- डॉ. रत्ना वर्मा की छह कविताएँ
यूँ
ही बैठे बैठे
1. आज
की सुबह
रोज़ सुबह
बगीचे में खिले
रंग बिरंगे फूलों
को देख
मन भी खिल उठता था
पर आज
फूल भी कुछ उदास थे
रंग भी उनका कुछ
मुरझाया-सा था ।
तितली और भौंरे भी
पास आने से कतरा
रहे थे ।
हवा मद्धम मद्धम
बह तो रही है
पर जैसे
उनकी गति पर भी
कर्फ्यू का पहरा
लगा हो ।
क्या उन्हें भी
अहसास हो गया है
इस सन्नाटे का राज़
।
और
थोड़ी दूरी बनाते
हुए
आ गए हैं
हमारा साथ देने
लॉक डाउन
का पालन करने।
हवाओं से कह दो
तुम भी
बहो ज़रा सम्भल के,
इन्सान की बदनीयती ने
घोल दिया है ज़हर ।
तुम तो हर कण में
बसे हो
भला हमें छूऐ बगैर
कैसे बहोगे ।
मेरा बस चले तो
तुम्हें भी बंद कर
लूँ
अपने घर के एक कमरे
में,
21
दिन बाद
खोल दूँगी खिड़की
दरवाज़े,
फिर बहना पंख फैलाकर
बेख़ौफ़
जहाँ- तहाँ, यहाँ -वहाँ।
३. खाली
खाली दिन
सुबह की चाय हो गई
नाश्ता भी कर लिया
खाना भी बन गया
टीवी पर कोरोना
की खबरें भी सुन ली
फिर टीवी पर
रामायण देखकर
पुराने दिनों की
याद भी
ताज़ा कर ली
घर की साफ़- सफ़ाई भी हो ही गई
पर समय है कि कटता
ही नहीं
चलो थोड़ी देर ताश
खेल लें
पर वह भी कब तक
अरे भई आओ खाना खा
लेते हैं
फिर आराम कर लेंगे
तब तो शाम हो ही
जाएगी
उफ़
अब बताओ
बाकी शाम कैसे
काटेंगे
चाय पीते हुए
एक घंटा तो बीत गया
अब
न सैर कर सकते
न पड़ोसी से
गॉसिप कर सकते
फिर
बची हुई रात तक
क्या करें
अरे छोड़ो भी
ये क्या राग लेकर
बैठ गए
जिंदगी में अभी तो
कुछ करने का मौका
आया है
युद्ध ही तो है ये
तो
अपने लिए
अपनों के लिए
देश के लिए
कुछ दिन घर पर
नहीं गुजार सकते ।
४.
ये पता ना था
ये तो पता था कि
मौत तो इक दिन आनी
है
जो उम्र लिखा है ओ
जीना है
पर ये ना पता था
कि
यूँ चुपके से आ
जाएगी
बिना किसी से कुछ
कहे सुने
चुपके से ले जाएगी
अपनों से गले मिलने
का
मौका दिए बगैर,
उन्हें बिना देखे
बिना सुने
अलविदा कैसे कह दें
ये कैसी लड़ाई है
अपने आप से
जीने मरने का,
हिसाब करने का
वक्त तो दो ।
ऐसे कैसे आ सकती हो
बगैर दस्तक दिए
यूँ ही चुपचाप।
इन दिनों
मेरे आँगन
की चिरैया भी
चहकने से डरने लगी ।
वह आदी नहीं है
इस सन्नाटे की,
दाना डालो तो
इधर उधर तकती हुई
चौकन्नी होकर,
एक दाना चुगती है
और फुर्र से उड़
जाती है ।
दूर किसी पेड़ की
डाल पर बैठी
टटोलती है
हम इंसानों की
हरकतों को,
जैसे पूछ रही हो
क्यों छिपा लिया है
चेहरा तुमने
क्या किया है कोई
अपराध?
या है पकड़े जाने
का डर ।
यदि जीना है
बेख़ौफ़
तो आ जाओ हमारी
दुनिया में,
और उड़ जाओ
जहाँ भी मन चाहे
ना कोई रोकेगा ना
कोई टोकेगा।
६. कोटि -कोटि प्रणाम
सड़कें खाली बाजर
बंद है
सब अपने अपने घर
में कैद हैं
अचानक घट गया है
प्रदूषण
शुद्ध हो गई आबो- हवा
समुन्दर का खारा
पानी भी है शांत
आसमान भी है अब
नीला नीला
पंख फैलाए बेख़ौफ़
उड़ रहे सारे पंछी
ना गाड़ियों का धुँआँ कहीं है
न कारखानों की
कालिमा
लोग धो रहे बार बार
हाथ
घर को कर रहे हैं
खुद ही साफ
कचरा उठाने वालों
को कर रहे सलाम
उनके बिना न चले
किसी का काम
मंदिर के बंद हुए
कपाट
अब डॉ. बने हैं
पालनहार
हर पहर रक्षा के
लिए
जो द्वार खड़े ये
वर्दीधारी
खूब बजाओ ताली,
दिए जलाओ लाख
फिर भी नहीं चुका
सकते हम
जीवनभर इनका उपकार
करते बारम्बार हम
सबको
कोटि कोटि प्रणाम।
3 comments:
भोगना फिर भले ही वह सुख हो दुख हम सबकी नियति है. पर भोगे गए यथार्थ को कागज पर उकेर पाने की कला का सामर्थ्य हर एक के बस की बात नही. केवल विरलों को प्राप्त होता है यह ईश्वरीय आशीर्वाद.
और आ. रत्नाजी की इन कविताओं में स्पष्ट झलकता है एक संवेदनशील हृदय और उसकी सृजनात्मकता.
सो हार्दिक बधाई 🙏🏽
शुक्रिया जोशी जी 🙏
आपकी सारी कविताएं संवेदनशील है यह अपने आसपास की प्रकृति और जीवन से गहराई से जुड़ी हुई है। हवा, पानी, फूल ,पत्ती ,पक्षी हम सब इस अचानक बदलाव से सहमे से है उसकी पीड़ा तो होनी ही है अभिव्यक्ति सुंदर है चित्रों की तरह दिखाई देता है।
Post a Comment