-शशि पाधा
मन की गठरी खोली तो रुई के
फाहों की तरह उड़ने लगी अतीत की स्मृतियाँ। बहुत कुछ उड़ता रहा और कुछ मेरे हाथ आया।
हाथ आई उन सुधियों की एक कड़ी...
हमारा परिवार सम्पन्न नहीं
था लेकिन ख़ुशहाल था। बहुत कुछ नहीं था लेकिन चैन और संतुष्टि थी। अब सोचती हूँ तो
लगता है कि सरस्वती माँ का निरंतर वास था वहाँ। गीत-संगीत, पुस्तकें -पत्रिकाएँ,
पांडुलिपियाँ हमारे घर की निधियाँ थी। छोटे से आँगन में फल भी थे और फूल भी। वैसे
कहने को लोहे का गेट था लेकिन अतिथियों का, मित्रों का आना-जाना इतना था कि गेट
खुला ज़्यादा, बंद कम ही रहता था। वो दिन ही और थे। कोई पूछ के तो आता नहीं था और
एक बार आ जाए तो उसका जाने का मन नहीं होता था। कुछ ऐसा सम्मोहन था उस घर का।
मेरे उस घर में सुबह-शाम पूजा अर्चना तो होती ही
थी लेकिन भजन संगीत रेडियो पर चलता ही रहता था। पिता मर्यादा पुरुषोतम राम के भक्त
थे और माँ बाल गोपाल की। भाई शिव भक्त थे और हम छोटी बहनें माँ दुर्गा की। यूँ
समझिये कि सारे ही देवी देवता हमारे अपने थे। घर में बहुत
सी चीजें तो नहीं थी पर ज़रुरत की लगभग सारी थीं, कभी किसी चीज़ की कमी का आभास नहीं
हुआ। यानी हमारा घर खुशियों से भरा था। घर की हर चीज़ का उतना ही आदर किया जाता था
जितना घर के हर सदस्य का। चीज़ें भी सदस्य ही थीं क्यूँकि हर चीज़ के साथ कोई न कोई
कथा-कहानी जुड़ी थी।
हमारे घर में एक भी godrej की
अलमारी नहीं थी और न ही किसी ट्रंक में कभी ताला लगा देखा। शायद उन दिनों ताले का
रिवाज़ नहीं था या हमारे माता -पिता ने इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी। घर की सब से
मूल्यवान या यूँ कहूँ कि आदरयोग्य वस्तु थी मेरे पिता का डेस्क।
मेरे पिता एक प्रोफेसर थे इसलिए लिखने-पढ़ने का काम उनका शौक
भी था और जीविका का साधन भी। उनक लिखने के लिए एक डेस्क था। ऐसा डेस्क नहीं जैसा
विद्यालयों में विद्यार्थियों के लिए होता है। उनका डेस्क वैसा था जैसा आपने
फिल्मों में मुंशी जी के आगे या किसी सुनार की गद्दी के आगे रखा देखा होगा। छोटे
छोटे चार पायों के ऊपर छोटे से बक्सेनुमा आकार का था लेकिन उसका ढक्कन थोड़ा ढलान
देकर जोड़ा गया था। ऊपर कलम, पेन, दवात आदि रखने की जगह भी बनाई गई थी। मज़ेदार बात
यह है कि इस डेस्क पर छोटा सा ताला लगा रहता था। पता नहीं क्यूँ ? क्यूँकि चाबी तो
उसके साथ ही टंगी रहती थी। कोई खोलता ही नहीं था इसे। ऐसा ही अनकहा/अनलिखा अनुशासन
था हमारे घर में।
वैसे तो यह डेस्क आकार में छोटा सा था लेकिन उसका उदर बड़ा
था। यानी ज़रुरत की हर चीज़ उसमें विराजमान रहती थी। पेन,पेंसिलें,चाँदी के रूपये,
हम सब की जन्मपत्रियाँ,घर/ ज़मीन के आवशयक कागज़। और पता नहीं क्या- क्या| कभी टटोल
के देखा ही नहीं। डेस्क के एक ओर पड़ी रहती थी मेरे पिता के नाम की मोहर,लाख ,छोटी
सी मोमबत्ती। अब आप पूछेंगे मोहर और लाख क्यूँ भला !
मेरे पिता प्रोफ़ेसर थे और परीक्षक भी। बहुत से विश्विद्यालयों
से उन्हें परीक्षा पत्र जाँच के लिए आते थे। जाँच के बाद इन परीक्षा पत्रों को
खद्दर की एक थैली में बंद कर के, थैली को ऊपर से सी दिया जाता था। उस थैली की सिलाई
पर थोड़े थोड़े फ़ासले के बाद मोहर लगा कर उसे सील कर दिया जाता था। इस कुशल कार्य
में मैं अपने पिता की सहायक होती थी। मैं मोमबत्ती पर लाख पिघला कर थैली पर फैला देती
और पिता जी झट से उस पर मोहर लगा देते। मुझे लगता जैसे मैंने अपनी आयु से बड़ा काम
करना सीख लिया है।
वैसे तो पिता जी कोई वैद नहीं थे लेकिन स्वास्थ्य के लिए
लाभप्रद कुछ पुड़ियाँ वह इस डेस्क में रखते
ही थे। ज़्यादा नाम तो याद नहीं लेकिन कुछ कुछ गिना देती हूँ। जैसे- स्वर्ण भस्म,
मोती-मूंगा भस्म, सूखे आंवले की भस्म। शायद और भी कुछ होता होगा। हाँ ! एक चीज़ और
याद आई... चाँदी के वर्क। वैसे तो आंवले और आम का मुरब्बा हम सभी खाते ही थे लेकिन
जब कोई विशेष दिन होता या विशेष अतिथि आता तो उन को परोसे गए मुरब्बे परचाँदी का वर्क अवश्य लगाया जाता।
ना!ना! याद आयाकि जिस दिन खीर बनती थी उस दिन भी।
इसी डेस्क के किसी कोने में सुरक्षित रखे रहते थे माँ के
कुछ जेवर। कुछ इसलिए क्यूँकि दो बड़ी बेटियों और बेटे की शादी में जेवर बनवाने के
लिए इसी कोने से कुछ न कुछ निकला होगा। और हाँ मुझे पता है कि माँ की नत्थ, टीका, दो
जोड़ी झुमके, दो कंगन और कुछ अंगूठियाँ वहीं रखी थीं। पता इसलिए कि घर में और कहीं
ताला लगता नहीं था तो अंदाज़ से कह सकती हूँ। और क्या क्या था, इसके विषय में कभी
सोचा ही नहीं। हमारे लिए तो यह डेस्क ही बहुत ही मूल्यवान और महत्वपूर्ण चीज़ थी।
एक दिन अचानक ह्रदयाघात से पिता जी इस संसार को छोड़ कर चले
गये। बहुत कठिन था उनकी वस्तुओं को संभालना। एक शाम मेरे भाई ने माँ से कहा ,
“पिता जी का डेस्क खोलें?” बैंक, ज़मीन, पेंशन आदि के कागज़ देख लेते हैं।”
मुझे याद है माँ ने केवल सर हिला कर हामी भरी थी। भाई इस
डेस्क को लेकर बैठक में आये। हम सब भाई-बहन नम आँखों से उसे देख रहे थे। सब ने एक साथ
कहा, इसे कभी किसी को नहीं देना। यह हम सब
की धरोहर है। पिता जी की अमूल्य निशानी।
उस क्षण मैंने अपनी
माँ को पहली बार फफ़क कर रोते देखा।पिता जी के स्वर्गवास को 13 दिन हो गये थे।
मैंने अपनी विदुषी, संस्कारी माँ को इन 13 दिनों में कभी रोते नहीं देखा था। वह केवल
शून्य में ताकती थीं।जाने कितनी स्मृतियाँ जुड़ी होंगी उनकी इस डेस्क के साथ। मेरे
माता-पिता के जीवन के उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख के हर पल का मूक साक्षी जो था वह डेस्क।
समय के साथ बहुत सी नई चीज़ें आईं मेरी माँ के घर में और बहुत सी निकली भी होंगी। लेकिन यह डेस्क अभी भी पड़ा है कमरे के उसी कोने में जहाँ शायद 100 वर्ष पहले मेरे पिता ने रखा था।
इमेल : Shashipadha@gmail.com
7 comments:
पिता के माध्यम से एक सम्पूर्ण युग का चित्रण करता भावपूर्ण संस्मरण,बधाई।
ह स्मृतियाँ हमारी मूल्यवान धरोहर होती है। बहुत सुंदर भावपूर्ण संस्मरण। हार्दिक बधाई
पिताजी के डेस्क से जुड़ी यादें मन को छू गईं। सहज,सरल, सुंदर भाषा। हर शब्द मन को बाँधता हुआ।
बधाई शशि जी 🙏
बेहद भावपूर्ण। आँखें नम हो गयीं। बुजुर्गों की निशानी अमूल्य धरोहर ही होती है। बहुत-बहुत बधाई।
बहुत भावपूर्ण संस्मरण। शशि जी हार्दिक बधाई।
शिव जी , सुदर्शन जी , सुरंगमा जी , कृष्णा जी , सुशीला जी , आप सब का हृदय तल से आभार । कुछ चीज़ें आँखों में घर कर जाती हैं । मुझे इसे देख कर ऐसा ही लगता है ।
बहुत हृदयस्पर्शी संस्मरण है शशि जी... यूं भी हम बेटियां यादें ही तो संजोकर रखा करती हैं अपने मन में। आपके संस्मरण ने ढेर सारी पुरानी यादें ताज़ा करवा दीं ❤️❤️
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