कबूतर
-शबनम शर्मा
‘धांय’ की आवाज़,
मौत का खौफ़,
तूफान की तरह
सैंकड़ों कबूतर
उस सामने वाली इमारत
की आखिरी मंजिल
से उड़े,
कि आज वो बूढ़ा कबूतर
टस से मस न हुआ,
मैंने उसे इशारा कर
बुलाया, वो सधी हुई
उड़ान में उड़कर
मेरे पास आया।
मैंने पूछा,
‘‘तुम्हें डर नहीं लगा?’’
बोला, ‘‘जानती
हो तुम,
बरसों पहले घना जंगल
था यहाँ,
पेड़ों पर थे हमारे आशियाने,
दिन गुटर-गूँ में,
तो रात एक दूसरे से
सटकर सोने में निकल
जाती थी,
सुबह होते ही
देखने जाते थे पास वाले
घर में निकले अंडों से
कबूतरी के बच्चे,
लिवाते थे
दाना,
मनाते थे जश्न,
कट गये पेड़,
बन गई अटारियाँ,
रहने लगे लोग
चिपकाकर अपने नाम
की पट्टियाँ।
देखता हूँ मैं,
रोता हूँ में,
क्योंकि इन सब कबूतरों
की उड़ान शाम को
यहीं खत्म होती है
ले जाता हूँ किसी
खाली घर की बालकनी में
सुनाता हूँ लोरी व सुला देता हूँ,
पर कब तक......
हर रोज तान देते हैं
ये बंदूक हमारी तरफ
बिन सोचे कि इन्होंने
घर बनाए
हैं
हमारे घर छीन कर,
बदलते-बदलते आशियाँ
थक गया हूँ मैं।’’
दास्तान उसकी सुनकर
मेरा दिल, मेरी आँखें
रो पड़ीं,
पर जैसे ही मैंने उसे
सांत्वना देनी चाही,
झट से उड़ने को तैयार
पंख फैला उसने कहा
‘‘तुम भी तो हमारे
घर में रहती हो
कभी रोका उसे कि
बन्दूक से मत मारे हमें।’’
सम्पर्कः अनमोल कुंज, पुलिस चैकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला
सिरमौर, हि.प्र., मो. – ०९८१६८३८९०९,
०९६३८५६९२३, shabnamsharma2006@yahoo.co.in
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