कटते जंगल,पटते तालाब,
प्रदूषित नदियाँ
प्रदूषित नदियाँ
और बंजर होती
जमीन
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
गाँव अब शहर में तब्दिल होते जा रहे
हैं। आज यहाँ बड़ी बड़ी इमारतें, मोटर-गाड़ी
देखे जा सकते हैं। गाँव का गुड़ी/ चौपाल और अमराई आज देखने को नहीं मिलता... नई
पीढ़ी के लोगों को मालूम भी नहीं होगा कि गाँवों में ऐसा कुछ रहा भी होगा। हमारे
पूर्वजों ने गाँव में अमराई लगाना, कुँआ खुदवाना और तालाब
खुदवाना पुण्य कार्य समझा और उसे करवाया। रसीले और पक्के आम का स्वाद भी हमने चखा।
आज नई पीढ़ी के बच्चे बोतल में बंद मेंगो जूस, फ्रूटी और
आमरस का जेली आदि को सर्वोत्तम भले मान ले लेकिन पलाई आम को चूसने और आम का अमसरा
खाने का मजा कुछ और ही था।
मुझे मेरे घर में हमारे पूर्वजों के
द्वारा कुँआँ और खुदवाने सम्बन्धी कागजात मिले हैं जिसके एवज में डिप्टी कमिश्नर,
रायपुर के द्वारा प्रशस्ति पत्र दिये गये हैं। अर्थात! उस काल में कुँआँ
और तालाब खुदवाना अत्यंत पुण्य कार्य था। तालाबों के किनारे बरगद, पीपल और नीम के पेड़ लगवाये गए थे जिसकी छाँव में हमारा बचपन गुजरा था।
मेरी दादी बताती है कि उनका 5-6 वर्ष का बच्चा खत्म हो गया
जिसकी याद में उनके ससुर ने छुइया तालाब के किनारे पाँच पेड़ लगवाए थे जिसकी छाया
आज भी सबको मिलती है। प्राय: सभी गाँवों में अनेक तालाब, तालाब
के किनारे पेड़ और शिव मंदिर अवश्य होते थे। इसी प्रकार धर्मार्थ कुँएँ खुदवाए
जाते थे। तालाब ‘वाटरहार्वेस्टिंग’ का
बहुत अच्छा माध्यम था।
आज गांवों की तस्वीर बदली हुई है।
लोगों ने घरों के फर्नीचर के लिए अमराई के पेड़ों को कटवा डाला है। आज वहाँ पेड़ों
के ठूँठ ही शेष हैं। अमराई के आमों की बातें किस्से कहानियों जैसे लगता है। तालाब
अब जाना नहीं होता क्योंकि घरों में बोरिंग हो गया है,
पंचायत द्वारा पानी सप्लाई भी की जाती है... अर्थात् घर बैठे पानी
की सुविधा हो गयी है। इसलिए तालाब की उपयोगिता या तो मछली पालन के लिए रह गयी है
या फिर उसे पाटकर इमारत बनाये जा रहे हैं। गाँव से शहर बन रहे कस्बों के तालाबों
में घरों का गंदा पानी डाला जा रहा है। रतनपुर, मल्हार,
खरौद और अड़भार में कभी 120 से 1400 तालाब होने की बात कही जाती है। रायगढ़ में इतने तालाब थे कि उसे ‘खइया गाँव‘ के नाम से संबोधित किया जाने लगा था।
लेकिन आज वहाँ कुछ ही तालाब शेष हैं बाकी सबको पाटकर बड़ी बड़ी इमारतें, स्कूल-कालेज और सिनेमा हाल बना दिया गया है। कहना न होगा कि तालाब और
नदियों के किनारे लगे पेड़ों के जड़ मिट्टी को बांधे रखता था, जिसके कटने से नदियों का कटाव बढ़ते जा रहा है और आने वाले समय में समूचे
गाँव के नदी में समा जाने का खतरा बनने लगा है।
गाँव के बाहर प्राय: सभी छोटे-बड़े किसानों का ‘घुरवा‘ होता था जिसमें गाय और भैंस का गोबर डाला
जाता था। भविष्य में यही उत्तम खाद बन जाता था और बरसात के पहले उसे खेतों में
डाला जाता था जिससे खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती थी और पैदावार अच्छी होती थी।
तब दुबराज चावल की खुशबू पूरे घर में फैल जाती थी। आज गाँवों में ऐसा कुछ नहीं
होता क्योंकि आज हल की जगह ट्रेक्टर, गोबर खाद की जगह यूरिया
खाद ले लिया है। पानी नहीं बरसा तो नहर से लिया जाता है जब नहर से पानी नहीं मिला
तो ट्यूबबेल खोदकर पानी खींचकर सिंचाई की जाती है। फसल में कीड़े हो जाते हैं तो
कीट नाशक दवाइयाँ डाली जाती है। भले ही अब दुबराज चावल में खुशबू नहीं है लेकिन
सरकार द्वारा कम समय में अधिक पैदावार वाले धान के बीज उपलब्ध करा दिया जाता
है।
किसानों की चिन्ता है कि उनके बच्चे खेतों में जाना नहीं चाहते। वे
तो पान ठेला, होटल और अन्य दुकान खोलकर जीने
के आदी होते जा रहे हैं। नई पीढ़ी के खेती-किसानी के प्रतिअरुचि से खेत बंजर होते
जा रहे हैं, यह चिन्ता की बात है। घर में खाने को कुछ हो या न हो लेकिन
एक मोटर साइकल अवश्य होना चाहिये। इसके लिए बैंक और फ़ाइनेंसिंगकंपनियाँ लोन देने
को तैयार बैठे हैं। लोन के कर्ज में घर भले ही डूब जाए, इससे
किसी को कुछ लेना देना नहीं होता। लोगों का मानना है कि कर्ज में हम जन्म लेते हैं,
कर्ज में जीते हैं और कर्ज लिये मर जाते हैं...।
खुशी की बात है कि नदी किनारे वाले
गाँवों में औद्योगिक प्रतिष्ठान लगते जा रहे हैं। लोगों को उम्मीद है कि औद्योगिक
प्रतिष्ठानों के लगने से उन्हें रोजगार मिल जाएगा, व्यापारियों का व्यापार बढ़ जायेगा, मकान मालिकों को
किरायेदार मिल जायेगा.....। छत्तीसगढ़ शासन औद्योगिक समूहों को प्रतिष्ठान लगाने
के लिए आमंत्रित कर रही है, यहाँ उन्हें भूमि मुहैया करा रही
है तो स्वाभाविक है कि यहाँ औद्योगिक प्रतिष्ठान लगेंगे ही... लगते जा रहे हैं।
अकेले रायगढ़ जिले के आसपास लगभग 150 आयरन और पावर प्लांट लग
चुके हैं। छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा जिंदल स्पंज और स्टील प्लांट लग चुका है और जल्द
ही उनका पावर प्लांट लगने वाला है। इसके लिए केलो नदी में उनका पावर प्लांट लगने
वाला है। इसी प्रकार अनेक औद्योगिक प्रतिष्ठान लग चुके हैं और लगते जा रहे हैं।
स्वाभाविक रूप से इन सभी प्रतिष्ठानों को पानी की आवश्यकता होगी जिसकी पूर्ति
नदियों के ऊपर बने बाँधों से की जा रही है। बाँध के बनने से नदियों में पानी ही
नहीं है और है भी तो औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकला रासायन युक्त गंदा पानी है
जिससे नदियाँ प्रदूषित हो गईहै।
प्रदेश में औद्योगिक प्रतिष्ठानों
के लगने से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में विकास का ग्राफ अवश्य बढ़ा है।
लेकिन विकास के साथ साथ अनेक प्रकार की बुराइयाँ भी आती हैं जिसे प्रत्यक्ष रूप से
देखा जा सकता है। औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकला धुँआँ जहाँ पेड़ों के चक्रीय
जीवन को प्रभावित कर रहा है, वहीं उसके
धुएँ से खेत की उर्वरा शक्ति खत्म होती जा रही है और खेत बंजर होते जा रहे हैं। अधिकतर
नदियों में बाँध बनाये जा चुके हैं जिससे नदियाँ सूख गयी है। उसमें जो थोड़ा बहुत
जल है उसमें औद्योगिक प्रतिष्ठानों का रसायन युक्त गंदा पानी प्रवाहित हो रहा है।
इससे जन जीवन अस्त व्यस्त होते जा रहा है।
आज फसल चक्र की बात की जाती है... फ
सल चक्र तो नहीं बदला लेकिन जलवायु परिवर्तन अवश्य हो गया है। एक ही नगर में कहीं
बरसात होती है तो कहीं नहीं होती। जल का चक्र के प्रभावित होने से ऐसा होता है।
जलवायु परिवर्तन विकसित और विकासशील देशों के बीच वाद विवाद का विषय जरूर बना है
लेकिन सच्चाई यह है कि हवा, पानी, भोजन, स्वास्थ्य, खेती,
आवास आदि सभी के ऊपर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ने वाला है। समुद्री जल
स्तर केबढ़ने से प्रभावित होते तटीय क्षेत्र के लोग हों या असामान्य मानसून अथवा जल
संकट से त्रस्त किसान, विनाशकारी समुद्री तूफान का कहर झेलते
तटवासी हों अथवा सूखे से त्रस्त और असमान्य मौसम से जनितअजीबो-गरीब बीमारियां
झेलते लोग या फिर विनाशकारी बाढ़ में अपना सब कुछ गवाँ बैठे और दूसरे क्षेत्रों
में पलायन करते तमाम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं।
औद्योगिक क्रांति की भट्ठी में हमने अपना जंगल झोंक दिया है। पेड़ काट डाले
और सडक़ें बना डालीं। कुल्हाड़ी-आरी से जंगल काटने में देर होती थी,
तो पावर से चलने वाली आरियाँ गढ़ डालीं। सन् 1950 से 2000 के बीच 50वर्षो में
दुनिया के लगभग आधे जंगल काट डाले, आज भी बेरहमी से काटे जा
रहे हैं। जल संग्रहण के लिए तालाब बनाये जाते थे जिससे खेतों में सिंचाई भी होती
थी। लेकिन आज तालाब या तो पाटकर उसमें बड़ी बड़ी इमारतें बनायी जा रही है या उसमें
केवल मछली पालन होता है। मछली पालन के लिए कई प्रकार के रसायनों का उपयोग किया
जाता है जिसका तालाबों का पानी अनुपयोगी हो जाता है। इसी प्रकार औद्योगिक धुँएँ से
वायुमंडल तो प्रदूषित होता ही है, जमीन भी बंजर होती जा रही
है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़नेलगा है और दुष्परिणाम हम भुगत रहे हैं। आखिर
जंगल क्यों जरूरी है? पेड़ हमें ऐसा क्या देते हैं, जो उन्हें बचाना जरूरी है? पेड़ हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, इंधन, इमारती लकड़ी, गोंद,
कागज, रेशम, रबर और तमाम
दुनिया के अद्भुत रसायन देते हैं। इसलिए हमने उसका दोहन (शोषण) तो किया, पर यह भूल गये कि वृक्षों के नहीं होने से यह धरती आज वीरान बनती जा रही
है। वनों के इस उपकार का रुपयों में ही हिसाब लगायें तो एक पेड़ 16 लाख रुपये का फायदा देता है। घने जंगलों से भाप बनकर उड़ा पानी वर्षा
बनकर वापस आता है और धरती को हरा भरा बनाता है। पेड़ पौधों की जड़ें मिट्टी को बाँधे
रहती है। पेड़ों की कटाई से धरती की हरियाली खत्म हो जाती है। धरती की उपजाऊ
मिट्टी को तेज बौछारों का पानी बहा ले जाती है। पेड़ों की ढाल के बिना पानी की तेज
धाराएँपहाड़ों से उतर कर मैदानों को डुबाती चली जाती है। हर साल बाढ़ का पानी अपने
साथ 600 करोड़ टन मिट्टी बहा ले जता है। मिट्टी के इस भयावह
कटाव को रोकने का एक ही उपाय है-वृक्षारोपण। मिट्टी, पानी और
बयार, ये तीन उपकार हैं वनों के हम पर। इसलिए हमारे देश में
प्राचीन काल से पेड़ों की पूजा होती आयी है।
सम्पर्क:
राघव, डागा कालोनी, चाम्पा (छ.ग.)
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