पर्यावरण संरक्षण के खोखले
वादे कब तक ?
- सुनीता नारायण
हमारा संसदीय लोकतंत्र इंग्लैंड के
लोकतंत्र की नकल है जो किसी भी प्रकार से वास्तविक मुद्दों को राष्ट्रीय बनने से
रोकता है। मसलन, जर्मनी में न केवल ग्रीन पार्टी
की स्थापना होती है बल्कि वह गठबंधन के जरिए सत्ता में भी पहुँच जाती है। वहीं बगल
के ब्रिटेन में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। ब्रिटेन में पिछले चुनावों में ग्रीन
पार्टी को ठीक-ठाक वोट मिले थे। लेकिन आज भी ब्रिटेन में उसे कोई महत्त्व नहीं
मिलता है। ग्रीन पार्टी की जरूरत तो ब्रिटेन में महसूस की जाती है लेकिन वहाँ की
चुनाव-प्रणाली ऐसी है जो उसे सत्ता तक पहुँचने से रोकती है। जाहिर- सी बात है मुद्दे संसद तक सफर कर सकें, यह ब्रिटेन
की संसदीय-प्रणाली में अनिवार्य नहीं है।
लेकिन आप यहाँ यह भी ध्यान रखिए कि
यूरोप में अलग से ग्रीन पार्टी बनाना ही पर्यावरण की दिशा में उठा एकमात्र
राजनीतिक कदम नहीं है। वहाँ हर पार्टी के एजेंडे में पर्यावरण अहम मुद्दा रहा है।
बदलता मौसम, धुएँ की मात्रा से जुड़े वादे,
लो-कार्बन टेक्नालॉजी, पर्यावरण की रक्षा आदि
विषयों पर हरेक पार्टी को अपना रुख साफ करना होता है। उन्हें जनता को बताना होता
है कि यदि वे चुनाव जीत कर सत्ता में आईं तो वे कैसी पर्यावरण नीति का पालन
करेंगी। केवल वादा ही नहीं बल्कि सत्ता में आने के बाद वे उन वादों को निभाने की
भी कोशिश करती हैं। भले ही इसके लिए उन्हें कितने भी लोहे के चने चबाने पड़े।
ऑस्ट्रेलिया में भी पर्यावरण के नाम
पर चुनाव लड़े और जीते गए हैं। वहाँ लेबर पार्टी सत्ता में आई- यह कहते हुए कि
तत्कालीन सत्ताधारी दल पर्यावरण के मुद्दों को सूली पर टाँग रही है। लेकिन सत्ता
में आने के बाद लेबर पार्टी पहले की सरकार से भी बुरे तरीके से पर्यावरणीय मुद्दों
के साथ एक तरह से खिलवाड़ ही कर रही है। साफ है कि घोषणाएँ करने से पर्यावरण को
नहीं बचाया जा सकता।
फिर सवाल उठा है कि ऐसे कौन से काम
हैं जिनके कारण पर्यावरण संकट में है? अपने
यहाँ देखें तो सभी राजनीतिक दलों ने इस बार के चुनाव में पर्यावरण की बात तो की
है। भाजपा, कांग्रेस, सीपीआईएम सभी कह
रहे हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाएँगे।
भाजपा कह रही है कि बाघों को बचाने
के लिए वह टास्क फोर्स का गठन करेगी और यही टास्क फोर्स अन्य सभी प्रकार के वन्य
जीवन के संरक्षण की दिशा में भी काम करेगी। पानी और बिजली की बात सभी राजनीतिक दल
करते हैं; लेकिन इन बातों से अलग हम देख रहे हैं कि पर्यावरण कहीं मुद्दा नहीं है।
पर्यावरण अभी भी इस देश में मुद्दा
इसलिए नहीं है ; क्योंकि हमारा पर्यावरण के
प्रति जो दृष्टिकोण है, वह ही हमारा अपना नहीं है। जब हम
पर्यावरण की बात करते हैं ,तो हमें आर्थिक नीतियों के बारे
में सबसे पहले बात करनी होगी। हमें यह देखना होगा कि हम कैसी आर्थिक नीति पर काम
कर रहे हैं। अगर हमारी आर्थिक नीतियाँ ऐसी हैं ,जो पर्यावरण
को अंतत: क्षति पहुँचाती हैं , तो फिर बिना उन्हें बदले
पर्यावरण संरक्षण की बात का कोई खास मतलब नहीं रह जाता है। हमें ऐसी नीतियाँ चाहिए, जो लोगों को उनके संसाधनों पर हक देती हों।
जल, जंगल और जमीन पर जब तक वहीं रहने वाले लोगों का स्वामित्व नहीं होगा,
पर्यावरण संरक्षण के वादे केवल हवाई वादे ही होंगे। हमें ऐसी
पर्यावरण नीति को अपनाना होगा, जो प्राकृतिक संसाधनों को
बचाने के बजाय बढ़ाने वाली हो। हम जब पर्यावरण के बारे में सोचें तो केवल पर्यावरण
के बारे में न सोचें, बल्कि उन लोगों के बारे में भी सोचें
जो पर्यावरण स्रोतों पर निर्भर हैं।
लेकिन जो राजनीतिक पार्टियाँ
पर्यावरण संरक्षण की अच्छी-अच्छी बातें अपने घोषणापत्र में लिख रही हैं,
उनके एजेंडे में आर्थिक विकास की वर्तमान नीतियाँ और पर्यावरण
संरक्षण दोनों को बढ़ावा देने का प्रावधान है। यह विरोधाभासी है। अगर हम सचमुच
अपने देश के पर्यावरण को लेकर चिंतित हैं तो हमें स्थानीय जीवन-पद्धतियों को ही
नहीं स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देना होगा।
एक ऐसा राजनीतिक ढाँचा तैयार करना
होगा जो स्थानीय स्वशासन और प्रशासन को मान्यता प्रदान करता हो। हमें नदियों के
बारे में बहुत ही देसी तरीके से सोचना होगा। अगर हम वर्तमान औद्योगिक नीतियों को
ही बढ़ावा देते रहे तो हमारी नदियों को कोई नहीं बचा सकता,
फिर हम चाहे कितने भी वादे करें।
इस देश का
दुर्भाग्य ही है कि पर्यावरण के इतने संवेदनशील मसले को भी हम अपने तरीके से हल
नहीं करना चाहते। हम जिन तरीकों की बात कर रहे हैं, वे सब उधार के हैं। इसी का परिणाम है कि हम अति उत्साह में ग्रीन पार्टी
की बात करते-करते ग्रीन रिवोल्यूशन को भी बढ़ावा देने लगते हैं! (गांधी मार्ग से, साभार)
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