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Jun 5, 2021

डायरी- दुनिया को प्यार ही बचा सकता है

-डॉ. सुषमा गुप्ता

11 मई, 2021

एंड ..द सेकंड इनिंग

यह कितनी अजीब बात है कि अपने ठीक होने की खबर देना भी एक अजीब से शर्मिंदगी के भाव से भर रहा है। खराब होते होते तबियत तीसरे दिन ऐसी खराब हुई थी कि एक पल तो लगा, सब छूट जाएगा। कितने दोस्त, कितने कांटेक्ट सब फेल हो गए, कितने घंटे हॉस्पिटल नहीं मिला। मिला, तब भी बहुत सारी कॉम्प्लिकेशंस हुई। बहुत सारी तकलीफ़ों से गुज़रते -गुज़रते कितनी अजीब-सी बातें मन और दिमाग में चलती रही, यह सिर्फ मैं जानती हूँ। कितने लोग जो कुछ नहीं थे, उन्होंने बहुत प्यार भेजा, कोई जो खास थे,  उन्होंने हाल पता होते हुए भी जीने -मरने की सुध तक न ली। यही रिश्तों का गणित है, जो वक्त पड़ने पर निल बटा सन्नाटा में बदलने में पल नहीं लेता। अजीब- सा जीवन, अजीब से आसपास लोग!  इतना अविश्वास, डर, सदमा सब कुछ इस तरह से हावी होने लगा। ज़िंदा होते हुए भी, ज़िंदा होने का एहसास नहीं हो रहा था। बिटिया भी कोविड पॉजिटिव थी और अतुल (पति) तो मुझसे पहले से ही। उनकी खुद की हाल बहुत खराब थी, पर जिस तरीके से मेरी किडनी में इंफेक्शन फैलने के बाद तबियत बिगड़ी, वह अपनी तो सुध- बुध ही भूल गए और रात दिन हॉस्पिटल चक्कर काट, मुझे ही सँभालते रहे। इधर हम दोनों बेटी पर ध्यान देने लायक बिल्कुल नहीं थे,  तो प्रियम खुद की ज़रा भी परवाह न कर बहन को सँभालता रहा।

कैसा तो मुश्किल समय रहा और अभी भी सब तरफ़ यही सब हो रहा...

शुरुआत के 10 दिन में कौन-कौन परिवार से, अपनों से , पास पड़ोस से, दोस्तों से, चला गया सब मुझसे छुपाया गया। जैसे-जैसे तबियत थोड़ी सँभली, एक- एक करके इतने सब लोगों के जाने का पता चला कि मन जैसे खुद के ज़िंदा होने पर क्षुब्ध होने लगा। इतना काँपा कि बार-बार अपनों ने समझाया, बच्चे छोटे हैं, उन्हें तुम्हारी जरूरत थी ! शुक्र है ईश्वर का, तुम हो और ठीक हो। ईश्वर का शुक्र है, सच में बार-बार शुक्र है; पर ईश्वर कितना ...कितना नरसंहार और कब तक! क्यों इतनी त्राहि-त्राहि !

यह रूक जानी चाहिए, हर कोई दुःख में है, हर कोई तड़प रहा है, सब सहमे हुए हैं, सदमे में है फिर भी कुछ भी कहीं भी रुक नहीं रहा।

 एक दोस्त ने कहा जिसकी जितनी साँसें हैं उतनी साँसें तो लेकर ही जाएगा इसलिए  ज़्यादा मत सोचो। ज़्यादा सोचने से हासिल होगा भी कुछ नहीं। यह सोचो जब तक हो, तब तक आसपास के लोगों का कुछ अच्छा कर सको। वह बीस साल से दोस्त हैं, यूँ तो महीनों से बात नहीं होती; पर अगर हिम्मत टूटने लगती है और पुकार बैठूँ तो साथ देने हमेशा आता है, वह भी बिना कोई अहसान जताए। कोई ऐसा भी रहा जिसने फोन और ऐसे -ऐसे मैसेज भेजे,  इतनी मुस्कान दी कि मैं बार-बार पीड़ा भूल जाती, जबकि वह खुद भी बीमार था। कुछ बेहद प्यारी दोस्त ऐसे साथ बनी रहीं कि मैं उस अनमोल दुआओं जैसे प्रेम पर अचंभित हुई कि दुनिया में अभी भी  ऐसा निश्छल प्रेम बाकी है!

 नाम तो बहुत से हैं और बेहिसाब हैं, पर यहाँ इसलिए नहीं लिख रही कि गलती से भी मुझसे किसी का नाम छूट गया, तो उसके दिल को ठेस पहुँच सकती हैं,  इसलिए सबको ही बहुत मन से धन्यवाद कहना चाहती हूँ जिन्होंने इतना प्रेम इतनी दुआएँ दी।

 दुनिया में जब जब भी ऐसी विपदाएँ आई हैं, इंसान के साथ ने हीं इंसान की जान बचाई है, दुनिया को बचाया है, इंसानियत को बचाया है। जहाँ बहुत से लोग अब भी लाशों पर रोटियाँ सेंकने से नहीं रुक रहे, वहाँ ऐसे अनगिनत चेहरे भी हैं, जो रात दिन लोगों की मदद में लगे हैं। अतुल को भी देख रही हूँ कि तबियत खराब में भी वह जहाँ तक हो सकता है , जितना हो सकता है लोगों के लिए कुछ ना कुछ अरेंज कर ही रहे हैं।

आप सब भी अपने हिस्से के कर्म ही नहीं, उससे दो कदम बाहर जाकर, अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर जाकर भी जितना हो सके औरों के लिए करना, करते रहना ।

 यह दौर भी बीतेगा ।

 इसे बीतना ही होगा।

13 मई, 2021

कम्फर्ट ज़ोन

कभी आपने यह बात नोटिस की है, हमारे आसपास अधिकतर लोग अपने कम्फर्ट ज़ोन के अनुसार ही रिश्ते या कर्तव्य निभाते हैं। उससे ज़रा- सा बाहर आते ही या तो उनकी उपस्थिति, अनुपस्थिति में बदल जाती है या लहज़े बदल जाते हैं। इतनी दुनिया देख लेने के बावजूद अब भी, कभी हैरानी होती है कभी सदमा भी लग जाता है, पर ज़िंदगी का सच यही है।

कंफर्ट ज़ोन.. आज तक मेरी समझ नहीं आया कि नेगेटिव वर्ड है या पॉजिटिव!

आज यह बात इसलिए कही कि जब मैं हॉस्पिटल में थी, तो एक बात बहुत शिद्दत से महसूस की, कि जहाँ बहुत सारे हेल्थ वर्कर्स और डॉक्टर्स बहुत रुखा बर्ताव कर रहे हैं, वहाँ बेशुमार ऐसे भी हैं, जो अपने प्रेम -भरे शब्दों से बहुत हौंसला दे रहे हैं। मेरे पास दिन के समय जो नर्स होती थी , वह बहुत प्यारी थी। अपनी निज़ी ज़िंदगी में बहुत सारी परेशानियों का सामना कर रही थी उसके बावजूद मुस्कान लिये सबका ख्याल रखती। कल नर्स डे पर उसकी परेशानियाँ लिखने लगी, जो मुझे उसने बाद के दिनों में एक दिन बहुत तकलीफ से गुज़रते हुए रोते हुए बताई थी, पर जाने क्यों नहीं लिख पाई, पर लिखूँगी जल्द ही।

आज तो मैं बात कर रही हूँ, अपने डॉक्टर शैलेंद्र की। शैलेंद्र पराशर। उम्र कोई चालीस के आसपास होगी उनकी। मेरे साथ बार-बार बहुत सारे कॉम्प्लिकेशंस आ रहे थे पर उनका धैर्य मेरे साथ देखने लायक था। मेरी वेन्स  इतनी पतली है कि एक एक्सपर्ट से एक्सपर्ट  इंसान को भी वेन्स ढूँढने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी और बहुत जल्दी-जल्दी स्वेलिंग आ रही है, इसलिए कैनुला भी  बदलना पड़ रहा था। जब चौथी बार कैनुला बदलने की नौबत आई तब नर्स से यह काम नहीं हो पाया तो डॉक्टर खुद न्यू बोर्न बेबी के समय यूज़ होने वाली टार्च लेकर बैठ गए मेरी वेन्स  ढूँढने के लिए। मेरा हाथ, हाथ में लेकर बहुत हौंसला देते रहे, उनकी आँखों में विश्वास और कम्पेशन ऐसा था कि कोई भी जीने की तरफ फिर से मुड़ जाए। मेरा लीवर बाय बर्थ वीक है मुझे माइल्ड से माइल्ड एंटीबायोटिक देते हुए भी सोचना पड़ता है ; क्योंकि मेरा बॉडी सिस्टम एक्सेप्ट ही नहीं करता। ऐसे में उन्होंने बहुत थोड़ी-थोड़ी डोज़ में मुझे दवाई धीरे-धीरे चढ़ाई ताकि मेरा इंटरनल सिस्टम उसे सह सके। उन्होंने खुद यह बात कही कि आप बीमार न पड़ा कीजिए, आप वन ऑफ द रेयरेस्ट केस हैं, जिनको बीमारी से ज़्यादा दवाइयों से नुकसान पहुँच सकता है, अगर वह स्टैंडर्ड प्रोसीजर के हिसाब से दे दी जाएँ तो। दिक्कत यह है कि मुझे मैक्सिमम दवाइयों से बहुत स्ट्रांग एलर्जी है।

 मुझे नहीं पता कि दवाइयों ने कितना काम किया शरीर में पर उनके बेहद अच्छे व्यवहार ने यक़ीनन बहुत-बहुत असर किया। मैंने कल उनके लिए कुछ भेजा जो अतुल ने बहुत आग्रह करके उनको दिया, क्योंकि वह ले ही नहीं रहे थे, कन्विंस किया  कि मैंने बहुत मन से भेजा है।

 यह बहुत बड़ी बात होती है जब कोई अपने कंफर्ट जोन से बाहर जाकर आपके लिए कुछ करता है। मैंने गिफ्ट भेजा; क्योंकि मेरे पास और कोई ज़रिया नहीं था कि मैं उनको बता सकूँ कि यह कितना मायने रखता है कि वह ऐसे हैं। आपके आस- पास भी जो ऐसे डॉक्टर हों, नर्सेस हों, उनको ज़रूर महसूस कराइएगा कि वह स्पेशल हैं, बहुत स्पेशल हैं। चाहे जैसे भी महसूस कराइए पर कराइए ज़रूर।

मैं बार-बार कहती हूँ। लोगों की तब भी मदद कीजिए, जब करना आपके लिए मुश्किल हो, यानी अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर जाकर लोगों की मदद कीजिए ।

यही इंसान होने की सच्ची पहचान है। प्रोफेशनल तो सब हैं ही।

17 मई, 2021

ईश्वर को अपनी पोथी फिर से बाँचनी चाहिए

मैं इन दिनों की बेबसी पर रोना चाहती हूँ;  पर मुझे रोना नहीं आता। कम से कम उन बातों पर तो बिल्कुल नहीं, जिन बातों पर रोना चाहिए। भीतर-भीतर किसी मरे हुए अवसरवादी गिद्ध का मातम है। यह सीधे तौर पर दुःख को न स्वीकार कर सर्दी की ठिठुरती रात में और कुछ इंतज़ाम न हो सका, तो चिता की आग से खुद को सेंकने जैसा मातम है। निस्संग होना, अपने में बंद हो जाना और दूसरों के दुःख के प्रति उदासीन हो जाना ,जिस दिन हम इसे उपलब्धि मान लेते हैं , तब हम इंसान की जीवित देह में मृत आत्मा लिये फिरते हैं।

हमें अपने न होनेमें ऐसे होने का क्या हक है !

 पर हम हैं, अपनी पूरी बेशर्मी के साथ उपस्थित, हर उस समय जब हमें अनुपस्थित होना था और हमेशा वहाँ अनुपस्थित, जहाँ हमारी उपस्थिति अनिवार्य थी। 

 धिक्कार है ऐसे गिद्ध प्रेम पर, जो भीतर भीतर पल रहा है। पर यह भीतर क्यों है !

 यह वह प्रश्न है, जिसमें हज़ारों सुया हैं, रात दिन बेधती हुई; पर ज़वाब कहीं से नहीं रिसता।

इन दिनों प्रेम में होना और मातम में होना एक ही बात हो गई है और यह बात ... बिल्कुल सही नहीं।

प्रेम में पीड़ा स्वीकार्य है, मातम नहीं। ईश्वर को अपनी पोथी फिर से बाँचनी चाहिए।

21मई 2021

सब कुछ नर है और सब कुछ स्वर्ग यानी कि सब कुछ यहीं है

 आपके आसपास लोग प्रेम प्यार देते हैं, स्नेह देते हैं सकारात्मक बातें करते हैं, तो आप एक स्वर्ग में हैं। आपके आसपास हर समय क्रिटिसिज्म रहता है, नीचा दिखाने की होड़ रहती है, एक दूसरे की भर्त्सना रहती है ,तो यक़ीनन आप एक नरक में हैं।

 मरने के बाद का स्वर्ग नर किसने देखा है! जो है, यहीं है।

सार्त्र का कोट है

हैल इज़ अदर पीपल

यह याद आता है फिर मुझे कि

अपनी देसी भाषा में इन्हें चार लोगभी कहते हैं

जैसे अभी पोस्ट कोविड बहुत लोग बड़े प्यार से कहते हैं अपना ध्यान रखो, बुरा समय निकल गया

 तो कुछ लोग इसी पंक्ति को ऐसे कहते हैं अरे शुक्र समझो, बच गई, कितने लोग तो लाख कोशिशों के बावजूद हॉस्पिटल से ज़िंदा वापस ना आ सके। तुम तो बहुत खुश किस्मत हो भई, हर किसी की किस्मत इतनी अच्छी नहीं।

 अब यह चाहे कितने भी अच्छे मन से बोला गया हो, लाइन वाकई अटपटी है

 आपको बिल्कुल समझ नहीं आता कि ऐसे में क्या रियेक्ट करो; क्योंकि सच्चाई तो यही है इस खुशकिस्मती में एक अजीब किस्म की शर्मिंदगी का भाव भी है। इतने अपनों  को जाते देख, इतना मौत का तांडव आसपास देखने के बाद, खुद को बस आप  सुन्न पाते हो। दिल बैठा जाता है और दिमाग नम्ब ।

 तो ऐसी पंक्तियाँ हिट करती हैं ज़ेहन को, फिर लगता है छोड़ो भी इस वक्त अपने हाथ में ज़्यादा कुछ है नहीं, तो किताबें पढ़ो और चादर तानक सो जाओ , उठो,  बच्चों के लिए अच्छा- सा खाना बनाओ, खिलाओ, खुद से जितना खाया जाए खाओ और फिर से किताबों में घुस जाओ। जिसकी मदद कर सकते हो, कर दो ,जो हाथ के बाहर हो उसके लिए दुआएँ दो, पर बोलो सँभल कर कि किसी का दिल इतना- सा भी ना दुखे।

बाकी दुनिया तो फिर दुनिया है और फिर अब बच गए हैं ,तो ठीक से ही जी लो। दुनिया को प्यार ही बचा सकता है। जितना बाँटो, उतना कम है।

25 मई, 2021

मन के डगमगाते डूबते जहाज के लिए

इस कठिन समय में मन को बाँधकर जबरदस्ती किताबों की तरफ मोड़ना भी एक बहुत बड़ा चैलेंज रहा। तबियत काफी महीनों से खराब रहने की वजह से लिखना पढ़ना पहले ही लगभग छूटा हुआ था; पर इस बार जब हॉस्पिटल से आई तो कुछ दिन बाद ही मैंने फोन में ऑडिबल ऐप डाल लिया और विष्णु प्रभाकर की आवारा मसीहासुनने लगी। 

इस त्रासदी भरे समय में इतना कुछ भयानक देख सुन रही थी और महसूस करके आई थी कि हर हाल में अपने दिमाग को खाली रहने से रोकना था। शरीर में बैठने की हिम्मत नहीं थी और आँखों में किताब पढ़ने की। ऐसे में यह बहुत ही कारगर तरीका रहा। आवारा मसीहा शरत चंद्र की जीवनी है। तकरीबन 22 घंटे की किताब है ऑडिबल पर। रोज़ लेटे-लेटे तीन चार घंटे तो सुन ही लेती थी। सुनते सुनते शरत चंद्र के जीवन के बारे में बहुत कुछ जाना, उनकी लेखन प्रक्रिया के बारे में बहुत कुछ समझा। एक आत्मचिंतन, आत्ममंथन अंदर-अंदर चलता रहा और सुनते-सुनते अपने आप ही दोबारा किताबें पढ़ने का मोह जाग गया। ज़रूरी नहीं कि यह ट्रिक सबके साथ काम करें पर ट्राई कीजिए। पढ़ने का मन न, हो तो समय का सदुपयोग किताबें सुनने से कीजिए। शायद खोया हुआ रिद्म वापस आ जाए। 

आवारा मसीहा सुनने के बाद कुछ चीज़े  ऑनलाइन ढूँढकर पढ़ी, पर जैसी बेसिक फितरत है -किताबों को हाथ में लेकर पढ़ने का जो सुकून है, वह आईपैड या लैपटॉप पर पढ़ने से नहीं आता ,तो एक बार फिर किताबों की तरफ़ मुड़ गई।

शुरुआत मानव कौल की अंतिमा से की। मानव कौल का लेखन मुझे प्रिय है। उनका ज़्यादातर लेखन डायरी शैली में होता है। अंदर-अंदर एक इंसान लगातार खुद से बात करता रहता है ,वहीं से कहानियाँ उपजती हैं और फैलती चली जाती हैं, शायद इसलिए मुझे उनका लेखन  पसंद आता है। अंतिमा एक सुंदर शुरुआत रही पढ़ने के लिए।

 इसके बाद उठाया चंदन पांडे का वैधानिक गल्प। यह मेरे पास पहले से आया रखा था; पर जाने कैसे भूल गई , तो अब पढ़ा गया। इसे मैंने कुछ घंटों में ही खत्म कर लिया। कुछ सालों पहले उत्तराखंड में एक पुलिस ऑफिसर गगनदीप सिंह ने एक लड़के को भीड़ से बचाया था ,अपनी जान की परवाह न करते हुए। यह उपन्यास उसी घटना के आसपास बुना गया है। सिस्टम किस कदर क्रूर और भ्रष्ट हैं!

 यह तो हम हमेशा से जानते ही हैं;  पर जब इस तरह की परतें खोलता हुआ कुछ पढ़ते हैं, तो हर बार मन कसमसाकर रह जाता है, टीस से भर जाता है कि कब बदलेगा यह सब। 

 तीसरी किताब उठाई हर्मन हेस की सिद्धार्थ यह मैंने कुछ महीनों पहले पापा को मँगाकर दी थी। उन्होंने पढ़कर वापस भी कर दी, पर मैं पढ़ना भूल गई। शायद यह इन्हीं दिनों में पढ़ी जानी थी, जब जीवन और मृत्यु के बीच में से निकलकर मन का हाल खुद भी थोड़ा लड़खड़ाया- सा हैं। यह गौतम बुद्ध की कहानी नहीं है यह एक ऐसे लड़के सिद्धार्थ की कहानी है, जो जीवन का अर्थ ढूँढता है। कठोर संन्यास से सामाजिक जीवन की तरफ मुड़ता है और सामाजिक जीवन से एक बार फिर से खुद के होने का अर्थ खोजता हुआ, अंततः सृष्टि के कण-कण से खुद के प्रश्नों का उत्तर पा जाता है। जिनका उत्तर बड़े-बड़े संन्यासियों से, उपदेश देने वालों से, समाज के कामयाब लोगों से, कहीं से न पा सका था। आखिरी के पन्नों में खुद से मिलने का, अध्यात्म का, ईश्वर का, अपने अंतस में पल रही अच्छाइयों और बुराइयों को स्वीकारने का भाव, जिस दृष्टि के साथ लेखक ने हमारे समक्ष रखा है , वह भीतर तक चेतना को झकझोरता है। आप एक ट्रांस में चले जाते हैं, चुप बैठे बहुत देर आत्मचिंतन की अवस्था में। चाहे तो आप इस किताब से बहुत कुछ ले सकते हैं।

पढ़ना छूट गया है, तो मन को कैसे भी बाँधकर फिर से शुरू कीजिए। इस भयानक समय में इससे सुकून- भरी शरणस्थली नहीं मिलेगी। नियम बनाइए कि दिन में 50 पन्ने तो पढ़ने ही है या एक दो घंटे या जो भी, पर एक नियम बनाइए और कैसे भी करके उसे फॉलो कीजिए। 

एक के बाद एक इतने अपने जा चुके हैं, जा रहे हैं कि मैंने मन को शतुरमुर्ग बना लिया है,  किताबों को धरती और उसके अंदर मुँह घुसा दिया। इस बात की शर्मिंदगी होनी चाहिए, पर अपनों के लिए जीना इतना ज़रूरी है कि मौत से पहले ही मर न जाएँ इसके लिए कोई तो ज़रिया बनाना ज़रूरी है।

मन मानता नहीं है, मन को मनाना पड़ता है।

यह बेहद मुश्किल समय है। जो शरीर से बच रहे हैं , वे मानसिक रूप से टूट रहे हैं। मन के डगमगाते डूबते जहाज के लिए किताबें एक सुंदर एंकर हैं।

लेखक के बारे में - जन्म- 21 जुलाई 1976, दिल्ली, शिक्षा- एम कॉम (दिल्ली यूनिवर्सिटी), एम बी ए (आई एम टी गाजियाबाद), एल-एल बी, पी-एच. डी., कार्य-अनुभव- कानून एवं मानव संस्थान की व्याख्याता- 2007-2014 (आई एम टी गाजियाबाद), सम्मान- हिन्दी सागर सम्मान-2017, प्रकाशन- समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में कुछ रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। प्रकाश्य- साझा संग्रह (जे एम डी प्रकाशन) नारी काव्य सागर, भारत के श्रेष्ठ युवा रचनाकार,हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में कहानी को प्रथम पुरस्कार, Email- suumi@rediffmail.com

7 comments:

Anita Manda said...

मन को शब्द देना कितना मुश्किल है, आपने इसे साध लिया है।

Sudershan Ratnakar said...

डायरी विधा में अपनी भावनाओं को व्यक्त करना जितना सरल लगता है उतना है नहीं। सुषमा गुप्ता की सशक्त लेखनी की परिचायक है यह डायरी। बधाई।

यामिनी 'नयन' गुप्ता said...

ममस्पर्शी भाव 🌹

यामिनी 'नयन' गुप्ता said...

ममस्पर्शी भाव 🌹

Sushila Sheel Rana said...

शब्द-शब्द मन को बाँधता चला जाता है।
अब कभी बीमार मत पड़ना बस।

मुए कोरोना की तीसरी लहर कभी न आए

Sushila Sheel Rana said...

शब्द-शब्द मन को बाँधता चला जाता है।
अब कभी बीमार मत पड़ना बस।

मुए कोरोना की तीसरी लहर कभी न आए!

सुशीला शील राणा

शिवजी श्रीवास्तव said...

अपनी अनुभूतियों और मन के भावों को शब्द देना सहज नही है,डॉ. सुषमा गुप्ता जी ने बहुत प्रभावी ढंग से कोरोना काल के अनुभवों को डायरी में अभिव्यक्ति दी है,जीवन की निरर्थकता के उपदेश,रिश्तों का कम्फर्ट ज़ोन में होना..इन सब का अहसास इस काल मे हुआ है।मैं भी कोरोना से पीड़ित होकर इन स्थितियों से गुजरा हूँ।सुषमा जी को सुंदर ढंग से डायरी लिखने हेतु बधाई।