जब से मोबाइल धारकों की संख्या बढ़ी है, तब से शुभचिन्तकों की बाढ़ आ गई है। शुभचिन्तकों का माफिया सक्रिय हो गया
है। मोबाइल कम्पनियाँ शुभचिन्तकों की शुभचिन्तक हो गई हैं। ऐसे-ऐसे मितव्ययी टेरिफ कार्ड आ गए हैं कि कहीं
दस पैसे में बात हो जाती है, तो कहीं दो पैसे में और कहीं
कहीं तो फ्री काल फैसिलिटी है। घंटों बतियाते रहो अपने बाप का क्या जाना है।
हर थोड़ी थोड़ी देर में मोबाइल घनघनाता है, जिसमें कोई न कोई शुभचिन्तक पीछे पड़ा होता है। मोबाइल उठाते ही उनकी आवाज
सुनाई देती है ’ओजी बधाई हो बधाई हो।’
‘अरे सुखविन्दर भ्राजी! आप हो।’ यह दफ्तर के
एक सहकर्मी का फोन था।
‘हाँ जी... हाँ जी... आपणे बिलकुल ठीक
पहचाणाजी। ओ बधाई हो जी...।’ उन्होंने फिर बधाई दी। मैंने पूछा ’किस बात की बधाई दे रहे हैं
सुखविन्दर जी।’
’इस महीणे बोनस मिल रहा है। बधाई हो। पिछला
एरियर्स मिल रहा है बधाई हो।’ -वे बोले।
मैंने कहा ’ये तो विभागीय प्रक्रिया है
सुखविन्दर जी। ये तो हमारा आपका हक है। मिलना ही है। इसमें बधाई का क्या है।’
‘ओ जी हम तो आपके शुभचिन्तक हैं। बधाई देणा
अपणा काम है।’ उधर से आवाज आई। ऐसा लगा कि आज दफ्तर में सुखविन्दरजी को कोई काम
नहीं है। बधाई देकर टाइम पास कर रहे हैं और मुफ्त में दफ्तर का फोन घुमा रहे हैं।
मोबाइल का रिंग टोन फिर बजा। स्क्रीन पर नाम
दिखा भाई साब। मैंने कहा ’हाँ भाई साब...बोलिए’।
‘हाँ
बिन्नू बधाई हो.... आज तुम्हारी शादी की साल गिरह है।’
‘साल गिरह तो आपकी भी है। आखिर हम दोनों की
शादी एक साथ हुई थी।’
‘चलो तुमको याद तो है। पच्चीस बरस हो गए हम
दोनों की शादी हुए। ये हमारी शादी का सिल्वर जुबली साल है।’
‘हाँ भाई साब, और इन
बीते पच्चीस बरसों में आपने भर- भरकर बधाई दी।
काम एक कौड़ी का नहीं हुआ। जीवन में
जब भी कुछ जरूरत पड़ी, न आप काम आए न कोई मार्गदर्शन आपका
मिला। इन बीते बरसों में हम पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे को लेकर ही बहस करते रहे।
मैकियावली ने ठीक कहा है ‘A man more readily forget a death of father
than loss of patrimony यानी इंसान पिता की मृत्यु के दुख को तो भूल
जाता है पर पैतृक सम्पत्ति का छीना जाना वह कभी नहीं भूलता।’
‘ये लो तुम्हारी भाभी से बधाई लो।’ भाई साहब
ने बीच में मामले को दबाते हुए कहा। भाभी का औपचारिक स्वर सुनाई दिया- ‘बधाई हो शादी की पच्चीसवीं सालगिरह की बधाई हो। पूनम है क्या हम दोनों एक
साथ ब्याह होकर आई थीं।’ यह भाभी की पच्चीस बरसों पुरानी आवाज थी, जो केवल बधाई देने के लिए ही फोन में फूटती है। सामना होने पर मुँह में
चुप्पा बाँध लेती हैं। न कोई मुस्कुराहट, न कोई बातचीत।
व्यवहार में कहीं कोई आत्मीयता नहीं होती। ऐसे शुभचिन्तकों में अपनापन दर्शाने का
यही एक अवसर होता है कि सामने वाले को जन्मदिन की बधाई दो, दीवाली
और ईद की मुबारकबाद या फिर नए साल की शुभकामनाएँ। मोबाइल पर खैर खबर ले लो और फिर
चिन्तामुक्त रहो कि हमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। अब मियाँ की खैर हो, तो अपनी किस्मत से। किसी की किस्मत का ताला हम थोड़े ही बदल सकते हैं।
आजकल एक शुभचिन्तक नाराज चल रहे हैं कहते है – ‘आप जानते नहीं हैं कि मैं आपका कितना बड़ा फैन हूँ? आपको
हर साल फोन पर जन्मदिन की बधाई देता हूँ; पर आपने मुझे मेरे
जन्मदिन की बधाई नहीं दी।’
मैंने कहा ’भाई मेरे ... मुझे खुद अपना जन्मदिन
तो याद रहता नहीं, मैं आपके जन्मदिन को कैसे याद
रखूँ।’
‘तो फिर आपने मोबाइल क्यों रखा है? सबकी जन्म तारीख ’सेव’ करके रखिए?’ वे बोले।
मैं चौंका – ‘क्या!
मोबाइल का यही उपयोग है कि सबकी तारीख नोट करके रखो और बस बधाइयाँ देते रहो। लगता
है आपका और कोई काम धंधा नहीं है?’
‘अरे भाई साब आप लोगों को बधाई देकर तो
देखिए... ये सौदा बुरा नहीं है। आप उनको बधाई दीजिए और बदले में उनसे पार्टी
लीजिए! जिन्दा रहने के लिए खाना पीना तो जरूरी है; पर मौज-
मस्ती के लिए पीना- खाना भी तो हो।’ अब जाकर इस शुभचिन्तक का राज़ खुला। एक हाथ में
जाम हो और दूसरे में मुर्गे की टाँग हो फिर देखिए इन शुभचिन्तकों का चेहरा। बारह
बजे रात को भी ऐसे प्रफुल्लित होता है, जैसे गोधूलि बेला की
पवित्र घड़ी हो।
मैंने कहा ‘एक अच्छी
पत्रिका में मेरी कहानी छपी है आपने पढ़ी।’
‘अच्छा! पढ़ लेंगे यार आपकी कहानी भी पढ़ लेंगे,
आपका व्यंग्य भी पढ़ लेंगे। पर पहले छपने की खुशी में आपकी ओर से एक
पार्टी तो हो जाए।’ ये ऐसे शुभचिन्तक हैं जिन्हें पता चल जाए कि बधाई देने के बाद
उन्हें पार्टी नहीं मिलेगी, तब वे न बधाई देंगे और न ही
रचनाएँ पढ़ेंगे।
बूथ वाला भी कहता ’मीटर बिलकुल ठीक है साहब...
आपकी शुभकामनाएँ बड़ी हैं, तो आपका बिल भी बड़ा है। बस,
इस बिल को पटाने के लिए आपका दिल भी बड़ा होना चाहिए।’
‘दिल तो बड़ा है; इसीलिए
तो शुभकामनाएँ दे रहे हैं आपको।’ दफ्तर में प्रवेश करते हुए किसी शुभचिन्तक की
रोबदार आवाज सुनाई दी। वे सफारी सूट पहने थे। हाथ में ब्रीफ केस लिये हुए थे।
‘धीरे बोलिए साहब। इतनी रोबदार आवाज में
शुभकामनाएँ, देंगे तो दिल पर भारी पड़ जाएगा। आजकल हर किसी के
पास बढ़े हुए कोलेस्ट्रॉल वाला दिल है। न जाने कब झटका खा जाए।’ मैंने सहमते हुए
कहा ’कभी-कभी शुभकामनाएँ भी भारी पड़ जाती हैं। ऐसी शुभकामनाओं को अच्छे- अच्छे दिल
वाले भी पचा नहीं पाते हैं, चलते बनते हैं।’
‘इसमें शुभकामना देने वाले का क्या दोष?
दोष तो आपके बढ़े हुए कोलास्ट्राल का है। आप खाने में ऐसी रिफाइन्ड
आयल यूज कीजिए, जिससे आपका कोलास्ट्राल न बढ़े । हम आपको
फूलों और पत्तों से निकाले गए ऐसे प्राकृतिक तेल का ब्राण्ड बताते हैं, जिससे आपका कोलास्ट्राल नियंत्रित रहेगा.’
‘आपके पास है ऐसा कोई ब्राण्ड?’
‘बिलकुल है। आप हमारे सदाबहार ब्राण्ड यूज
कीजिए और हमेशा सदाबहार बने रहिए।’ उन्होंने एक ब्राण्ड का नाम सुझाया, तो हमने पूछा कि ’आप इस ब्राण्ड का नाम कैसे जानते हैं?’
‘ऐसे जानते हैं; क्योंकि
यह हमारी तेल निर्माता कम्पनी का नया ब्राण्ड है। ये रखिए मेरा विजिटिंग कार्ड और
जब भी आपको हमारे सदाबहार आयल ब्राण्ड की जरूरत हो हमें फोन करें। हम आपको घर
पहुँच सेवा देंगे। मेरा नाम ओ.पी.साहू है। अच्छा नमस्कार फिर मिलेंगे।
वे चहकते हुए बोल गए, तब मुझे उनके शुभचिन्तक होने का राज पता चला। दरअसल वे शुभचिन्तक नहीं,
अपने उत्पाद बेचने वाले एक सेल्स रिप्रजेंटेटिव थे मिस्टर
ओ.पी.साहू। हो सकता है उनका पूरा नाम आयल प्रोड्यूसर साहू हो।
ऐसे शुभचिन्तकों से भय बना रहता है कि वे किसी
मौके पर शुभकामना देने के बहाने अपना माल न धका दें। कभी आपके घर में कालीन बिछवा
दे तो कभी किचन में ओवन या बाथरुम में नया गीजर लगवा दें। ऐसे माल धकाने वाले
शुभचिन्तकों के घर आने का समय भरी दोपहरी में होता है। जब गृहस्वामी काम पर चले गए
हों और बच्चे स्कूल, तब घर में रह गई हो केवल गृह
स्वामिनी। चिन्ता उनकी लगेगी और पइसा आपका
लगेगा; इसलिए आपको रहना है ऐसे शुभचिन्तकों से सावधान।
वे कहीं भी मिल जाते हैं और कभी भी मिल जाते
हैं। बस ऐसा ही कुछ है कि लोग उन्हें नहीं खोज रहे होते हैं; पर वे आपको खोज लेते हैं,
मिल जाते हैं। इसलिए लोग उन्हें मिलन सिंह कहते हैं। वे जब भी मिलते
हैं हाथ जोड़कर कह उठते हैं – ‘भैयाजी, मेरे
लायक कोई काम हो तो बताना। मुझे भी सेवा का अवसर दें। यह जीवन आपके कुछ भी काम आ
सका, तो मैं अपने आपको धन्य मानूँगा।’
कभी-कभी किस्मत की उल्टी मार होती है। दूसरों की
चिन्ता करने वालों की दशा दयनीय हो जाती है। ऐसे शुभचिंतकों के लिए ही ये मुहावरा
बना है कि ’शहर की चिन्ता में काजी जी दुबले।’ इनकी पतली हालत को देखकर भी जीवन
में सतर्क होने की जरूरत है।
आजकल हमारा कस्बा कटआउट और होर्डिग्स से भरकर
महानगरीय तेवर दिखा रहा है। रेलवे फाटक पर ट्रैफिक जाम था तब एक कटआउट चेहरा
दिखा। मैंने कहा ’आपको कहीं देखा है।’
‘आपने मुझे नहीं, मेरे
कटआउट को देखा है। जो सारे शहर में नगरवासियों को शुभकामनाएँ देने के लिए मैंने
लगवा रखे हैं।’ किसी पुतले की तरह उनके होंठ हिले थे और चेहरे की स्थायी मुस्कान
दिखाई दी थी। मैंने कहा ‘शहर वालों को आपकी शुभकामनाओं की
क्या जरूरत आन पड़ी है।’
‘शहर वालों की जरूरत हो या ना हो पर मैं
उन्हें शुभकामनाएँ देना छोड़ता नहीं हूँ। चाहे दीवाली हो या ईद, नया साल हो या क्रिसमस का बड़ा दिन। मेरी चिन्ता उनके लिए बनी हुई होती है।
आखिर मैं उनका शुभचिन्तक हूँ। मैं उनकी चिन्ता करूँगा तब आने वाले चुनाव में वे
मेरी चिन्ता करेंगे।’ रेलवे फाटक खुल चुका था। शहर वासियों की चिन्ता दूर करने वे
फाटक के उस पार अपना होर्डिंग लगवाने के लिए खड़े हो गए थे। होर्डिंग में भारी-भरकम
उनकी शुभकामनाएँ थीं और हाथ जोड़े हुए नमस्कार की मुद्रा में उनके कट आउट थे। जिनका
जितना बड़ा कट आउट होगा, उससे जनता की चिन्ता भी उतनी ही बड़ी
होगी। ऐसे शुभचिन्तकों से सावधान रहने के लिए उतना ही बड़ा हौसला भी आपके पास हो
तभी आपकी खैर है।
सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़) 491001, मो. 9009884014
3 comments:
शानदार व्यंग्य...तरह-तरह के शुभचिंतक। हार्दिक बधाई सर
गहरा कटाक्ष
गहन और प्रभावी कटाक्ष।
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