास करता है। ऐसा व्यक्ति
कार्य के प्रति पूर्ण समर्पित रहकर अन्तरात्मा
के आदेशों को समझ कर अपनी योग्यतानुसार कार्यप्रणाली में बदलाव लाने तथा
नवीन प्रयोग करने में भी संकोच नहीं करता।
3. संवेदनशीलता- दूसरों की भावनाओं को समझना
और उनका आदर करना भावनात्मक बुद्धिमत्ता का एक प्रमुख गुण है। मनुष्य जब यह पहचान
लेता है कि उसकी व्यक्तिगत भावनाओं का उसकी कार्यप्रणाली एवं कार्यक्षेत्र पर क्या
असर पड़ता है तथा वह अपने सहयोगियों की भावनाओं, योग्यताओं
तथा विचारों का आदर करते हुए समझदारी से एक अटूट संगठन बना कर चलता है, तो हर क्षेत्र में उसे मित्रों तथा सहयोगियों का सहयोग ही मिलेगा।
4. प्रेरणा शक्ति- भगवत् गीता में लिखा है-
"फल की चिन्ता किए बिना एकाग्रचित्त होकर, तन्मयता से
कार्य की ओर समर्पित रहना चाहिए।" भावनात्मक बुद्धिमत्ता रखने वाला व्यक्ति
भी कार्य के प्रति पूर्णतया समर्पित रहकर परिश्रम, उद्यम,
तथा लगन से अपना कार्य करता जाता है तथा फल की चिन्ता की ओर ध्यान
नहीं लगाता। बौद्धिक तथा भावनात्मक बुद्धिमत्ता का सामंजस्य रखने वाले लोग कार्य
को शुरू करने से घबराते नहीं; अपितु उनमें कार्य करने का अदम्य उत्साह होता है। वे अपनी लगन एवं उत्साह
से अपने सहयोगियों को भी प्रेरित करते रहते हैं।
5. सामाजिक व्यवहार कुशलता- समाज की विभिन्न इकाइयों, समुदायों के साथ सौहार्दपूर्ण संबन्ध स्थापित करके कुशलता से सहयोगियों तथा मित्रों को साथ ले कर चलने वाला व्यक्ति भावनात्मक स्तर पर परिपक्व माना जाता है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति की ओर संलग्न ऐसा व्यक्ति दूसरों से सहयोग की आशा रखते हुये स्वयं भी सदैव सहयोग के लिये तत्पर रहता है। ऐसे व्यक्ति का प्रभावमय व्यक्तित्व होता है और वह खुले दिल से विचारों का आदान प्रदान करता है। ऐसे प्रभावी व्यक्ति नये-नये प्रयोग करने से भी सकुचाते नहीं हैं । वे विश्व में औद्योगिकी जगत में तथा समाज में आने वाले बदलाव के प्रति जागरूक रहते हैं।
आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कोविड -19 वैश्विक महामारी का प्रभाव शारीरिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर पड़ा है।
युवा और छात्र-छात्राओं पर इसका अधिक प्रभाव हुआ है। भय, चिता,
असमंजस, और तनाव जैसे मानसिक शत्रुओं ने उनके मानसिक स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित किया
है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से विवि को छात्रों को इससे उबारने के लिए एक
ऑनलाइन कोर्स शुरू करने का निर्देश दिया है। इस संदर्भ में यह सिफारिश की गई है कि
शिक्षा संस्थानों को परामर्श कार्यक्रमों के माध्यम से माजिक-भावनात्मक व शैक्षणिक
सहायता और सलाह प्रदान करने की आवश्यकता है। अनिश्चितता के इस समय में यह बहुत
आवश्यक है कि विद्यार्थियों के मानसिक और बौद्धिक विकास में यह महामारी और इससे
जुड़ी समस्याएँ बाधा न उत्पन्न करें | इस के लिए माता-पिता,
एवं शैक्षिक संस्थाएँ पूर्ण रूप से जागृत और समर्पित हों।
‘गोलमेन’ की यह महत्त्वपूर्ण खोज कि ‘प्रतिभा
के साथ भावनात्मक विकास होना आवश्यक है’.... भारतवासियों के लिए कोई नई बात नहीं।
हमारे पौराणिक ग्रन्थों में भी इन्द्रियों पर संयम, मन पर
नियंत्रण, सहिष्णुता, संवेदनशीलता,
आत्मशान्ति तथा आत्मविश्लेषण के विषय में खूब लिखा गया है। मन की
चंचलता पर काबू पाकर अपनी इन्द्रियों को सही दिशा की और लगाना ही सही मायने में ‘योग’
और ‘ध्यान’ है। अत: आज के युग में हम अपने ग्रन्थों से प्रेरणा लेकर इस दिशा की और
सही कदम बढ़ाएँ तो हर क्षेत्र में सफल हो सकते है । भावनात्मक बुद्धि अथवा
समझ की सार्थकता इस बात में है कि इसके माध्यम से मानवीय संबंध स्वस्थ और बेहतर
बनाए जा सकते हैं। साथ ही इसकी महत्ता इस बात में भी है कि इसके सहारे जीवन से
जुड़ी चुनौतियों से जूझने तथा इन चुनौतियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर
समस्याओं के समाधान में मदद मिलती है। संक्षेप में भावनात्मक बुद्धि हमें एक बेहतर
जीवन जीने की क्षमता प्रदान करती है।
Email: shashipadha@gmail.com
2 comments:
सुंदर आलेख,आपने बिल्कुल सही लिखा है कि 'भावनात्मक बुद्धि अथवा समझ की सार्थकता इस बात में है कि इसके माध्यम से मानवीय संबंध स्वस्थ और बेहतर बनाए जा सकते हैं।'..आज की पीढ़ी को भावनात्मक बुद्धि की महत्ता समझाना आवश्यक है।हार्दिक बधाई।
‘भावनात्मक बुद्धिमत्ता’ का ही जीवंत उदाहरण रचनात्मकता के सन्दर्भ में भी स्पष्ट देखा जा सकता है. जबकि यह सही है कि रचना को सजाने-संवारने का काम बुद्धि द्वारा अर्जित कौशल का होता है, किसी भी तरह के सृजन का बीज भावना में ही अंकुरित होता है. भावनात्मक सजगता के बिना साहित्य, या कहें, कविता भी कहां रची जा सकती है! सुन्दर लेख.
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