उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Nov 24, 2012

जन्म शताब्दी वर्ष



मंटो- सुकून की तलाश और रचना
इधर मंटो की ये साहित्यिक गतिविधियाँ चल रही थीं और उधर उसके दिल में आगे पढऩे की ख्वाहिश पैदा हो गई। आखिर फरवरी 1934 को 22 साल की उम्र में उसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी।
अली सरदार जा$फरी से मंटो की मुलाकात यहीं हुई और यहाँ के माहौल ने उसके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया। उसने अफसाने लिखने शुरू कर दिए। तमाशा के बाद दूसरा अफसाना उसने इनकिलाब पसंद नाम से यहाँ आकर ही लिखा, जो अलीगढ़ मैगजीन में प्रकाशित हुआ।
यह मार्च 1935 की बात है। फिर तो सिलसिला शुरू हो गया और 1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, शीर्षक था आतिशपारे
अलीगढ़ में सारी दिलचस्पियों के बावजूद मंटो वहाँ अधिक नहीं ठहर सका और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गया।
वहाँ से वह लाहौर चला गया, जहाँ उसने कुछ दिन पारस नाम के एक अखबार में काम किया और कुछ दिन के लिए मुसव्विर  नामक साप्ताहिक का संपादन किया।
मगर उसे वहाँ सुकून नाम की कोई चीज मयस्सर नहीं हुई और थोड़े ही दिनों में लाहौर को अलविदा कहकर वह बंबई पहुँच गया। चार साल बंबई में बिताए और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फिल्मों के लिए लेखन करता रहा।
जनवरी 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरु किया। यहाँ मंटो सिर्फ 17 महीने रहा, लेकिन यह अर्सा उसकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था।
इस दौरान उसके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए आओ...,  मंटो के ड्रामे,  जनाजे  तथा तीन औरतें । उसके विवादास्पद अफसानों का मजमूआ धुआं और समसामयिक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह मंटो के मजामीन भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुए। मगर उसकी बेचैन रूह फिर उसे मुंबई खींच ले गई।
जुलाई 1942 के आसपास मंटो मुंबई आया और जनवरी 1948 तक वहाँ रहा। फिर वह पाकिस्तान चला गया। मुंबई के इस दूसरे प्रवास में उसका एक बहुत महत्वपूर्ण संग्रह चुगद प्रकाशित हुआ, जिसमें चुगद के अलावा उसका एक बेहद चर्चित अफसाना बाबू गोपीनाथ भी शामिल था।
पाकिस्तान जाने के बाद उसके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें 161 अफसाने संग्रहीत थे। इन अफसाने में सियाह हाशिए, नंगी आवाजें, लाइसेंस, खोल दो, टेटवाल का कुत्ता, मम्मी, टोबा टेक सिंह, फुंदने, बिजली पहलवान, बू, ठंडा गोश्त, काली शलवार और हतक जैसे तमाम चर्चित अफसाने शामिल हैं।
मुंबई के अपने पहले और दूसरे प्रवास में मंटो ने साहित्यिक लेखन के अलावा फिल्मी पत्रकारिता की और फिल्मों के लिए कहानियाँ व पटकथाएँ लिखीं, जिनमें अपनी नगरिया, आठ दिन व मिर्जा गालिब ख़ासतौर पर चर्चित रहीं।
के आसिफ ने जब पहले-पहल अनारकली के थीम पर फिल्म बनाने का फैसला किया, तो मंटो ने आसिफ के साथ मिलकर उसकी कहानी पर काफी मेहनत की थी, लेकिन उस वक्त फिल्म पर किन्हीं कारणों से काम आगे नहीं बढ़ सका था। बाद में जब उसी थीम पर मुगले-आजम  के नाम से काम शुरू हुआ, तो मंटो लाहौर जा चुका था।
यह एक इत्तेफाक ही है कि 18 जनवरी 1955 को जब लाहौर में मंटो का इंतकाल हुआ, तो उसकी लिखी हुई फिल्म मिर्जा गालिब दिल्ली में हाउसफुल जा रही थी।
मुकदमे
मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था, अपनी बयालीस साल, आठ महीने और सात दिन की जिंदगी में मंटो को लिखने के लिए सिर्फ 19 साल मिले और इन 19 सालों में उसने 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 खाके (शब्द चित्र) और 70 लेख लिखे।
लेकिन रचनाओं की यह गिनती शायद उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी महत्वपूर्ण यह बात है कि उसने 50 बरस पहले जो कुछ लिखा, उसमें आज की हकीकत सिमटी हुई नजर आती है और यह हकीकत को उसने ऐसी तल्ख जुबान में पेश किया कि समाज के अलंबरदारों की नींद हराम हो गई।
नतीजतन उसकी पांच कहानियों पर मुकदमे चले, जिनके क्रमवार शीर्षक हैं, काली शलवार, धुआं, बू, ठंडा गोश्त और ऊपर, नीचे और दरमियाँ। इन मुकदमों के दौरान मंटो की जिल्लत उठानी पड़ी।
अदालतों के चक्कर लगाने में उसका भुरकस निकल गया।, लेकिन उसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं रहा।
सआदत हसन मंटो की कहानियों की जितनी चर्चा बीते दशक में हुई है उतनी शायद उर्दू और हिंदी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है।
चेख़व के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली यानी उन्होंने कोई उपन्यास नहीं लिखा।
अपनी कहानियों में विभाजन, दंगों और सांप्रदायिकता पर जितने तीखे कटाक्ष मंटो ने किए उसे देखकर एक ओर तो आश्चर्य होता है कि कोई कहानीकार इतना साहसी और सच को सामने लाने के लिए इतना निर्मम भी हो सकता है, लेकिन दूसरी ओर यह तथ्य भी चकित करता है कि अपनी इस कोशिश में मानवीय संवेदनाओं का सूत्र लेखक के हाथों से एक क्षण के लिए भी नहीं छूटता।

No comments: