- डा. रत्ना वर्मा
संस्कृति की परिभाषा करना आसान काम
नहीं है। जितने दिमाग उतनी ही परिभाषाएँ। फिर भी, संस्कृति की एक सीधी सरल परिभाषा यह भी है-
संस्कृति समाज की आकांक्षाओं का समिष्ट योग होती है। मनुष्य की आकांक्षाएँ कुछ दीर्घकालीन और कुछ अत्पकालीन होती हैं।
दीर्घकालीन आकांक्षाएँ वे हैं जो मानवता का अस्तित्व सुरक्षित बनाये रखने से
संबंधित होती है,
अत: चिरस्थायी होती हैं। जबकि अल्पकालीन आकांक्षाएँ मानवीय
अस्तित्व को ऋतु काल के अनुसार सुखद बनाये रखने से संबंधित होती हैं अत: बदलती
रहती हैं समाज की संस्कृति की इमारत की नींव तो दीर्घकालीन मानवीय आकांक्षाओं की
बनी होती है और ऊपरी ढाँचा अल्पकालीन आकांक्षाओं से गढ़ा होता है जिस पर ऋतु काल
के अनुरूप रंग-रोगन बदलता रहता है।
इसी यथार्थ में निहित है हमारी अनुपम
संस्कृति की सम्पन्नता।
ऋतुएँ अपने विशिष्ट रंग के परिधान
धरा को पहनाती है। हम अपने पर्वो त्यौहारों में उन्हें परिलक्षित करते हैं। ठंडी
शीतल हवाओं से उड़ती वर्षा की फुहारों के बीच अमराई में पड़े झूले पर झूलते हुये, राधा-कृष्ण
के झूला गीत गाकर कृष्ण का जन्मोत्सव जन्माष्टमी मनाया जाता है। सावन की काली
अँधियारी रात में जन्माष्टमी पर कृष्णलीला की झांकिया सजा कर रास लीला आयोजित करके
हम अज्ञान के अँधेरे को अपने महानतम लोकप्रिय रसिक शिरोमणि पूर्वज की लीलाओं की
मधुर स्मृतियों के प्रकाश से मिटा देते हैं। हमारा तन-मन कृष्ण भगवान की
जनकल्याणकारी लीलाओं की गीत-संगीतमय स्मृति से उनके प्रति कृतज्ञतारूपी भक्ति-भाव
से भर उठता है तो हम अपने सभी पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का पर्व
पितर-पक्ष मनाने लगते हैं।
अपने पितरों को अर्पित कृतज्ञता के
अन्न-जल, फल-फूल
को जब हम धरती पर चारों ओर लहलहाती हरियाली खेतों में देखते हैं तो धरती माता की
अदम्य अथाह रचनात्मक शक्ति के प्रति आदर भाव से भर उठते हैं। चराचर की जननी
प्रकृति की इस असीम शक्ति की प्रतीक दुर्गा माँ है। हम दुर्गा पूजा का उत्सव
नव-रात्रि मनाते हैं और साथ ही साथ अपने मर्यादा पुरूषोत्तम पूर्वज सियावर राम की
स्मृति में रामलीला आयोजित करते हैं। महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा की पूजा हो या
कि 'मंगल
भवन अमंगल हारी'
भगवान राम द्वारा रावण वध की लीला हो, हम इनके
माध्यम से सत्य की असत्य पर विजय और पुरुषार्थ की शक्ति को अन्याय और दुष्टता के
दानवों का विनाश करने के परमार्थ में उपयोग की शाश्वत मानवीय आकांक्षाओं का स्मरण
करते हैं। इन त्योहारों के अवसरों पर आयोजित मेलों, उत्सवों से आनंद भी प्राप्त करते हैं।
हमारे पर्व त्योहार हमारी समृद्ध
संस्कृति के रत्नदीप हैं जो हमारे गौरवमय अतीत की जगमगाहट से हमारे मन से भयावह
आपदाओं- विपदाओं से उपजे अवसाद के अंधेरे को भगाकर हमें उज्जवल, समृद्ध, शक्तिशाली
कल्याणकारी और गौरवमय भविष्य की राह पर आगे बढऩे को प्रेरित करते हैं। अत: हमें
अपने तीज-त्योहारों की गौरवशाली विरासत को बड़ी निष्ठा और शालीनता से मनाकर सुरक्षित
रखने का धर्म निभाना चाहिये।
दीपावली हमारे तीज-त्योहारों की
बेजोड़ रत्नमालिका का सबसे चमकीला जगमगाता अनुपम रत्न है। दीपावली पर हमारे घरों
पर जगमगाते दिये,
रंग-बिरंगी अतिशबाजी, मिष्ठान्न हमारी दीर्घकालीन आकांक्षाओं को
प्रदर्शित करते हैं। उन्हीं के प्रतीक हैं गणेश जी और लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ
जिन्हें हम दीपावली पर पूजते हैं। गणेश जी ज्ञान के प्रतीक हैं और लक्ष्मी जी
समृद्धि की
अशिक्षा, अंधविश्वास
से उपजे अंधकार को नष्ट करने वाला ज्ञान का कल्याणकारी प्रकाश जो मानवों को आत्मबल
देकर पुरूषार्थ देता है। लक्ष्मी प्रकृति की वसुंधरा अर्थात् समृद्धि की प्रतीक
हैं। हमारी संस्कृति में ज्ञान और समृद्धि की संयुक्त पूजा अर्चना का विधान रखने
के पीछे हमारे महान पूर्वजों का उद्देश्य ही यही था कि हम सचेत रहें कि पूर्ण
समृद्धि ज्ञान प्राप्त करते रहने से ही मिलती है। ज्ञान का मार्ग ही समग्र समृद्धि
की ओर ले जाती है।
हमारे पूर्वजों के इस संदेश में
निहित ज्ञान की श्री का प्रकाश फैलाने का उत्तरदायित्व निभाने का सर्वोत्तम ढंग
होगा कि हम अपने आसपास बड़ी संख्या में उपलब्ध विषमताओं से उपजी दरिद्रता के कारण
श्रीविहीन लोगों में से कम से कम कुछ को तो साक्षरता की श्री से समृद्ध बनाने का
प्रण लें। और हाँ इसके पहले अपने घर में ही देखें कि अंधविश्वासों की कुरीतियों के
कारण शताब्दियों से अज्ञान के अंधकार में छटपटाती नारियों को शिक्षा के प्रकाश में
पूर्ण मानवीय श्रीयुक्त होने की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं या नहीं। जब मनुष्य के मन
में ज्ञान का दीपक जलता है तभी वह मानव बनता है ।
आप सबकी दीपावली मंगलमय हो ।
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