घर-परिवार की धूप-छाँव तले सुखद शाम
- प्रांजल कुमार
'घर
परिवार' कल्याणी
केशरवानी जी की पहली प्रकाशित कृति है। हालांकि अस्सी और नब्बे के दशक में उनके
पारिवारिक आलेख पत्र पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपते रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक
उन्हीं आलेखों का संग्रह है। उनके आलेखों में अपने और आस-पास घटने वाली घटनाओं का
सहज सरल विश्लेषण और निराकरण होता है ,जिससे आम पाठक उसे अपने परिवार की समस्या
मानकर खुश हो जाता था। घर है तो परिवार है ... और घर -परिवार में चार बर्तन है तो
उसमें टकराव होगा ही। परिवार में इगो, मतभेद, शंका-कुशंका और पति-पत्नी के झगड़े धीरे-धीरे इतने विकराल हो जाते हैं कि
परिवार बिखर जाता है और कभी कभी तो इसके
दुष्परिणम होते हैं। दहेज, भौतिक सुख -सुविधा की अनुलब्धता,
बच्चे नहीं हुए या लड़के की चाह में लड़कियों की फेहरिस्त आदि अनेक
कारणों से परिवार में अशांति हो जाती है और परिवार में पति-पत्नी अजनबी जैसे रहने
के लिए मजबूर होते हैं। किसकी चाह नहीं होती कि उसका पति उसक बेइन्तिहा चाहता रहे,
उसकी हर चाहत को खुशी खुशी पूरी करे लेकिन न जाने ऐसा क्या होता है
कि यह चाहत धरी रह जाती है। रोज-रोज की छोटी-छोटी समस्याएँ विकराल रूप धारण करके
परिवार की शांति में जहर घोल देता है। दिन भर के कामकाज के बाद दो घड़ी का सुकून
और प्रेम -भरा साथ भी दूभर हो जाता है ; क्योंकि वही चाहत जो कभी एक दूसरे के लिए
थी, अब कुछ और चाहने लगता है। इसके लिए लेखिका का सुझाव है
कि वैवाहिक सम्बन्धों को मधुर बनाए रखने और पति-पत्नी को खुश रखने की दिशा में
सबसे कारगर उपाय है संयम। गुस्सा किसे नहीं आता और जब आता है तो दूध के उफान की
तरह। मुँह से निकली बातें तरकश से निकले तीर की तरह वापस नहीं आती। ऐसे समय में
संयम से काम लिया जाए ,तो बात नहीं बिगड़ नहीं पाती। इस बात से इंकार नहीं किया जा
सकता कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में संयम अधिक होता है। घर को घर बनाए रखने
की चिंता भी उसी को अधिक होती है।
आज के भौतिकतावादी युग
में जहाँ पति-पत्नी दोनों को घर की चार दीवारी को लाँघने पर मजबूर कर दिया ,वहीं
परिवार को बड़े बूढ़ों और बच्चों से अलग कर दिया है। संयुक्त परिवार की बात अब
कपोल कल्पित लगते हैं। पत्नी सारा दिन खटने के बाद जब घर लौटती है तो बच्चे-बूढ़े
सब अपना बोझ उनके साथ शेयर करने को बेताब रहते हैं। थोड़ा- सा खाली समय जिसमें
बच्चों की देखरेख और ममता चाहिए, पति
को सेवा चाहिए, परिवार को व्यवस्था चाहिए और अतिथियों को
सत्कार...। थके पाँव, सीमित समय और चारों ओर व्यस्तता,
ऐसे में सुखद शाम की बात धरी की धरी रह जाती है। बड़े बुजुर्गो की
अनुभवी झिड़की और बच्चों को मन लुभावनी शरारतें भी बोझ लगने लगता है।
प्रस्तुत पुस्तक 'घर परिवार' में 28 पारिवारिक
आलेख संगृहीत हैं जो परिवार की विभिन्न समस्याओं को लेकर लिखी गयी है। अपने आलेखों
में कल्याणी जी ने सुखी और समृद्ध परिवार के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिए हैं ,जो
घर परिवार के छाँव तले सुखद शाम की बात को साकार करती है। इससे यह पुस्तक हर घर और
परिवारजन के लिए उपयोगी बन गई है। घर परिवार को रेखांकित करता पुस्तक का मुख पृष्ठ । इसे और आकर्षित
बनाता है।
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