दो गजलें
-जहीर कुरेशी
रात भर स्वपन आते रहे,
नींद में भी जागते रहे।
प्रश्न थे कुछ असुविधा-जनक
मन ही मन सिर उठाते रहे।
लोग खुशियों को गाते समय,
आँसुओं को भी गाते रहे।
जिनको
लडऩा था अगला चुनाव,
वे समर्थन जुटाते रहे।
सारे दिन सोचे-समझे बगैर,
मेघ सूरज पे छाते रहे।
मौका मिलते ही मैदान में,
लोग छक्के जमाते रहे।
मन के भीतर अँधेरा रहा,
किन्तु, तन
जगमगाते रहे।
(दो)
लोग जो मुँह अँधेरा चले,
उनसे आगे सबेरे चले।
साँस घुटने लगी धूप की,
जब भी बादल घनेरे चले।
मछलियाँ फँसने के लिये,
जाल लेकर मछेरे चले।
'जैड
प्लस ' की
सुरक्षा के बाद-
उनको हथियार घेरे चले।
चेला-चोली चले नाचते,
जब भी संतों के डेरे चले।
मिल रहा है सियासत का साथ,
इसलिए भी लुटेरे चले।
भूखे ने जब विवश कर दिया,
साँप ले कर सपेरे चले।
संपर्क: 108 त्रिलोचन
टावर,संगम
सिनेमा के सामने,
गुरूबक्श की तलैया, स्टेशन रोड, भोपाल-462001
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