यथार्थ का दर्पण
उदन्ती का अगस्त अंक मिला। धन्यवाद! हमेशा की तरह सबसे पहले 'अनकही’ के अन्तर्गत 'ये कैसा
मध्याह्न भोजन है’ पढ़कर अभिभूत हो गई। सम्पादकीय तथ्यों का
खज़ाना और यथार्थ का दर्पण है ! ज्योत्स्ना प्रदीप
के हाइकु मार्मिक हैं। सुदर्शन रत्नाकर की
लघुकथाएँ हृदयस्पर्शी हैं, जिनमें 'घर
की लक्ष्मी’ ने ज़्यादा प्रभावित किया। डॉ. उर्मिला अग्रवाल
द्वारा 'झरे हरसिंगार’ की समीक्षा ताँका-संग्रह का पूरा परिचय देने में सक्षम है।
पत्रिका का अन्तिम लेख 'बापू ने नहीं मनाया आज़ादी का जश्न’
तो स्वर्णिम दस्तावेज़ है। काश! हमने बापू को 'राष्ट्रपिता’ का पद देने के साथ-साथ कुछ सीखा भी
होता तो आज के भारत की तस्वीर कुछ और ही होती ।
-डॉ. सुधा गुप्ता, साकेत, मेरठ
ज्यों-ज्यों निहारिए
...भ्रष्टाचार के शिकार मासूम बच्चे
उदंती का अगस्त अंक
सचमुच सुन्दर है। कविवर मतिराम के शब्दों में-
ज्यों-ज्यों निहारिए
नेरे ह्वै नैननि,
त्यों-त्यों खरी निकरै सी निकाई
विषय- सामग्री की
दृष्टि से भी अंक सार्थक है। अच्छी पत्रिका हर महीने निकालना कोई हँसी-खेल नहीं। आप यह कार्य बख़ूबी निभा रही हैं।
शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।
- डॉ.
गोपाल बाबू शर्मा, आगरा
(उ.प्र.)
इस अंक में प्रकाशित
अनकही में आपने सही कहा। भ्रष्टाचार ने मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ा। तमिलनाडु में जब मध्याह्न भोजन का कार्य सफलतापूर्वक
चल सकता है, तो अन्य प्रदेशों में क्यू नहीं? इसी तरह पाकिस्तान के प्रति भी कड़ा प्रतिकार आवश्यक है।
इसी अंक में अनिता जी के चिंतन- 'हम आजाद हैं’ में
उन्होंने सच कहा है कि हम आजाद हो कर भी गुलाम हैं। श्री राम के संस्कारों
को खोते जा रहें है। राम जी ने स्वय को भूलकर परहित के लिए जीवन जिया, मगर आज मानव ही मानवता की परिभाषा भूल गया। ज्वलंत समस्याओं पर चिंतन करवाने के लिए आपका
धन्यवाद।
-ज्योत्स्ना प्रदीप
-ज्योत्स्ना प्रदीप
...जवाब
किसी के पास नहीं है
अनिता जी चिंतन में आपने बड़ा भारी-भरकम सवाल किया है और इसका
ज़वाब तो आज के किसी नेता के पास भी नहीं है या कोई नेता इसका जवाब देना भी नहीं
चाहेगा जो। कुछ भी आपने पूछा है वो सिर्फ एक आम नागरिक से सम्बंधित है,
जो पहले भी गुलाम था और आज भी गुलाम है, लगता
है आगे भी रहेगा।
जब तक हमारी किस्मत में ऐसे नेता हैं- हाँ आज़ाद हैं,
आज के चोर-उचक्के, लुटेरे, डाकू, खूनी, बलात्कारी,
रिश्वतखोर, कामचोर, निकम्मे...
कोई रह गया है हो तो उसे भी गिन लो... बस एक आम आदमी को छोड़ कर, जो बेबसी से बस आज़ादी के ख़्वाब देख रहा है और अंत में इसी में दफ़न हो जाएगा...
काश मैं यहाँ गलत साबित हो जाऊँ... शुभकामनाएँ हर आम आदमी को जो अपने खुश होने की
आज़ादी चाहता है।
-अशोक सलूजा
दिल भर आया...
पल्लवी सक्सेना ने मेरे अनुभव स्तम्भ में विम्बलडन के बहाने
रोचक जानकारी प्रस्तुत की है। इसी अंक में सुदर्शन रत्नाकर की सभी लघुकथाएँ दिल को
छू गयीं... मुरलीधर वैष्णव जी आपकी कविता 'प्रिय बहना’ बहुत सुंदर है! काश! आप जैसा हर कोई
सोचे.... ज्योत्स्ना जी... इतने भावपूर्ण,
इतने मार्मिक हाइकु....सच में दिल भर आया... बहुत ही सुंदर
अभिव्यक्ति! खोज के अन्तर्गत 'नींद में खलल और याददाश्त’
बहुत अच्छी जानकारी है। धन्यवाद
- अनिता
संग्रहणीय अंक
हृदयनाथ मंगेशकर के
शब्दों में मुकेश दा के अंतिम दिनों की यादों को प्रस्तुत करके उदंती ने इस महान
गायक को स्मरण किया है। मुकेश दा को मेरा नमन। छत्तीसगढ़ की अनूठी परम्परा 'मितान बधई’ के बारे में क्या कहूँ लेखक डॉ.
कौशलेन्द्र इसके लिए बधाई के पात्र हैं, आज की पीढ़ी को इसके
बारे में बताया जाना चाहिए फ्रेंडशिप डे की परम्परा हमारे छत्तीसगढ़ में न जाने कब
से चली आ रही है। यात्रा संस्मरण में 'कच्छ के रन’ की जानकारी अच्छी लगी। इसमें कच्छ के
इतिहास और संस्कृति के बारे में कुछ और बातें जानने को मिलती तो अच्छा लगता।
- रश्मि वर्मा, भिलाई
सकारात्मक विचार
सुदर्शन जी आपकी सभी
लघुकथाएँ बहुत अच्छी लगीं। इनमें से घर की लक्ष्मी तो बहुत ही सुन्दर है। इसकी
सकारात्मक विचारधारा ने सास-बहू के रिश्ते को बहुत मधुर बना दिया है।
- मंजू
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