गाँव अपना
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पहले इतना
था कभी न
गाँव अपना
अब पराया हो गया ।
खिलखिलाता
सिर उठाएा
वृद्ध जो, बरगद
कभी का सो गया ।
अब न गाता
कोई आल्हा
बैठकर चौपाल में
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में,
अदालतों की
फ़ाइलों में
बन्द हो ,
भाईचारा खो गया ।
दौंगड़ा
अब न किसी के
सूखते मन को भिगोता
और धागा
न यहाँ
बिखरे हुए मनके पिरोता
कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।
2. गुलमोहर की छाँव में
गर्म रेत पर चलकर आए,
छाले पड़ गए पाँव में
आओ पलभर पास में बैठो, गुलमोहर की छाँव में ।
नयनों की मादकता देखो,
गुलमोहर में छाई है
हरी पत्तियों की पलकों में
कलियाँ भी मुस्काईं हैं
बाहें फैला बुला रहे हैं ,हम सबको हर ठाँव में
चार बरस पहले जब इनको
रोप–रोप हरसाए थे
कभी दीमक से कभी शीत से,
कुछ पौधे मुरझाए थे
हर मौसम की मार झेल ये बने बाराती गाँव में ।
सिर पर बाँधे फूल -मुरैठा
सज–धजकर ये आए हैं
मौसम के गर्म थपेड़ों में
जी भर कर मुस्काए हैं
आओ हम इन सबसे पूछें -कैसे हँसे अभाव में
सम्पर्क- सी- 1702, जे एम अरोमा, सेक्टर -75, नोएडा, 201301 (उ. प्र.),
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3 comments:
बहुत सुंदर गुरु जी
दोनो कवितांऐंं बहुत सुंदर.... "गुलमोहर की छांव" यादों की सौगात लिए अतः विशेषकर प्रिय!!!!!
वाह,बहुत सुंदर नवगीत,'गाँव अपना'में गाँवो की सहजता खो जाने का दर्द है वहीं 'गुलमोहर की छाँव में'मधुर कोमल भावों की अभिव्यक्ति है।
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