वर्षा जल की
साझेदारी
- अनुपम मिश्र
कुण्ड या टाँका
(गतांक से आगे)
परम्परागत जल संग्रह में तालाब आदि
के निर्माण में जो जगह आगोर की यानी जलागम क्षेत्र की होती है वही जगह समाज ने
मरुभूमि के शहरों और गाँवों में घर की छतों पर भी ढूँढ निकाली थी। वर्षा का पानी
जैसे भूमि पर गिरकर एक जगह एकत्र हो सकता है, तो
उसी तरह छोटी या बड़ी छत या आँगन में गिरने वाला पानी क्यों न एकत्र किया जाए।
वर्षा के ऐसे मीठे या पालर पानी का महत्त्व तब और बढ़ जाता है जब हमें पता चलता है
कि उन क्षेत्रों में भूजल बिल्कुल खारा हैं और वह पीने के लायक नहीं है।
प्राय: हर घर की छत एक हल्का-सा ढाल
लिए बनाई जाती है। वहाँ से एक नाली के जरिए पानी नीचे आता है। नाली में रेत के कण
और कचरे को छानने का प्रबन्ध रखा जाता है। उस क्षेत्र में गिरने वाली वर्षा के माप
या आँकड़े के अनुसार नीचे जमा करने का टाँका बनाया जाता है। मोटे तौर पर ऐसे टाँकों
की क्षमता 50 हजार लीटर से लेकर पाँच लाख
लीटर तक रहती है। पुराने समय में इन्हें घड़ों के नाप से देखा जाता और ऐसे घड़ों
का आकार एक निश्चित मानक से तय होता था।
राजस्थान ने अनेक शहरों में,
कस्बों में कोई 25-30 साल पहले से नगरपालिकाओं
ने नलों की व्यवस्था बना दी है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि समय के साथ-साथ पानी की
उपलब्धता में लगातार गिरावट आई है और जो नल कभी दिनभर चलते थे, अब बड़ी मुश्किल से उनमें एकाध घंटे पानी आ पाता है। ऐसे क्षेत्रों में
छतों और आँगनों से भरने वाले टाँकों की व्यवस्था आज भी बहुत व्यावहारिक और आधुनिक
सिद्ध हो रही है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे क्षेत्र कम वर्षा वाले
क्षेत्र हैं।
ऐसे कुण्ड,
टाँके सब जगह हैं। ऊँचे पहाड़ों में बने किलों में, मंदिरों में, पहाड़ की तलहटी में बसे गाँव में,
गाँव के बाहर निर्जन क्षेत्रों में, और तो और
खेतों में भी सब जगह हमें अलग-अलग आकारों के कुण्ड या टाँके मिलते हैं।
जहाँ जितनी भी जगह मिल सके,
वहाँ गारे-चूने से लीपकर एक ऐसा ‘आँगन’
बना लिया जाता है, जो थोड़ी ढाल लिये रहता है।
यह ढाल एक तरफ से दूसरी तरफ भी हो सकता है और यदि ‘आँगन’
काफी बड़ा है तो ढाल उसके सब कोनों से बीच केंद्र की तरफ भी आ सकता
है। ‘आँगन’ के आकार के हिसाब से,
उस पर बरसने वाली वर्षा के हिसाब से इस केंद्र में एक कुण्ड बनाया
जाता है। कुण्ड के भीतर की चिनाई इस ढंग से की जाती है कि उसमें एकत्र होने वाले
पानी की एक बूँद भी रिसे नहीं, वर्ष भर पानी सुरक्षित और
साफ-सुथरा बना रहे।
जिस आँगन में कुण्ड के लिए वर्षा का
पानी जमा किया जाता है, वह आगोर कहलाता है।
आगोर संज्ञा अगोरने क्रिया से बनी है। अगोरना यानी बटोर लेना के अर्थ में। आगोर को
खूब साफ-सुथरा रखा जाता है, वर्ष भर। वर्षा से पहले तो इसकी
बहुत बारीकी से सफाई होती है। जूते, चप्पल आगोर में नहीं आ
सकते। समाज ने कड़े नियम बनाए थे, पानी को सरल ढंग से साफ
रखने के लिए।
आगोर की ढाल से बहकर आने वाला पानी
कुण्ड के मंडल, यानी घेरे में चारों तरफ बने
ओयरों यानी सुराखों से भीतर पहुँचता है। ये छेद कहीं-कहीं झुंड भी कहलाते हैं।
आगोर की सफाई के बाद भी पानी के साथ आ सकने वारी रेत, पत्तियाँ
रोकने के लिए ओयरों में कचरा छानने के लिए जालियाँ भी लगती हैं। कहीं-कहीं बड़े
आकार के कुण्डों में एकत्र होने वाले पानी की शुद्धता के लिए आगोर ठीक किसी चबूतरे
की तरफ ऊँचा उठा रहता है।
बहुत बड़ी जोतों के कारण मरुभूमि
में गाँव और खेतों की दूरी और भी बढ़ जाती है। खेतों पर दिन-भर काम करने के लिए भी
पानी चाहिए। खेतों में भी थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-बड़ी कुण्डियाँ बनाई जाती हैं।
इनमें एकत्र कर लिया गया पानी कृषक समाज के निस्तार और पीने के काम में आ जाता है।
राजस्थान में जल संरक्षणककुण्ड बनते
ही ऐसे रेतीले इलाकों में हैं, जहाँ भूजल
सौ-दो सौ हाथ से भी गहरा और प्राय: खारा मिलता है। बड़े कुँड बीस-तीस हाथ गहरे
बनते हैं और वह भी रेत में । भीतर बूँद-बूँद भी रिसने लगे तो भरा-भराया कुण्ड खाली
होने में देर नहीं लगे।
इसलिए कुण्ड के भीतरी भाग में
सर्वोत्तम चिनाई की जाती है। आकार छोटा हो या बड़ा, चिनाई तो सौ टका ही होती है। चिनाई में पत्थर या पत्थर की पट्टियाँ भी
लगाई जाती हैं। साँस यानी पत्थरों के बीच जोड़ते समय रह गई जगह में फिर से महीन
चूने का लेप किया जाता है। मरुभूमि में तीस हाथ पानी भरा हो पर तीस बूँद भी रिसन
नहीं होगी-इसका पक्का और पुख्ता इंतजाम किया जाता रहा है।
आगोर की सफाई और भारी सावधानी के
बाद भी कुछ रेत कुण्ड में पानी के साथ चली जाती है। इसलिए कभी-कभी वर्ष के आरंभ
में,
चैत्र में कुण्ड के भीतर उतर कर इसकी सफाई भी करनी पड़ती है। नीचे
उतरने के लिए चिनाई के समय ही दीवार की गोलाई में एक-एक हाथ के अंतर पर जरा सी
बाहर निकली पत्थर की एक-एक छोटी-छोटी पट्टी बिठा दी जाती है। नीचे कुण्ड के तल पर
जमा रेत आसानी से समेट कर निकाली जा सके, इसका भी पूरा ध्यान
रखा जाता है। तल एक बड़े कढ़ाव जैसा ढालदार बनाया जाता है। इसे खमाड़ियाँ या कुण्डलियाँ
भी कहते हैं। लेकिन ऊपर आगोर में इतनी अधिक सावधानी रखी जाती है कि खमाडिय़ों में
से रेत निकालने का काम पाँच से दस बरस में एकाध बार ही करना पड़ता है। एक पूरी
पीढ़ी कुण्ड को इतने सँभाल कर रखती है कि दूसरी पीढ़ी को ही उसमें सीढ़ियों से
उतरने का मौका मिल पाता है।
पिछले दौर में सरकारों ने अनेक
स्थानों पर अनेक गाँवों में पानी का नया प्रबंध किया है। पेयजल की नई योजनाएँ आई
हैं। हैंडपंप या ट्यूबवेल लगे हैं। इंदिरा गाँधी नहर से भी शहरों,
गाँवों को पीने का पानी दिया जाने लगा है। ऐसे इलाकों में कुण्ड,
टाँकों की रखवाली की, देखरेख की मजबूत परम्परा
जरूर कमजोर हुई है। यहाँ के कुण्ड टूट-फूट चले हैं, आगोर में
झाड़ियाँ उग आई हैं। लेकिन कहीं-कहीं पानी की नई व्यवस्था अकाल आदि के दौर में फिर
से लडख़ड़ा गई है और तब ऐसी जगहों पर लोगों ने टूटे कुण्डों की फिर से मरम्मत की
है। राजस्थान में ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ समाज ने पानी के नए साधन आने पर भी अपने
पुराने तरीके कायम रखे हैं।
कुण्ड निजी भी है और सार्वजनिक भी।
निजी कुण्ड घरों के सामने, आँगन में, अहाते में और पिछवाड़े बाड़ों में बनते हैं। सार्वजनिक कुण्ड पंचायती भूमि
में या प्राय: दो गाँव के बीच बनाए जाते हैं। बड़े कुण्डों की चारदीवारी में
प्रवेश के लिए दरवाजा भी होता है। इसके सामने प्राय: दो खुले हौज रहते हैं। एक
छोटा, एक बड़ा। इनकी ऊँचाई भी कम ज्यादा रखी जाती है। ये खेल,
थाला, हवाड़ों या उबारा कहलाते हैं। इनमें
आसपास से गुजरने वाले भेड़-बकरियों, ऊँट और गायों के लिए
पानी भर कर रखा जाता है। पशुओं को बाहर ही पानी मिल जाता है और इनके भीतर जाने से
जो गंदगी हो सकती है, वह भी रुक जाती है।
सार्वजनिक कुण्ड भी लोग ही बनाते
हैं। पानी का काम पुण्य का काम माना जाता है। किसी भी घर में कोई अच्छा प्रसंग आने
पर गृहस्थ सार्वजनिक कुण्ड बनाने का संकल्प लेते हैं और फिर इसे पूरा करने में गव
के दूसरे घर भी अपना श्रम देते हैं। कुछ सम्पन्न परिवार सार्वजनिक कुण्ड बनाकर
उसकी रखवाली का काम एक परिवार को सौंप देते थे। कुण्ड के बड़े अहाते में आगोर के
बाहर इस परिवार के रहने का प्रबंध कर दिया जाता था। यह व्यवस्था दोनों तरफ से
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी। कुण्ड बनाने वाले परिवार के मुखिया अपनी सम्पत्ति का एक
निश्चित भाग कुण्ड की सार-संभाल के लिए अलग रख देते थे। बाद की पीढ़ियाँ भी इसे
निभाती थीं। आज भी राजस्थान में ऐसे बहुत से कुण्ड हैं,
जिनको बनाने वाले परिवार नौकरी, व्यापार के
कारण यहाँ से निकल कर असम, बंगाल, मुंबई
जा बसे हैं पर रखवाली करने वाले परिवार अभी भी कुण्ड पर ही बसे हैं। ऐसे बड़े कुंड
आज भी वर्षा के जल का संग्रह करते हैं और पूरे बरस भर आसपास की आबादी को किसी भी
नगरपालिका से ज्यादा शुद्ध पानी देते हैं। ऐसे कुण्डों या टाँकों की क्षमता एक लाख
लीटर से ऊपर होती है।
कई कुण्ड टूट-फूट भी गए हैं,
कहीं-कहीं उनमें एकत्र पानी भी खराब हुआ है पर यह सब समाज की
टूट-फूट के अनुपात में ही मिलेगा। इसमें इस पद्धति का कोई दोष नहीं है। यह पद्धति
तो नई खर्चीली और अव्यावहारिक योजनाओं के दोष भी ढँकने की उदारता रखती है। इन
इलाकों में पिछले दिनों जल संकट हल करने के लिए जितने भी नलकूप और ‘हैंडपंप’ लगे, उनमें पानी खारा
ही निकला। पीने लायक मीठा पानी इन कुण्ड, कुण्डियों में ही
उपलब्ध था। इसलिए बाद में अकाल आने पर कहीं-कहीं कुण्डों के ऊपर ही हैंडपंप लगा
दिए गए हैं।
चुरू क्षेत्र में ऐसे कई कुण्ड मिल
जाएँगे,जो नई पुरानी रीत एक साथ निभाते हैं। बहुप्रचारित इंदिरा गाँधी नहर से ऐसे
कुछ क्षेत्र में पीने का पानी पहुँचाया गया है और इस पानी का संग्रह कहीं तो नई
बनी सरकारी टंकियों में किया गया है और कहीं-कहीं इन्हीं पुराने कुण्डों में।
हम सभी जानते हैं कि राजस्थान में
रंगों के प्रति एक विशेष आकर्षण हैं। लहँगे ओढ़नी और चटकीले रंगों की पगड़ियाँ जीवन
के सुख और दुख में अपने रंग बदलती हैं। पर इन
कुण्डियों का केवल एक ही रंग मिलता है - बस सफेद। तेज धूप और गर्मी के इस
इलाके में यदि कुण्डियों पर कोई गहरा रंग हो तो बाहर की गर्मी सोख कर भीतर के पानी
पर भी अपना असर छोड़ेगा। इसलिए इतने रंगीन पहनावे वाला समाज कुण्डियों को सिर्फ
सफेद रंग में रंगता है। सफेद परत तेज धूप की किरणों को वापस लौटा देती है।
इन कुण्डों ने पुराना समय भी देखा
है,
नया भी। इस हिसाब से वे समय सिद्ध हैं। स्वयंसिद्ध इनकी एक और
विशेषता है। इन्हें बनाने के लिए किसी भी तरह की सामग्री कहीं और से नहीं लानी
पड़ती। मरुभूमि में पानी का काम करने वाले विशाल संगठन का एक बड़ा गुण है - अपनी
ही जगह उपलब्ध चीजों से अपना मजबूत ढाँचा खड़ा करना। किसी जगह कोई एक सामग्री
मिलती है, पर कहीं और वह नहीं-लेकिन कुण्ड वहाँ भी मिलेंगे।
जहाँ पत्थर की पट्टियाँ निकलती हैं,
वहाँ कुण्ड का मुख्य भाग उसी से बनता है। कुछ जगह ये उपलब्ध नहीं
है। पर वहाँ फोग नाम की झाड़ी खड़ी है साथ देने। फोग की टहनियों को एक दूसरे में
गूँथ कर फँसा कर कुण्ड के ऊपर का गुम्बदनुमा ढाँचा बनाया जाता है। इस पर रेत,
मिट्टी और चूने का मोटा लेप लगाया जाता है। गुम्बद के ऊपर चढ़ने के
लिए भीतर गुथी लकड़ियों का कुछ भाग बाहर निकाल कर रखा जाता है। बीच में पानी
निकालने की जगह बनाई जाती है। यहाँ भी वर्षा का पानी कुण्ड के मंडल में बने ओयरों,
छेद से जाता है। पत्थर वाले कुण्ड में ओयरों की संख्या एक से अधिक
होती है लेकिन फोग की कुण्डियों में सिर्फ एक ही रखी जाती है। कुण्ड का व्यास कोई
सात-आठ हाथ, ऊँचाई कोई चार हाथ और पानी लेने वाले छेद प्राय:
एक बित्ता बड़े होते हैं। वर्षा का पानी भीतर कुण्ड में जमा करने के बाद बाकी
दिनों इसे कपड़े या टाट आदि को लपेट कर बनाए गए एक डाट से ढक कर रखते हैं। फोग
वाले कुण्ड थोड़े छोटे होते हैं इसलिए प्राय: कुण्डी कहलाते हैं।
फोग की टहनियों से बना गुंबद भी इस
तेज धूप में गरम नहीं होता। उसमें चटक कर दरारें नहीं पड़तीं और भीतर का पानी इन
सब बातों के साथ-साथ रेत में रमा रहने के कारण ठंडा बना रहता है।
मरुभूमि में जहाँ कहीं भी जिप्सम या
खड़िया पट्टी मिलती है, ऐसे क्षेत्रों में
इसी कुण्ड का उपयोग कुण्डी बनाने के लिए किया जाता है। खड़िया के बड़े-बड़े टुकड़े
खदान से निकाल कर लकड़ी की आग में पका लिए जाते हैं। एक निश्चित तापमान पर ये बड़े
डले यानी टुकड़े टूट-टूट कर छोटे-छोटे नरम टुकड़ों में बदल जाते हैं। फिर इन्हें
कूटते हैं। आगोर का ठीक चुनाव कर कुण्डी की खुदाई की जाती है। फिर भीतर की चिनाई और
ऊपर का गुम्बद भी इसी खड़िया के चूरे से बनाया जाता है। पाँच-छ: हाथ के व्यास वाला
यह गुम्बद कोई एक बित्ता मोटा रखा जाता है। इस पर दो महिलाएँ खड़े होकर पानी
निकालें तो भी यह टूटता नहीं।
मरुभूमि में कई जगह चट्टाने हैं।
इनमें पत्थर की पट्टियाँ निकलती हैं। इन पट्टियों की मदद से बड़े-बड़े कुण्ड तैयार
होते हैं। ये पट्टियाँ प्राय: दो हाथ चौड़ी और चौदह हाथ लम्बी रहती है। जितना बड़ा
आगोर हो,
जितना अधिक पानी एकत्र हो सकता हो, उतना ही
बड़ा कुण्ड इन पट्टियों से ढक कर बनाया जाता है।
घर छोटे हों,
बड़े हों या पक्के- कुण्ड तो उनमें पक्के तौर पर बनते ही हैं। मरुभूमि
में गाँव दूर-दूर बसे हैं। आबादी भी कम है। ऐसे छितरे हुए गाँवों को पानी की किसी
केंद्रीय व्यवस्था से जोड़ने का काम सम्भव ही नहीं है। इसलिए समाज ने यहाँ पानी का
सारा काम बिल्कुल विकेंद्रित रखा, उसकी जिम्मेदारी को आपस
में बूँद-बूँद बाँट लिया। यह काम एक नीरस तकनीक, यांत्रिक,
न रह कर एक संस्कार में बदल गया। ये कुण्डियाँ कितनी सुंदर हो सकती
हैं, इसका परिचय दे सकते हैं जैसलमेर की सीमा पर बसे अनेक
गाँव।
ये इलाके वर्षा के आँकड़ों में भी
सबसे कम हैं और आबादी के घनत्व में भी। आबादी का घनत्व यहाँ पर पाँच,
सात व्यक्ति प्रति किलोमीटर है। दस-बीस घरों या ढाणियों के गाँव रेत
के विस्तार में एक दूसरे से बहुत दूर-दूर बसे हैं। ऐसी बसावट के लिए पीने का पानी
घर-घर के लिए जुटाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती रही है। लेकिन हमारे परम्परागत समाज
में इसको बहुत व्यावहारिक ढंग से हल करके दिखाया है। ऐसे गाँव में हरेक घर के आगे
एक बड़ा-सा चबूतरा बनाया जाता है। इसे जमीन से ऊपर कोई दो फुट रखा जाता है और जमीन
से नीचे कोई दस फुट गहरा कुण्ड होता है। इनमें घर की छत और आँगन से वर्षा का पानी
छानकर एकत्र किया जाता है। जिस घर की सदस्य संख्या ज्यादा होगी उस घर का आकार भी
बड़ा होगा और उसी हिसाब से उस घर की छत, उसका आँगन और उसका कुण्ड
भी बनाया जाता है। इन कुण्डों के भीतर बहुत सफाई से ऐसी प्लास्ट्रिंग की जाती है
कि उसमें एकत्र पानी रिस कर रेत में गायब न हो जाए।
राजस्थान में जल संरक्षण
आज देश के बहुत सारे बड़े शहरों में
- दिल्ली चेन्नई, बैंगलोर आदि में
सरकारों ने वर्षा के जल का संग्रह करने के लिए नए कानून बनाए हैं। इन कानूनों के
कारण अब हर घर को अपनी छत पर बरसने वाले पानी को अनिवार्य रूप से एकत्र करना है या
उससे भूजल को रिचार्ज करना है।
लेकिन सर्वे बताते हैं कि ज्यादातर
घरों में यह कानून प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं हो पाया है। दूसरी तरफ हम देखते
हैं कि रेगिस्तान के अनपढ़ और पिछड़े माने गए गाँव और कस्बों में लोगों ने सैकड़ों
बरस से इस पद्धति को अपने जीवन का एक अनिवार्य अंग बना लिया था। उन्होंने यह सब
किया तो इसीलिए नहीं कि कानून उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य करता है। उन्होंने इसे
बाध्य नहीं साध्य माना है। मरुभूमि के लोगों ने अपने पुरखों को ऐसा करते देखा,
ऐसा करते सुना। उनकी स्मृति और श्रुति उन्हें इस व्यावहारिक पद्धति
की तरफ ले गई। इस स्मृति और श्रुति से यह रीति बन गई और फिर
कानून के बराबर बनते रहने वाली कृति भी बन गई।

मरुभूमि में कहीं-कहीं छोटे तालाबों
के साथ उनके जलग्रहण क्षेत्र में भी टाँके मिलते हैं। इनको बनाने के पीछे एक बहुत
ही व्यावहारिक कारण रहा है। पानी का काम करने वाले नए लोगों को,
संस्थाओं को और शासन को भी ऐसी अनोखी बातों को समझने का प्रयत्न
करना चाहिेए।
इन क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम
होती है कभी-कभी इतनी कम कि छोटे जलग्रहण के तालाब पूरी तरह से भर नहीं सकते।
इनमें जो थोड़ा पानी आएगा, वह मटमैला होगा और
फिर यहाँ की तेज गर्मी और धूप में कीचड़ में बदल सकता है। इसलिए ऐसे छोटे आगोर
वाले तालाबों में हमें कहीं-कहीं तालाब में बहकर आने वाले पानी के रास्ते में छोटे
कुण्ड या टाँके भी बने मिलते हैं। इनको बनाने का एक ही कारण है - खुले तालाब में
जाने से पहले पानी को इन ढके कुण्डों में रोक लेना। ऐसे सभी टाँकों की क्षमता बीस
से पचास हजार लीटर तक ही होती है। पक्का बना ढका हुआ टाँका थोड़ी-सी मात्रा में आए
पानी को अगले कुछ महीनों तक साफ-सुथरे ढंग से पीने के लिए सुरक्षित रखता है।
पानी का काम करने वाले नए संगठनों
को,
स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने समाज में चारों तरफ बिखरी ऐसी अनोखी
समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध रचनाओं को बनाने का, फैलाने का पूरा
ध्यान रखना चाहिए। इससे उनका काम बहुत कम खर्च में कम पैसे में अधिक से अधिक जगहों
में फैल सकता है।
छत से वर्षा के जल का संग्रहण
रेगिस्तानी क्षेत्रों के अनेक भागों
और विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में जहाँ अच्छी किस्म का भूजल उपलब्ध नहीं है,
अथवा सतही जल संसाधन बहुत दूरी पर अवस्थित है, आने वाले समय में भी घरेलू जल आपूर्ति का वर्षाजल ही एक मात्र स्रोत है।
इन क्षेत्रों मे घर की छत पर बरसने वाले जल को वर्षा ऋतु के बाद में उपयोग हेतु
अच्छी प्रकार से बनी नालियों एवं पाइपों के द्वारा नियंत्रित कर भंडारण हेतु सतह
के ऊपर अथवा अधोसतही पक्के टैंक अथवा टाँकों में एकत्र किया जाता है। यदि भंडारित
जल का उपयोग पीने हेतु करना है तो नाली के सामने ही जल के साथ आ सकने वाले कचरे को
रोकने का उचित प्रबंध किया जाता है इससे जल छनकर नीचे टाँके में जमा होता है। टाँके
का आकार मुख्य रूप से छत के नाप पर आधारित होता है। यथायोग्य टाँकों में जल की
इतनी मात्रा भरी जा सकती है, जो आगामी वर्षा के पूर्व तक
यथोचित लंबी अवधि हेतु पर्याप्त जल आपूर्ति सुनिश्चित कर सकें और लोगों को मान्य
रूप में राहत पहुँचा सके। इस प्रकार से एकत्र और संचित जल से उन क्षेत्रों में
जहाँ सिंचाई हेतु जल की प्राप्ति कठिन हो, छोटे भूमि के
टुकड़ों में जैसे गृह वाटिकाओं और सब्जी उत्पादन के लिए सिंचाई भी की जा सकती है।
लोहे की चद्दरों केवलू अथवा खपरैल
और अन्य सभी प्रकार की पक्की छतें जो चिकनी, कठोर
एवं घनी हों, छतों से वर्षा के जल का संग्रहण करने के
उद्देश्य से सर्वाधिक उपयुक्त हैं।
इस पद्धति का वास्तविक आकार विभिन्न
कारकों पर निर्भर करता है। टाँके के आकार मुख्य रूप से पद्धति की लागत,
एकत्रित किए जाने वाले वर्षा के जल की मात्रा, टाँके के मालिकों की आकांक्षाएँ एवं जरूरतें और बाहरी मदद के स्तर से
प्रभावित होंगी।
छत से प्राप्त हो सकने वाले जल की
मात्रा की गणना इस सूत्र से कर सकते हैं-
एकत्रित जल (लीटर में) = छत का
क्षेत्रफल (वर्ग मी.) x वर्षा (मि.मी.)।
टैंक अथवा टाँके के आयतन की गणना निम्नांकित सूत्र से की जा सकती है :
V = (t x n x q) + et
जहां V
= टाँके का आयतन (लीटर में) t = सूखे मौसम की
अवधि (दिनों में) n = उपभोक्ताओं की संख्या, q = उपभोग प्रति व्यक्ति प्रतिदिन (लीटर में, ) और et
= सूखे मौसम में वाष्पन द्वारा जल ह्रास।
क्योंकि बंद टैंक से वाष्पन लगभग
नगण्य होता है, अतः वाष्पन में होने वाले जल के
ह्रास (et) को नजरअंदाज (= शून्य) किया जा सकता है।
राजस्थान में जल संरक्षण आकांक्षित
जल ग्रहण क्षेत्र का क्षेत्रफल (यानी छत का क्षेत्रफल) ज्ञात करने हेतु टैंक के
आयतन (कुल भराव क्षमता) में पिछले मानसूनों में एकत्रित हुए औसत वर्षाजल की कुल
मात्रा (लीटर में) प्रति इकाई क्षेत्र (वर्ग मी.) से भाग देने के बाद उसे अपवाह गुणांक
से गुणा कर दें (अपवाह गुणांक, यानी वर्षा का
वह भाग जिसका वास्तव में संग्रहण किया जा सकता है, जो 0.8केवलू अथवा खपरैल की छतों से 0.9 लोहे की चद्दरों
वाली छतों के अनुसार है)। (समाप्त) जल संग्रहण एवं प्रबंध पुस्तक से
साभार
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