- विनोद
साव
नदी वही थी पर यहाँ रूप बदला हुआ था। थोड़ी दूर पहले उसका चौड़ा विस्तीर्ण
पाट था। एक सिरे से दूसरा सिरा दिखता नहीं था। जो दिखता था वो केवल रेत थी... रेत
ही रेत। मानों रेत की नदी हो। पानी की धार को खोजना पड़ता था। पर यहाँ उलटवार था।
रेत का पता ही नहीं था। पानी ही पानी रेत को खोजना पड़ रहा था। बहुत दूर कहीं कोई
सुनहली चमकीली पगडंडी -सी दिख रही थी। वही शायद रेत थी।
हम जहाँ खड़े थे ; वहाँ पर घाट था। यह नदी के घाट की तरह नहीं तालाब के
घाट की तरह छोटा था। सामने नदी का जल भी नदी के जल की तरह नहीं तालाब के जल की
तरह था। यहाँ आकर नदी जैसे थम गई हो। वह बहती हुई नदी नहीं थी। उसका जल स्थिर था
तालाब के जल की तरह। एकदम रुका हुआ एक ठहराव के साथ।
ठहरे हुए जल में बड़ी
गंभीरता होती है। उसकी यह गंभीरता कहीं पर रहस्यमयी भी लगती है। मानों वह किसी
तिलस्म को अपने में समेटे हुए हो और किसी क्षीरसागर की तरह मथने पर न जाने कब
उसमें से क्या निकल जाए। यहाँ पर नदी के जल का अपना आतंक था।
‘यहाँ कई लोग डूब चुके
हैं...भैया!’ उसने डोंगी को खेते हुए बताया !
‘मुझे तैरना आता है।’ मैंने सिगरेट जलाते हुए कहा।
उसे सुनकर हँसी आ गई ; जिससे
डोंगी में असंतुलन पैदा हुआ। मैंने इसमें संतुलन लाने के लिए अपने खड़े होने के
ढंग को बदला। बदलते समय मुझे भी हँसी आ गई; क्योंकि असंतुलन मेरे भीतर भी था। ओम
ने मना किया था कि यह नाव नहीं डोंगी है। कभी भी पलट सकती है। पर मोहन नहीं माना
उसने एक बार कहा और चढ़ गया था डोंगी पर मैं भी उसके साथ।
'आपका नाम क्या है ?
‘मैंने डोंगी वाले से पूछा।’ मैं उसे तुम भी कह सकता था लेकिन मैंने
उसे आप कहा। यह अतिशय सौजन्य अंग्रेजी महारानी की देन थी।
‘हम लोग केवट हैं! ’
'ओफ निषादराज!
’ यह एक ऐतिहासिक महत्त्व
का शब्द था जिससे जुड़े व्यक्ति ने कृपासिन्धु को पार लगाया था। मैंने कुछ ज्यादा
ही जोश में इस शब्द को उछाला था। शायद यह
भीतर की प्रेरणा थी 'नाव चलाने वाले लोग केवट तो होते
ही हैं।’ मैंने अपनी
जानकारी उड़ेली 'इसके अलावा भी कोई नाम होगा? ’
'मुन्ना .. !
’ वह थोड़ी देर रुका था। 'मुन्ना केवट’ फिर रुककर उसने कहा था।
'आप स्कूल गए नहीं
होंगे! ’
'नहीं! ’ उसने दोनों हाथ में रखे बाँस को
नदी में डुबाते हुए कहा था।
मेरा अन्दाज बिल्कुल
सही था। और इसीलिए वह मुन्ना था। स्कूल गया होता तो स्कूल का कोई और नाम होता, जो
आज उसका असली नाम होता। जवान हो जाने के बाद भी अब तक वह माँ-बाप के रखे नाम से
काम चला रहा था और डोंगी को किसी मुन्ने की तरह खेल रहा था।
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मैंने डोंगी वाले की ओर
एक बार फिर देखा वह मुस्करा उठा था किसी मुन्ने की मानिन्द और मशगूल हो गया था।
जैसे कागज की नाव बनाकर हर घर का मुन्ना मशगूल हो जाता है उसे चलाने में अपने मकान
के बाहर बहती किसी नाली में।
'लाओ सिगरेट मुझे दो।’
यह मोहन की आवाज थी जो
डोंगी में नीचे से आई। वह सिगरेट नहीं पीता पर मुझे देखकर कभी -कभी माँग लेता है।
वह अक्सर नई वाली नहीं सुलगाता। मेरी आधी जली हुई को ही ले लेता है। वह अपनी आदत
के अनुसार गरदन एक ओर लटकाए रखता है राजेशखन्ना की तरह। एक ऐसे हीरो का जिसका
जमाना निकल गया है पर उसकी तरह अब भी कुछ लोगों की गरदन लटकी हुई है।’
'मोहन- अपनी गरदन
सीधी रखो इससे डोंगी एक तरफ झूल जाती है।’ मैंने किंचित व्यंग्य से कहा। तब
उसके चेहरे पर एक मुचमुचाती मुस्कान आई उस गुजरे जमाने के हीरो की तरह।
मैंने घाट की ओर देखा
वहॉ ओम खड़ा था। ओम अपने बड़े पेट को सम्हाले हुए खड़ा था। मैंने कहा 'अच्छा हो गया ओम डोंगी में नहीं बैठा।’
'हाँ.. ओम का भारी पेट तो डोंगी
को कब से डुबा चुका होता! ’ मोहन ने जैसे मेरे कहने का आशय
पूरा किया। यह कहते हुए उसके चेहरे पर वही मुचमुची मुस्कराहट थी उस गुज़रे जमाने के
हीरो की तरह। अब मेरे पास दो किसमों की मुस्कराहटें थीं एक मुन्ना की मेहनतकश मुस्कान और दूसरी मोहन की मुचमुचाती मुस्कान और
इनके बीच खड़ा था मैं जैसे कोई मुस्कराहटों का सौदागर हो।
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डोंगी में चढ़ते समय
मैंने अपने रुपये और कुछ कागजात ओम को पकड़ा दिए थे। ओम ने कहा था 'ठीक है! तुमको तो तैरना आता है। नोट सब डूब जाएँगे।’
'बचकर आ जाऊँगा तो
पाई पाई का हिसाब ले लूँगा।’ मैं हँसते हुए डोंगी में तब जा बैठा था। बातचीत की यह वही मस्ती थी जो
यारों के बीच होती है। ओम और मोहन यारों के यार थे।
नदी के दोनों किनारों
पर जंगल युक्त हल्की पहाडिय़ाँ थीं। नदी का यह किनारा पहाडिय़ों का किनारा भी कहा जा
सकता था। इन पहाडिय़ों के जिस हिस्से को नदी छूती थी वहाँ गोल मटोल पत्थर थे
जिन्हें नदी अब तक काटकर उसका भुरका नहीं बना सकी थी। इसलिए यहाँ कोई रेत नहीं थी।
'पानी यहाँ पर ठहर
गया न भैया... पत्थरों को काट न सका।’ मुन्ना की यह डोंगी
लौटाते हुए आवाज थी। हम बीच नदी में आ गए थे ; जहाँ कई डोंगियाँ पहुँच गई थी।
उनमें से कुछ ने अपने जाल फैला दिए थे।
'यहाँ पानी गहरा है!
देखिए.. खोइना देखिए.. कितना डूब जाता है।’ उसने बाँस को खोइना कहा था। वह
इससे खोने का काम करता था शायद इसीलिए। खोइना की डूब देखकर हमारी धमनियों में कुछ
जम गया था।
'इस जगह का कुछ नाम
होगा? ’ मोहन की
आवाज सहमी हुई थी।
'धमनी! ’ मुन्ना का जवाब आया।
'इस गहरे और ठहरे
पानी में मछलियाँ मिलती होगी!’ मैंने इकट्ठी
हुई डोंगियों को देखकर कहा।
'सिन्टी मिलती हैं!
’ उसने सामान्य भाव से कहा
पर मेरे लिए यह असामान्य था।
'यह क्या! मछली है?
’
'हाँ! ’
मैंने मोहन की ओर देखा
पर उसकी आँखों में अन्जानापन था। शायद मेरी भी।
'अब कजराए पानी लाल हो रहे हैं।’
मोहन ने अचंभित होते हुए
कहा।
'पानी नहीं बादल लाल
हो गया है। सूरज के कारण।’ मुन्ना ने खोइना चलाते हुए कहा। मैंने आसमान की ओर देखा। वह सूरज के
किरणपुंजों से लाल हो रहा था। उसकी परछाई पानी पर थी। अब हमारे पास दो आसमान थे एक
ऊपर और दूसरा नीचे। मुन्ना और मोहन की मुस्कानों की तरह।
आसमान पर आकर सफेद बादल
ठहर गए थे नदी में ठहरे जल की तरह। इन सफेद बादलों पर सूर्यास्त की लालिमा चढ़ गई
थी। आसमान पर मनोहारी होता समूचा दृश्य हम नदी पर देख सकते थे। जैसे यह नदी नहीं
कोई कलादीर्घा हो जिसमें दुनिया के महान कलाकारों की बनाई हुई पेन्टिंग्स सजा दी गई हों। इसमें मछली, मछुआरें, जाल, डोंगियाँ,
उस पर बैठे हुए डोंगीवाले, उनके हाथ में खोइना
और सूर्यास्त से इन सबकी लम्बी होती परछाइयाँ- इन सबको किसी चित्रकार ने अनेक
बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से जैसे ढाल दिया हो। इस पेंटिंग में जाल में फँसी
हुई एक उछलती हुई मछली चाँदी रंग में अलग से चमक रही थी। मुझे लगा शायद वही सिन्टी
हो।
पानी में लहरों की
झिलमिलाहट थी। इसमें कुछ चाँदी सी चमकती
छायाएँ थीं। एक क्षण को लगा कि जैसे आसमान में सफेद बगुले उड़ रहे हों। उनकी छाया
पानी में पड़ रही हो। हम उन नीचे चाँदी सी
चमकती छायाओं को देखकर मुग्ध हो रहे थे।
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हम घाट पर उतर चुके थे।
घाट पर ओम हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। उसके हाथ में झिल्ली थी। उस झिल्ली को
फैलाकर उसने दिखाया 'ये देखो
मछली! ’
वह मझोले आकार की थी। उसका बदन स्वस्थ और सुगठित
था। उसके चाँदी जैसे रंग थे। उसकी आँखों की जगह में जैसे दो मूँगे टाँक दिए गए
हों। उसके गले के पास एक वलय था जिससे वह झालरदार फ़्रॉक पहने हुए सी लग रही थी।
उसके होंठ गोल और खुले हुए थे जैसे थोड़ी देर में वह कोई सीटी बजाने वाली हो।
'यही सिन्टी है।‘।‘ मुन्ना
ने झिल्ली में झाँकते हुए कहा।
हम नदी की ढलान से ऊपर
झुरमुट से बने मंडप पर आ गए थे 'आज
बेटियाँ आने वाली हैं। बड़ी के आजकल दिन चल रहे हैं।’ ओम की आवाज थकी-थकी थी.. डूबते
हुए दिन की तरह। हम लौट चले जंगल के अँधेरे में राह टटोलते हुए एक नयी सुबह की आस
में।
दरवाजा खुला हमारे
सामने ओम की दोनों बेटियाँ थीं। 'ये
देखो सुन्दर प्यारी -सी मछली इसका नाम सिन्टी है।’ मेरे स्वर में उन्हें दिखाने का
उत्साह था।
'हाय इसका नाम भी
कितना प्यारा है! ’ यह
बड़ी की धीमी लेकिन चहकती हुई आवाज थी।
'दीदी जब तुम्हारी
गुडिय़ा होगी ना तब उसका नाम सिन्टी रखना।’ बड़ी से यह कहते हुए तब छोटी से
रहा नहीं गया। मुझे लगा कि हर लड़की के भीतर होती है एक मासूम सी छटपटाहट जल बिन
मछली की तरह।
सम्पर्क: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़, 491001, मो. 9407984014, vinod.sao1955 @gmail.com
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