- लाला जगदलपुरी
दहकन का अहसास कराता,
चंदन कितना बदल गया है;
मेरा चेहरा मुझे डराता,
दरपन कितना बदल गया है!
आँखों ही आँखों में
सूख गयी हरियाली अंतर्मन की;
कौन करे विश्वास कि मेरा
सावन कितना बदल गया है!
पाँवों के नीचे से
खिसक-
खिसक जाता-सा बात-बात
में;
मेरे तुलसी के बिरवे का
आँगन कितना बदल
गया है!
भाग रहे हैं लोग मृत्यु के
पीछे-पीछे, बिना बुलाये;
जिजीविषा से अलग-थलग यह
जीवन कितना बदल गया है!
प्रोत्साहन की नयी दिशा
में
देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ;
दुर्जनता की पीठ ठोंकता
सज्जन कितना बदल गया
है!
( काव्य-संकलन मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश से)
No comments:
Post a Comment