जवाहर चौधरी
- रूप सिंह चन्देल
मेरा परिचय उनके बड़े पुत्र से था। बड़े पुत्र यानी आलोक चौधरी से। आलोक से परिचय पुस्तकों के संदर्भ में हुआ था। शब्दकार प्रकाशन, जिसे उन्होंने 1967 में स्थापित किया था, उनकी अस्वस्थता के कारण आलोक ही संभाल रहे थे। जहाँ तक याद पड़ता है आलोक से मेरी पहली मुलाकात हिन्दुस्तान टाइम्स बिल्डिंग में हुई थी- शायद दैनिक हिन्दुस्तान में- बात 1990 के बाद लेकिन 1993 से पहले की है। दैनिक हिन्दुस्तान के रविवासरीय में उसके सहायक सम्पादक आनन्द दीक्षित समीक्षाएँ देखते थे। दीक्षित जी बहुत ही आत्मीय व्यक्ति थे। उनसे मिलने जाने में जब भी मुझे लंबा समय बीत जाता, वह मुझे फोन करके शिकायत करते हुए कहते, आपके लिए कब से बहुत-सी अच्छी पुस्तकें संभालकर रखी हुई हैंकृ पुस्तकें संभालकर रखने से आभिप्राय समीक्षार्थ पुस्तकों से था। उन दिनों वहाँ और जनसत्ता में मैं नियमित समीक्षाएँ लिख रहा था। यह एक बीमारी की भाँति मेरे साथ जुड़ गया था। छपास और मुद्रालाभ की बीमारी कह सकते हैं। पाठकों की नजरों में बने रहने की लालसा भी उसके साथ जुड़ी हुई थी। परिणाम यह था कि कितने ही लोग मेरा पता जानकर अपनी पुस्तकें सीधे घर भेजने लगे थे इस अनुरोध के साथ कि मैं उन पर लिख दूँ उन दिनों कुछ प्रकाशकों का भी मैं चहेता बन गया था। उन्हीं दिनों आलोक चौधरी से मेरी मुलाकात हुई थी। कन्नड़ के मूर्धन्य लेखक एस.एल. भैरप्पा के हिन्दी में अनूदित उपन्यासों के अनुवाद शब्दकार ने प्रकाशित किए थे और आलोक से परिचय होने से पूर्व उनके कुछ उपन्यासों पर मैं समीक्षाएँ लिख चुका था। शब्दकार प्रकाशन के संस्थापक आलोक के पिता थे, लेकिन वह जवाहर चौधरी थे यह मैं नहीं जानता था।
उस दिन मुलाकात के दौरान आलोक ने अपने पिता के विषय में बताया। जवाहर चौधरी जी से मिलने जाने की इच्छा प्रबल हो उठी। लेकिन समय दौड़ता रहा और मैं जा नहीं पाया। मैं मिलने जा तो नहीं पाया, लेकिन शब्दकार का जब भी नया सेट प्रकाशित होता आलोक कुछ खास पुस्तकों की दो प्रतियाँ मुझे भेज देते। बाद में फोन करके कहते कि पिता जी ने अर्थात जवाहर चौधरी ने उन पुस्तकों को मुझे भेजने के लिए कहा है। मुझे यह पता चल चुका था कि दैनिक हिन्दुस्तान या जनसत्ता में प्रकाशित मेरी हर समीक्षा ही नहीं मेरी कहानियाँ भी जवाहर चौधरी मनोयोग से पढ़ते थे।
जवाहर चौधरी से मिलने जाने का कार्यक्रम टलता रहा और तीन वर्ष निकल गए। मार्च 1993 में मैं अपने परिवार और अशोक आंद्रे और बीना आंद्रे के साथ मैसूर, ऊटी और बंगलुरू (तब बंगलौर) की यात्रा पर गया। हम सीधे मैसूर गए और वहाँ डी.आर.डी.ओ. गेस्ट हाउस में ठहरे। गेस्टहाउस चामुण्डा हिल्स के ठीक सामने बहुत रमणीय स्थल पर है। चामुण्डा हिल्स देखकर मुझे भैरप्पा के उपन्यास साक्षी की याद हो आयी। कुछ दिनों पहले ही यह उपन्यास शब्दकार से प्रकाशित हुआ था। दिल्ली से ही मैंने भैरप्पा जी से मिलने के लिए दिन और समय तय कर लिया था। अगले दिन हमने सबसे पहला काम उनसे मिलने जाने का किया था। बातचीत में भैरप्पा जी ने जवाहर चौधरी की जो प्रशंसा की उसने मुझे दिल्ली लौटकर उनसे मिलने के लिए और प्रेरित किया था। भैरप्पा के हिन्दी में अनूदित सभी उपन्यास शब्दकार से ही क्यों प्रकाशित हुए, मेरे इस प्रश्न के उत्तर में भैरप्पा जी ने कहा था, जवाहर चौधरी मेरे मित्र हैं। जब तक वह उपन्यास प्रकाशित करने से इंकार नहीं करेंगे- मैं उन्हें ही देता रहूँगा। वह रॉयल्टी दें या नहीं।
जवाहर चौधरी के प्रति भैरप्पा जी के ये उद्गार उनकी मित्रता की प्रगाढ़ता को उद्घाटित कर रहे थे। मुझे बाद में मालूम हुआ कि कमलेश्वर की कई पुस्तकें शब्दकार से प्रकाशित हुई थीं और कमलेश्वर ने भी उनसे रॉयल्टी लेने से इंकार कर दिया था। इससे इन लोगों के साथ जवाहर चौधरी की मित्रता की प्रगाढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है। भैरप्पा जी के कथन ने मुझे इतना उत्साहित किया कि यात्रा से लौटकर मैं अपने को रोक नहीं पाया। एक दिन मैं गुरु अंगद नगर (जो दिल्ली के प्रसिद्ध लक्ष्मीनगर के निकट है) आलोक के घर जा पहुँचा। चौधरी परिवार उस मकान में भूतल में रहता था। दरवाजे के सामने छोटा-सा आंगन था। आंगन के पूरब की ओर दो कमरे थे। पहले कमरे में चारपाई पर उम्रदराज एक व्यक्ति लेटा हुआ था। वही जवाहर चौधरी थे। वह पक्षाघात का शिकार होकर शैय्यासीन थे। कृशकाय, लेकिन चेहरे पर ओज और चौतन्यता। मध्यम कद, चकमती हुई आँखें और गोरा-चिट्टा चेहरा। मैंने सोचा, अपनी जवानी में वह निश्चित ही बहुत ही सुन्दर और आकर्षक रहे होंगे।
जवाहर चौधरी का जन्म 7 मार्च, 1926 को हुआ था। गुरुअंगदनगर के जिस मकान में मैं उनसे मिला वह किराए पर था और वहाँ वह 1985 में शिफ्ट हुए थे। शिफ्ट होने के कुछ दिनों बाद ही 1986 के प्रारंभ में उन्हें पक्षाघात का अटैक हुआ और वह एक प्रकार से शैय्यासीन हो गए थे, लेकिन उस स्थिति में भी वह प्रकाशन के काम में रुचि लेते थे। वास्तव में वह बहुत ही कर्मठ, विद्वान, साहित्य प्रेमी, मित्रजीवी और जीवन्त व्यक्ति थे। उनके परिचितों और मित्रों से सुनी उनकी इन विशेषताओं ने भी मुझे उस नेक इंसान से मिलने के लिए प्रेरित किया था और एक मुलाकात ने ही मुझ पर उनकी जो अमिट छाप छोड़ी वह आज तक अक्षुण है।
मुझे आया देख चौधरी साहब ने उठने का प्रयास किया, लेकिन उठ नहीं पाए। मैं उनके निकट बैठ गया। लम्बी बातें हुईकृमेरे लेखन, परिवार से लेकर नौकरी, देश, समाज और राजनीति की। उन्होंने शब्दकार को लेकर चिन्ता व्यक्त की। चिन्ता व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर थी। पुस्तक खरीद में भारी रिश्वतखोरी को लेकर थी। उन्होंने तब कहा था कि स्थिति यदि यही रही तो अच्छा साहित्य छपना बंद हो जाएगा। स्पष्ट है कि उनकी यह चिन्ता अपने प्रकाशन की पुस्तकों की बेच से सम्बन्धित भी थी। बहुत ही उल्लेखनीय साहित्य उन्होंने प्रकाशित किया था। शब्दकार की सूची में महत्तवपूर्ण लेखक थे, लेकिन खरीद अधिकारियों को रिश्वत दे पाने की अक्षमता के कारण प्रकाशन की स्थिति अच्छी न थी। जब तक वह स्वस्थ रहे अपने प्रभाव से ठीक-ठाक काम किया, लेकिन अस्वस्थ होते ही शब्दकार लडख़ाने लगा था।
यद्यपि जवाहर चौधरी लेखक नहीं थे, लेकिन अच्छे साहित्य और अच्छे साहित्यकारों की उन्हें पहचान थी। उनके दौर के अनेक हिन्दी और गैर हिन्दी लेखक उनके अभिन्न मित्र थे। अक्षर प्रकाशन प्रारंभ करने से पूर्व वह कई प्रकाशकों के लिए काम कर चुके थे। कहते हैं कि भारतीय ज्ञानपीठ को बनारस से दिल्ली लाने का श्रेय उन्हें ही था। ज्ञानपीठ के दिल्ली स्थानांतरित होने पर वह उसके पहले प्रबन्धक नियुक्त हुए थे, लेकिन चूंकि वह बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे इसलिए लम्बे समय तक भारतीय ज्ञानपीठ को उनकी सेवाएँ नहीं प्राप्त हो सकी थीं। उन्होंने रंगभूमि पत्रिका में भी कुछ दिनों तक काम किया था और 28 दिन राजकमल प्रकाशन में भी रहे थे। कुछ दिन आत्माराम एण्ड संस में भी कार्य किया, लेकिन वह कहीं भी अधिक दिनों तक नहीं टिके। व्यक्ति का व्यावहारिक होना और मृदुभाषी होना अलग बात है लेकिन इन गुणों के बावजूद स्वाभिमानी व्यक्ति समझौते नहीं कर पाते. जवाहर चौधरी भी नहीं कर पाते रहे।
जवाहर चौधरी प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव भी रहे थे। अक्षर प्रकाशन, जहाँ आज हंस पत्रिका का कार्यालय है, के वह संस्थापक सदस्यों में से एक और उसके प्रथम मैनेजिंग डायरेक्टर थे.. यह बात उस दिन जवाहर चौधरी ने ही मुझे बतायी थी कि अक्षर प्रकाशन में पूंजी लगाने के लिए उन्होंने अपना 208 वर्ग गज का ग्रेटर कैलाश का प्लॉट बेच दिया था. ग्रेटर कैलाश नई दिल्ली के उन इलाकों में है जहाँ आज उस प्लॉट की कीमत करोड़ों में होती।
मैं जब जवाहर चौधरी से मिलकर वापस लौट रहा था तब मन में एक ही बात उमड़- घुमड़ रही थी कि सहज और सरल व्यक्ति जीवन में असफल क्यों रहते हैं! जवाहर चौधरी बहुत ही सरल व्यक्ति थे। उन्होंने मित्र बहुत बनाए लेकिन लाभ किसी से भी नहीं उठाया. परिणामतरू स्थितियाँ खराब होती गयीं और एक दिन प्रकाशन ठप होने के कगार पर पहुँच गया।
और 20 नवम्बर, 1999 को उनकी मृत्यु के पश्चात शब्दकार बंद हो गया। बाद में आलोक को उसे बेचना पड़ा। लेकिन अक्षर प्रकाशन हो या शब्दकार, नाम लेते ही जानकार लोगों के जेहन में जवाहर चौधरी का नाम घूमने लगता है।
लेखक परिचय: 12 मार्च, 1951 को कानपुर (उ.प्र.) के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्म, कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में पी- एच.डी.। अब तक 47 पुस्तकें, जिनमें 8 उपन्यास,
12 कहानी संग्रह, तीन किशोर उपन्यास, आलोचना, यात्रा संस्मरण, बाल
साहित्य, लघुकथा, संस्मरण आदि
सम्मिलित। महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय
के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुरादका अनुवाद और 'दॉस्तोएव्स्की के
प्रेमपुस्तकें संवाद प्रकाशन से प्रकाशित 'लियो तोल्स्तोय का
अंतरंग संसार (तोल्स्तोय पर संस्मरण), गलियारे
(उपन्यास) और 'यादों की लकीरें (संस्मरण- भाग एक) प्रकाश्य। अनेक रचनाओं के अंग्रेजी, पंजाबी, बांग्ला, गुजराती और
असमिया भाषाओं में अनुवाद। सम्पर्क: बी-3/230, सादतपुर
विस्तार, दिल्ली- 110 094, मो.
09811365809, 08285575255, Email- roopchandel@gmail.com,
rupchandel@gmail.com
1 comment:
यह संस्मरण पढ़ने योग्य है। जवाहर चौधरी जैसे जीवंत व्यक्तित्व से परिचय हुआ। रूपसिंह जी आपने ठीक ही कहा कि सरल और सहज व्यक्ति जीवन में सफल नहीं हो पाते । इसका कारण है। वे आड़े-तिरछे दाव पेंचों के साथ समझौता नहीं कर सकते हैं।
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