- डॉ. सुधा
ओम ढींगरा
अमेरिका में हिन्दी एक विदेशी भाषा के रूप में जानी-पहचानी और पढ़ी जाती है; पर इसे इस स्वरूप तक लाने के लिए बहुत से भारतीयों
ने अथक परिश्रम किया है। विदेश में हिन्दी के लिए वातावरण बनाना और वहीं पर
जन्मे-पले बच्चों को माँ-बाप की भाषा सिखाना सरल कार्य नहीं। आज हिन्दी विद्यालयों
और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। इसके पीछे एक लम्बा संघर्ष है; जिसे बताने की आवश्कता इसलिए है कि पाठक जान पाएँ कि अमेरिका में हिन्दी
का कार्य किन-किन रास्तों से निकल कर किया गया है। अमेरिका में रह रहे भारतीयों ने
हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कई राहें अपनाई। हालाँकि भारतवासियों को वे राहें
बेमानी और बेमतलब की लगेंगी; पर उन राहों का अमेरिका में
हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बहुत योगदान है। एक तो विदेश की धरती, दूसरा अमेरिका का भौगोलिक फैलाव इतना है कि हिन्दी भाषी बिखरे हुए हैं और
जब तक उन्हें एक छत तले इकठ्ठा करके इसके बारे में चिन्तन-विमर्श न किया
जाए, तब तक हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना, कठिन कार्य था। पर उन्हें एक छत तले लाया कैसे जाए ? यह प्रश्न भी हर क्षण हिन्दी प्रेमियों के आगे खड़ा रहता था। इसे समझने और
समझाने के लिए कुछ दशक पहले के पृष्ठ पलटती हूँ।
सन् पचास और साठ के दशक में अमेरिका में हिन्दी
का प्रचार-प्रसार एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। भिन्न परिवेश और विदेशी भाषा के
साम्राज्य में अपनी भाषा को जिन्दा रख पाना दुष्कर था। भारतीय मूल के लोग भारत से
अपने साथ अनेक प्रतीक ले कर आए थे। इन प्रतीकों में शामिल थे -जीवन मूल्य, रीति-रिवाज़, पूजा- पद्धति,
भाषाएँ, खान -पान की आदतें और पारिवारिक
संरचना की परम्पराएँ। पहचान और स्थापना के संघर्ष ने उन्हें अपने में ही इतना उलझा
दिया कि नए परिवेश में आकर अस्तित्व की दौड़
जारी रखते हुए उनके कुछ प्रतीक तो बच गए, कुछ कमज़ोर
पड़ गए व कुछ बदल गए। नहीं बदला तो प्रवासी भारतीयों का पारंपरिक भाषा हिन्दी के
साथ प्राकृतिक सम्बन्ध और भावनात्मक लगाव। कुछेक विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई
जाने लगी थी। सन् 63 -64 और फिर 69-70
में अज्ञेय जी बर्कले में अतिथि प्रोफ़ेसर
बन कर आए थे। पर आम भारतीय और नई पीढ़ी की हिन्दी भाषा के प्रति चेतना शून्य में
ही टँगी रही। विश्वविद्यालयों में बहुत कम बच्चे हिन्दी पढऩे आते थे ।
सन् अस्सी तक आते-आते बच्चों को हिन्दी भाषा की तरफ
आकर्षित करने से अधिक गहन समस्या थी, हिन्दी भाषी परिवारों को हिन्दी के प्रति उनकी उस उदासीनता से उबारना,
जो संघर्ष और भिन्न परिवेश में कहीं अनजाने ही पनप गई थी। हिन्दी के
प्रति उनकी उदासीनता ही युवा पीढ़ी को हिन्दी से दूर ले जा रही थी; अत: हिन्दी के साथ उनके प्राकृतिक सम्बन्ध और नई पीढ़ी के लिए उन्हें सचेत
करना प्रमुख लक्ष्य नज़र आया। उसके लिए एक जुट होकर कार्य करना बहुत महत्त्वपूर्ण
था। बहुत से हिन्दी प्रेमी निस्वार्थ भाव से और तन, मन,
धन से उस हिन्दी भाषा के
प्रचार-प्रसार के लिए एकत्र हो गए, जो प्रवासी भारतीयों के
माथे की बिंदी, अस्मिता और पहचान है।

अमेरिका में अपने
वर्षों के प्रवास और हिन्दी के विभिन्न कार्यों से जुड़े होने और 1985 में यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाने के अनुभवों से
एक बात महसूस की थी वह यह है कि यहाँ के जन्मे- पले भारतीय मूल के छात्रों को
हिन्दी भाषा की तरफ तभी आकर्षित कर सकते हैं, अगर यह सहज और
सरल तरीके से उन तक पहुँचाई जाए। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी, सेंट
लुईस में हिन्दी पढ़ाते हुए एहसास हुआ कि भारतीय मूल के होते हुए भी, यहाँ के छात्र हिन्दी को विदेशी भाषा के रूप में सीखते हैं, अत: शुद्ध हिन्दी की बजाय सरल हिन्दी में उन्हें पढ़ाना पड़ा। मैंने जब
हिन्दी फिल्मों के गीतों और फिल्मों के उन दृश्यों का सहारा लिया, जिनसे मैं विद्यार्थियों को हिन्दी की शब्दावली, व्याकरण,
रिश्ते, महीने, वर्ष
आसानी से और जल्दी से सिखा सकी, तो कक्षा में बच्चों का
प्रवेश बढ़ गया। बहुत से अहिन्दी भाषी परिवारों के बच्चे भी हिन्दी कक्षाओं में
प्रवेश लेने लगे। गीतों में संस्कृति भी होती है और आसान से आसान ढंग से हिन्दी
पढ़ाने में फिल्मी गीतों का उपयोग कर मैंने यह पाया कि इस तरह से एक तो कक्षा
जीवन्त हो उठती थी और दूसरा व्याकरण उन्हें तुरंत समझ में आती थी।
अमेरिका में भाषाएँ
खेल-खेल में सिखा दी जाती हैं- मेरे सामने पब्लिक ब्राडकास्टिंग सर्विसिज़ (पी.
बी. एस.) के कार्यक्रम सेस मी स्ट्रीट का उदाहरण था,
जिसमें तरह-तरह की कठपुतलियाँ खेलतीं, आपस में
बातचीत करतीं और बच्चों को अंग्रेज़ी सिखा
जाती हैं। यह कार्यक्रम आज भी पी. बी. एस. पर चल रहा है। सन् 2003 में कोलंबिया विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका डॉ. अंजना संधीर ने एक
पुस्तक निकाली -Learn Hindi and Film Songs.यह पुस्तक New
York Life Insurance ने
छपवाई थी और इसकी दस हज़ार कापियाँ पूरे अमेरिका में बच्चों वाले परिवारों को
मुफ्त में उपलब्ध करवाई गईं। हिन्दी गानों की यह सशक्त विधा अमेरिका में
भाषा-शिक्षण के पाठ्यक्रमों में अधिक प्रभाव के साथ उभरी।
सन् अस्सी से नब्बे के
दशक में बड़े शहरों में तो हिन्दी सिनेमा थियेटर में दिखाया जाता था, पर छोटे शहरों में लोगों को यह सुविधा नहीं थी। हाँ
उन दिनों विडिओ प्लेयर बाज़ार में उपलब्ध हो गूँजने लगे फिल्मी गाने जो बच्चों को
आकर्षित करने लगे। उनकी रिदम तथा बीट उन्हें भाने लगी। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में
वे उन पर नाचने लगे.. और साथ ही उनके अर्थ और उच्चारण भी सीखने लगे..इसी समय
अमेरिका में कम्प्यूटर उद्योग में एक क्रांति आई। भारत से भारी संख्या में युवा
भारतीय अमेरिका आए और छोटे-बड़े शहरों के सिनेमा घर हिन्दी फिल्में देखने वालों से
भरने लगे। विश्वविद्यालयों में भी भारत से पढऩे आने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या
में वृद्धि हुई और साथ ही भारतीय मूल के छात्र भी सिनेमा घरों तक पहुँचने लगे व
धड़ल्ले से विश्वविद्यालयों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में फिल्मी गीत गाने लगे।
फिल्मी गीतों, लोक गीतों पर भाँगड़ा और गिद्धा होने लगा।
भारतीय मूल के छात्रों में एक भारी परिवर्तन आया। विभिन्न भाषा-भाषी परिवारों के
छात्र अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिन्दी के शब्द अपनी बातचीत में लाने लगे और हिन्दी
फिल्मों पर बातचीत होने लगी।
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी
समिति से तीन संस्थाओं ने जन्म लिया-अखिल विश्व हिन्दी समिति, हिन्दी न्यास और हिन्दी यू. एस. ए. अखिल विश्व
हिन्दी समिति और हिन्दी न्यास तो अमरीका के कवियों के कवि सम्मलेन करवाते हैं और
अखिल विश्व हिन्दी समिति कभी-कभी भारत से भी कवि बुला लेती है। हिन्दी यू. एस. ए. हर साल हिन्दी महोत्सव कार्यक्रम
करते हैं, जिसमें वे भारत से कवि बुला कर कवि सम्मलेन करवाते
हैं, पर यह कार्यक्रम मुख्य रूप से नई पीढ़ी का होता है।
इसमें 1500 बच्चों का कविता पाठ करवाया जाता है और सिर्फ 80 बच्चे उनमें से चुने जाते हैं।
हिन्दी महोत्सव से कई दिन पहले यह प्रतियोगिता शुरू हो जाती है। बच्चे जब कविता
सुनाते हैं, तो ऐसा महसूस होता है कि कवि सम्मेलनों का,
हिन्दी का भविष्य अमेरिका में सुरक्षित है और कविता कहने की यह विधा
और परम्परा युवा पीढ़ी में प्रचलित हो रही है। हिन्दी यू. एस. ए के 30 से ऊपर हिन्दी के स्कूल हैं जिनमें सिर्फ हिन्दी पढ़ाई जाती है,
3000 से अधिक विद्यार्थी हिन्दी पढ़ते हैं, 250 अध्यापक और 70 स्वयं सेवी हैं।
आज स्थिति यह है कि
अमरीका के हर शहर में प्रवासी भारतीय लघु भारत बसाए हुए हैं और विभिन्न भाषा-भाषी
आपसी संवाद के रूप में हिन्दी का प्रयोग अधिक कर रहे हैं हिन्दी के इस निरन्तर
बढ़ते प्रयोग के लिए हिन्दी सिनेमा और हिन्दी दूरदर्शन का योगदान अत्यंत
महत्त्वपूर्ण एवं सराहनीय है। विडियो टैक्नालोजी और उपग्रह रेडियो संचरण के माध्यम
से हज़ारों मील दूर बसे प्रवासी भारतीयों के घरों में आज भारतीय सिनेमा, टेलीविज़न और रेडियो सहज ही पहुँच रहे हैं। इस कारण
प्रवासी भारतीयों का अपने भारत से सम्बन्ध बराबर बना रहता है। वे सजीव समाचारों के
माध्यम से वहाँ की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति से भी अवगत रहते हैं। अपनी भाषा को
सीखने और सुरक्षित रखने की जागरूकता भी उनमें बढ़ गई है। हिन्दी पढऩे वाले
विद्यार्थियों की संख्या विश्वविद्यालयों में लगातार बढ़ती जा रही है और हिन्दी
में मास्टर और पी-एच•डी•करवाने की
कोशिश जारी है।
अमेरिका के
साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य को भी समृद्ध किया है। यहाँ के साहित्यकारों के 300 के करीब कविता- कहानी संग्रह और उपन्यास आ चुके
हैं। कई साहित्यकार साहित्य की मुख्य धारा का अंग बन चुके हैं।
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी
समिति की ओर से विश्व, हिन्दी
न्यास की तर$फ से हिन्दी जगत, अखिल
विश्व हिन्दी समिति की सौरभ और हिन्दी यूएसए की कर्म भूमि पत्रिकाएँ छपती हैं। अमरीका और कैनेडा के संयुक्त प्रयास से
हिन्दी प्रचारिणी सभा की पत्रिका हिन्दी चेतना पिछले 15
वर्षों से नियमित और निरन्तर छप रही है तथा स्तरीय पत्रिका के रूप में
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर रही है। यह सर्कुलेशन में सबसे अधिक है।
कैनेडा में हिन्दी
राइटर गिल्ड्स, हिन्दी साहित्य सभा
और हिन्दी परिषद् हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सक्रिय हैं। कैनेडा से हिन्दी
टाइम्स, हिन्दी एब्रॉड आदि साप्ताहिक समाचार पत्र निकलते
हैं। यूके से कथा यूके, यूके हिन्दी समिति संस्थाएँ हिन्दी
को समृद्ध कर रहीं हैं। यूके हिन्दी समिति ‘पुरवाई’ पत्रिका निकालती है। नार्वे में सुरेश चन्द्र शुक्ल आलोक
स्पाइल पत्रिका निकालते हैं। अन्य देशों में भी हिन्दी के विकास के लिए निरन्तर
प्रयास हो रहे हैं।
स्थानीय भाषाओं के
प्रभुत्व में इतने प्रयासों के बावजूद हिन्दी को युवा वर्ग की चेतना बनाने का
संघर्ष अभी भी जारी है।
2 comments:
बिलकुल ठीक लिखा आप ने ,विदेश में हिंदी भाषियों को इकठा करना अपने आप में एक चुनौती है ,मै भी यहाँ जापान में लगातार कोशिश कर रही हूँ ...
Great work for hindi and india
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