-डॉ. महेश परिमल
आपने कभी प्रकृति
को गाते हुए सुना है। नहीं ना... सुन भी कैसे सकते हैं आप?
आप तो शहरों में रहते हैं, जहाँ इतना अधिक शोर है कि अपनी आवाज़ भी ठीक से सुनाई नहीं
देती। शहरी कोलाहल में तो हम अपने हृदय की धड़कनें भी ठीक से नहीं सुन पाते। ऐसे
में किसी भी तरह के एकांत की कल्पना करना ही मुश्किल है। देखा जाए,
तो प्रकृति की एक-एक हरकत में संगीत है। जब तक हम प्रकृति
से नहीं जुड़ेंगे, तब तक इसके संगीत को सुनना हमारे बस में नहीं। जो प्रकृति
के साथ रमना जानते हैं, वे ही इस संगीत को अपने हृदय में बसा सकते हैं। प्रकृति में
खो जाने के बाद हम अपना सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप जानते हैं कि दुनिया का
सबसे खूबसूरत संगीत हृदय की धड़कन है, क्योकि इसे स्वयं ईश्वर ने तैयार किया है,
इसीलिए कहा जाता है कि हमेशा अपने दिल की सुनें।
प्रकृति लय-ताल से
सम्बद्ध है। कभी देखा है आपने, सुबह चिड़ियों की चहचहाट में एक लय है। सूरज जब उगता है,
तो एक लय के साथ उगता है। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं
है,
चाँदनी रात में किसी नदी को बहता
हुए देखो,
तो उसमें भी आपको एक लय ही दिखाई देगी। देखने वाले तो वर्षा
की बूँदों में भी एक लय को देख लेते हैं। ये बूँदें पूरी लय-ताल
के साथ बादल से धरती की गोद में झरती हैं। यहाँ तक कि फूलों के खिलने में भी एक लय
है। कभी खेतों की ओर चले जाएँ, तो वहाँ हल में जुते बैलों के चलने में भी आपको एक लय दिखाई
देगी। कभी किसी कारखाने के समीप से गुजरें, तो वहाँ चलती हुई मशीनों में भी एक लय सुनाई देगी।
वास्तव में धरती
गाती है,
मौसम गाते हैं, ऋतुएँ गाती हैं, मजदूर गाते हैं, किसान गाता है, गृहलक्ष्मी गाती है, तुलसी-वृंदावन गाता है, मीरा गाती है, कोयल गाती है, पपीहा गाता है, तोता-मैना गाते हैं, गौरैया गाती है, हवा गाती है, आम्रकुंज गाते हैं, मोर नाचते-नाचते गाता है, बाँसवन गाते हैं, वसंत में जंगल गाते हैं, बादल गाते हैं, वर्षा ऋतु में नदियाँ गाती, आकाश में बादल गाते हैं, भौंरे गाते हैं, झींगुर गाते हैं, चरवाहा गाता है, हलवाहा गाता है, माटी का कण-कण गाता है। प्रकृति का कण-कण गाता है। इसे
सुनने के लिए दृष्टि की आवश्यकता नहीं, बल्कि सुमधुर बोली सुनने वाले कान की आवश्यकता है। वही कान,
जिसने बचपन में लोरियाँ सुनी हैं। चिड़ियों का गुंजन सुना
है। रहट की आवाजें सुनी हैं। पशुओं को चराते हुए किसी चरवाहे की बाँसुरी की मीठी
तान सुनी है। संध्याकाल में गोधूलि बेला पर घर लौटते पशुओं की आवाजें सुनी हैं।
कहीं गाय के रँभाने
की आवाज,
तो कहीं बकरी के मिमियाने की आवाज।
इस तरह की सारी
ध्वनियाँ हमारे अवचेतन में बचपन में ही समा जाती हैं। कालांतर में जीवन की आपाधापी
में यह संगीत कहीं खो जाता है। इसे पुन: सुनने का प्रयास भी हम नहीं करते हैं। इस
बीच जीवन विषम से विषमतम होता जाता है। हम परिवार के चक्रव्यूह में फँस जाते हैं। हम अपने अतीत का स्मरण नहीं रहता। इस तरह से
वर्तमान में जीते हुए हम अपना भविष्य भी बरबाद कर लेते हैं। पर प्रकृति से जुड़ने
का एक छोटा-सा भी प्रयास नहीं करते। हम दु:खी हैं, इसका कारण भी यही है। हममें जीने की चाहत ही खत्म हो गई है।
सही अर्थों में कहा जाए, तो हम जीना ही नहीं चाहते। आज मानव दु:खी ही इसलिए है कि
उसने स्वयं को अपनी जिम्मेदारियों के घेरे में कैद कर लिया है। वह रोज खुद को
मारता है। किसी की हँसी भी उसे बर्दाश्त नहीं होती।
प्रकृति से जुड़ने
के लिए कहीं जाने की भी आवश्यकता नहीं है। बस प्रतिदिन अलसभोर बिस्तर छोड़कर कुछ
देर के लिए घर से बाहर निकलें। तब देखो, कैसी होती है सुबह? सुबह के दृश्य मन को लुभाएँगे। हम प्रफुल्लित होंगे। लौटने
पर ढेर सारी ऊर्जा लेकर घर पहुँचेंगे। उसके बाद जो भी काम करेंगे,
उसमें मन लगेगा। वह काम भी फुर्ती से होगा। आलस का कहीं
नामोनिशान भी नहीं होगा। दिन भर काम करेंगे, तो भी थकान नहीं होगी। रात में अच्छी नींद भी आएगी। वही
नींद,
जो बरसों पहले आया करती थी। जिसके आगोश में आकर हम अपनी
सुध-बुध खो बैठते थे। वहीं नींद हमें कब जकड़ लेगी, हमें पता ही नहीं चलेगा। इसी नींद के लिए आप तरस रहे थे,
न जाने कितने बरसों से। मेरा तो यही कहना है कि अपने दु:खों
से ऊपर उठना है, तो
एक बार...केवल एक बार प्रकृति से नाता जोड़ लें, फिर किसी से भी नाता जोड़ने की आवश्यकता ही नहीं होगी। तो
बताएँ आप कब नाता जोड़ रहे हैं प्रकृति से...?
2 comments:
प्रकृति का सजीव चित्रण करता प्रेरणादायी आलेख।
निःसन्देह जीवन की आपाधापी में हम प्रकृति का संगीत सुनना भूल जाते है।प्रकृति के संगीत में ही जीवन का आनन्द है,उसे सुनने हेतु अंतः प्रकृति को निर्मल करना होगा।सुंदर आलेख।
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