औद्यौगिक कचरों की गिरफ्त
में
अस्तित्व खोती हमारी नदियाँ
-
ज्ञानेन्द्र रावत
आजकल देश में नदियों की शुद्धि का
सवाल चर्चा का मुद्दा बना हुआ है। कोई ही ऐसा दिन जाता हो जबकि राष्ट्रीय हरित
अधिकरण यानी एनजीटी देश की नदियों के भविष्य के बारे में कोई टिप्पणी न करता हो।
कारण अभी देश की नदियाँ औद्यौगिक कचरे कहें या उनके रसायनयुक्त अवशेष से मुक्त
नहीं हो पाई हैं। जो प्रदूषण मुक्त हो भी सकी हैं या पुनर्जीवन की ओर अग्रसर हैं,
वह सरकार नहीं बल्कि निजी प्रयासों के बल पर ही संभव हो सका है।
असलियत में देश की अधिकांश नदियाँ अब नदी नहीं बल्कि नाले का रूप अख्तियार कर चुकी
हैं। कुछ का तो अब अस्तित्व ही शेष नहीं है। अब केवल उनका नाम ही बाकी रह गया है।
जबकि हमारी सरकार यह दावे करती नहीं अघाती कि हम देश की गंगा-यमुना सहित सभी
नदियों को शीघ्र ही प्रदूषण मुक्त कर देंगे। नदियों की शुद्धि जितनी जल्दी हो उतना
ही अच्छा है। लेकिन जब गंगा ही अभी तक साफ नहीं हो पाई है जो सरकार की सर्वोच्च
प्राथमिकता में है, उस दशा में यमुना और देश की बाकी नदियों
की शुद्धि की बात बेमानी प्रतीत होती है।
बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी तक ने नर्मदा नदी के माध्यम से देश की नदियों की स्थिति पर चिन्ता जाहिर करते हुए कहा कि आज देश के अन्य राज्य
नर्मदा नदी संरक्षण कार्ययोजना से सीख लें। उन्होंने मध्य प्रदेश में अमरकंटक में
नर्मदा सेवा यात्रा के समापन समारोह में इस तथ्य को स्वीकारा कि आज देश में ऐसी कई
नदियाँ हैं जो अपना अस्तित्व खो चुकी हैं, उनमें
अब पानी नहीं रह गया है और उनका नाम केवल नक्शे पर ही बाकी रह गया है। यही नहीं
अपनी सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना ‘नमामिगंगे’ की समीक्षा बैठक में परियोजना की धीमी गति और जनभागिता की कमी पर भी वे
गहरी चिन्ता व्यक्त कर चुके हैं। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश
और उत्तराखण्ड में भाजपा की सरकार बनने के बाद नमामिगंगे मिशन की यह पहली समीक्षा
बैठक थी।
इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय,
नीति आयोग, जल संसाधन, पेयजल
और स्वच्छता मंत्रालय, राष्ट्रीय गंगा स्वच्छता मिशन और
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे। सबसे बड़ी बात यह
है कि अब तो केन्द्र सरकार के नमामिगंगे मिशन से जुड़े मंत्रालय उत्तर प्रदेश और
उत्तराखण्ड से सहयोग न मिलने का बहाना भी नहीं कर सकते। बैठक में अधिकारियों का इस
सम्बंध में हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद,
वाराणसी, पटना, भागलपुर,
हावड़ा और कोलकाता जैसे प्रमुख शहरों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है
और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की गहन निगरानी की जा रही है, केवल इतना भर कह देने से तो काम नहीं बनने वाला। यह तो जिम्मेदारी से
पल्ला झाड़ने जैसा है। इसके सिवाय कुछ नहीं। जबकि असलियत में गंगा आज भी मैली है।
उसकी शुद्धि का दावा बेमानी है। कानपुर से आगे तो गंगा का जल आचमन लायक भी नहीं
है।
दरअसल गंगा की शुद्धि का सवाल आस्था
के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ा है। यह राष्ट्र से जुड़ा है। इस सच्चाई
को झुठलाया नहीं जा सकता। अहम सवाल यह है कि गंगा की निर्मलता गंगा की अविरलता के
बिना असंभव है। इस बारे में बीते दिनों हुए सम्मेलन में मैग्सेसे पुरस्कार से
सम्मानित राजेन्द्र सिंह सहित नदी-जल संरक्षण में लगे विद्वानों,
विशेषज्ञों ने एकमत से कहा कि गंगा हमारी माँ है। वह हमारी
पौराणिकता, आस्था और राष्ट्र के सम्मान की प्रतीक है। गंगा
की शुद्धि का सवाल राजनीतिक मुद्दा नहीं, वरन राष्ट्रीय
मुद्दा है। इसके लिए सभी को नि:स्वार्थ भाव से आगे आना होगा। गंगा के सवाल पर पूरा
देश एक है। जब तक गंगा में गाद की समस्या का समाधान नहीं हो जाता, गंगा की अविरलता की आशा करना बेमानी है। क्योंकि गंगा की अविरलता में गाद
सबसे बड़ी बाधक है। गाद के कारण गंगा उथली हो गई है। नतीजतन गंगा के प्रवाह की गति
बेहद धीमी हो गई है। ऐसी स्थिति में गंगा में केन्द्र सरकार द्वारा नौवहन की योजना
समझ से परे है।
हर साल गंगा की स्थिति बिगड़ रही
है। गंगा की निर्मलता का डॉल्फिन,जिसे मीठीसौंस
भी कहते हैं, से सीधा सम्बन्ध है। जिस तरह जंगल में बाघ होने
से उसकी जीवंतता का पता चलता है, उसी तरह डॉल्फिन से गंगा की
जीवंतता, निर्मलता का पता चलता है जो अब संकट में है। बैठक
में सभी वक्ताओं ने कहा कि फरक्का बांध के कारण गंगा के बिहार वाले क्षेत्र में
गाद लगातार जमा हो रही है। इसके चलते गंगा हर साल घाट से सैकड़ों मीटर दूर होती जा
रही है। गाद की समस्या का समाधान सभी को निकालना होगा। हर साल बरसात में पश्चिम
बंगाल और बिहार की हालत गाद के चलते बिगड़ती है। गौरतलब है कि फरक्काबैराज42 साल पुराना है। यह बिहार के साथ पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश से जुड़ा
मुद्दा भी है। गंगा में नौवहन भी तभी कामयाब हो सकता है जबकि गाद की समस्या का
समाधान हो। क्योंकि हर बार गाद निकालने पर ही हजारों करोड़ की राशि खर्च होगी।
उसके बाद भी इस बात की गारंटी नहीं है कि केन्द्र सरकार की नौवहन नीति कामयाब ही
हो।
यमुना को लें,
यमुना के पूरे यात्रा पथ को छोड़ दें, वहाँ तो
बदहाली की इंतहां है। केवल दिल्ली की ही बात करें तो पाते हैं कि अकेले दिल्ली में
21 नालों से 850 मिलियन गैलनसीवर का
पानी आज भी रोजाना यमुना में गिरता है। 67 फीसदी गंदा पानी
तो अकेले नजफगढ़ नाले से यमुना में गिरता है। बीते दिनों मैली से निर्मल यमुना
पुनरुद्धार परियोजना - 2017 के क्रियान्वयन की निगरानी की
मांग करने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए एनजीटी ने अपने आदेश में दिल्ली सरकार
और तीनों निगमों से कहा है कि वे आवासीय इलाकों में चल रहे उन उद्योगों के खिलाफ
कार्यवाही करें जो यमुना नदी के प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं। एनजीटी का यह हरसंभव
प्रयास है कि यमुना में पहुँचने से पहले दूषित जल दिल्ली गेट और नजफगढ़ स्थित
दूषित जल शोधन संयंत्रों द्वारा साफ हो जाये। इसके लिये उसने जल बोर्ड के अधिकारी
की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की है जो यमुना की सफाई से जुड़े काम की देखरेख
करेगी। उसने यमुना किनारे शौच करने और कचरा फेंकने पर पाँच हजार रुपये बतौर
पर्यावरण जुर्माना वसूले जाने का आदेश दिया है। गौरतलब है कि तकरीब दस-बारह साल
पहले यमुना को टेम्स बनाने का वायदा किया गया था।
दुख है कि यमुना आज भी मैली है और
पहले से और भी बदतर हाल में है। विचारणीय यह है कि जब गंगा और यमुना का यह हाल है,
वे मैली हैं और वे अपने उद्धार की बाट जोह रही हैं, उस हाल में गुजरात की अमलाखेड़ी, खारी, हरियाणा की मारकंडा, मध्य प्रदेश की खान, उत्तर प्रदेश की काली, हिंडन, आंध्र
की मुंसी, महाराष्ट्र की भीमा आदि दस नदियाँ जो सबसे ज्यादा
प्रदूषित हैं, उनकी शुद्धि की कल्पना ही व्यर्थ है। आज देश
में तकरीब70 फीसदी नदियाँ प्रदूषित हैं। गोमती और पांडु जैसी
तो असंख्य हैं। भले नदियों को देश में देवी की तरह पूजा जाता हो, उन्हें माँ मानते हों, पर्वों पर उनमें डुबकी लगाकर
खुद को धन्य मानते हों, लेकिन दुख इस बात का है कि उनका कोई
पुरसाहाल नहीं है। यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब उनका अस्तित्व ही न रहे। (इंडिया वॉटर पोर्टल से)
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