कुछ पेड़ लगाएँ कुछ
पेड़ बचाएँ
- संजय भारद्वाज
लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी
भ्रम है,
यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी.. और
आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब
यूटर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और
महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी
की सड़कें। इन सडक़ों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से
इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह
तलाशते लोग निजी और किराए के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती
के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजऱ और जे.सी.बी की घरघराहट के
बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को
अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित
नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि
भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के
हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़
कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर
ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी
शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती
में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच
शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार,
विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’
ही नजऱ आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश
जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का
विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली
वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्धिलब्धि (आई.क्यू) के आँकड़ों
को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए
कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोनलेयर में भी छेद कर चुके आदमी को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर
अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबलविलेज’ का सपना बेचनेवाले‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की
अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के
स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की
नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली हैं, चारे के अभाव में
मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य,
प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब
दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ,
पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी,
निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट
लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनलीइफनेसेसरी,’ हम
प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए
इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड?
घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को
लार्जस्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता,
बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक
से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर
सेमिनार,
चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों
निरीलिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
No comments:
Post a Comment