पिता की मौत हुए
चार दिन हो चुके थे। वह घुटनों पर चेहरा नीचे किए बैठा था। तभी छोटा भाई कान में
बुदबुदाया, ‘पिता
के दफ़तर से एकाउंटेन्ट आए हैं।’
उसने सर उठाकर,
सामने बिछे जूट के बोरे पर गमगीन मुद्रा बनाए आलथी- पालथी
मारकर बैठे व्यक्ति की ओर देखा। पाँचेक मिनट बाद वह बोरे सहित उसकी ओर खिसका,
‘मौत के तीसरे दिन बाद मिलने
वाला एक्सग्रेशिया पेमेन्ट ले आया हूँ...
सरकार की जी. सी. पर यही बड़ी मेहरबानी है... लो, ए. आर. पर दस्तखत कर दो....।’
उसने दस्तखत कर दिए।
उन्होंने नोट की
गड्डियाँ उसकी ओर खिसका दीं।
‘गिन
लो !.. तुमसे क्या बताएँ पटेल बाबू बड़े अच्छे आदमी थे। सज्जन इतने कि बेजा लफ्ज़़
कभी जबान पर नहीं लाए....किफायत- पसंद बहुत थे, कहते थे, एक पैसा भी इधर–उधर खर्च करना संतान का पेट काटना है।’
उसकी निगाहें उनकी
ओर उठ गई।
‘हाँ...हाँ.....
ऐसा ही सुझाव था उनका, शायद तुम्हें नहीं मालूम वो पीने के शौकीन थे,
पर पीना नहीं चाहते थे; इसलिए कि.....’
‘यह
आप गलत बोल रहे हैं, उन्होंने ताजिन्दगी....’
‘तुम
बच्चे हो,
क्या जानो वो इसलिए नहीं पीते थे कि पैसा खर्च होगा।’
उसने पिता की याद में आँसू पोंछ लिये।
‘अच्छा,
मैं चलता हूँ....’
‘जी,
अच्छा....’
‘सुनो
! ऐसा करो, इसमें
से सौ- दो सौ रुपये दे दो.... हम एक दो लोग कहीं बैंठ लेंगे .... इससे उनकी आत्मा
को शान्ति मिलेगी...’
‘आप
लोगों के शराब पीने से उनकी आत्मा को शान्ति मिलेगी....’
हाँ,
तनखा के अलावा जो भी पेमेन्ट मिलता था,
उसमें से वे जरूर कुछ न कुछ देते थे,
और कहते थे- इसकी दारू पी लेना.... अपने पैसे से हमको पीते
देख वे खुश होते थे.....’
उसने उनकी ओर घृणा
की दृष्टि से देखा तथा नोट उनके सामने रख दिए, 'ले लीजिए।’
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