-नरेन्द्र देवांगन
प्रकृति और पर्यावरण के साझा अस्तित्व
में धरती पर मौजूद हर परिंदा खूबसूरत कविता के समान है। इस सच्चाई के बावजूद
मनुष्य की रूढि़वादी/प्रगतिशील सोच ने हजारों पक्षी प्रजातियों के अस्तित्व पर
तलवार लटका दी है। पिछले दो-तीन सालों से अंबाला-कालका राष्ट्रीय राजमार्ग पर
निर्माण में बाधा बने करीब एक लाख पेड़ों की कटाई के दौरान मारे गए परिंदों की
संख्या लाखों में है। लेकिन इस दौरान करीब चार दर्जन विभिन्न प्रजातियों के
उल्लुओं के शव इस लिहाज से चौंकाने वाले थे कि गिद्धों की भांति ही अब उल्लू भी
अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं।
धरती पर मौजूद 2500 पक्षी प्रजातियों
में से 1500 का अस्तित्व करीब तीन दशक पहले ही समाप्त घोषित किया जा चुका है।
उल्लुओं के सामूहिक संहार की यह घटना भी उस समय प्रकाश में आई जब मई 2009 में
अंतर्राष्ट्रीय पक्षी दिवस के अवसर पर दुनिया भर के पक्षी विज्ञानी अमरीका में
जुटे थे।
उल्लू के अस्तित्व पर मंडराते खतरे
पर इटली और स्वीडन के पक्षी वैज्ञानिकों द्वारा हाल में की गई खोजों में साफ तौर
से चेतावनी दी गई है कि यदि धरती से उल्लू जैसे बहुपयोगी परिंदे का अस्तित्व
समाप्त हो गया तो पूरी दुनिया में अंधाधुंध गति से बढ़ती चूहों की फौज खाद्यान्न
संकट की नई समस्या पैदा कर देगी। चूहों की बढ़ती फौज न केवल अन्न संकट पैदा करेगी
बल्कि प्लेग जैसी घातक बीमारी भी दोबारा अस्तित्व में आ सकती है।
उल्लू की शक्ल देखने में कुछ भयानक
तो अवश्य लगती है,
मगर इस बेहद चतुर और अक्लमंद पक्षी को मूर्ख मानना तथ्यों से
परे है। इसके शरीर की बनावट सुंदर नहीं होती मगर देखने और सुनने की क्षमता में यह
इंसानों से कहीं आगे है। उल्लू फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों जैसे चूहों, चमगादड़ों, टिड्डियों, सांप, छछूंदर व
खरगोश आदि का सफाया करके फसलों को बचाता है। शुद्ध मांसाहारी जीव होने के कारण
इससे फसलों के नुकसान की तो कृपना भी नहीं की जा सकती। वास्तव में उल्लू के घर में
बैठने, उसे
देखने, छूने
या बोलने से जुड़ी अपशकुन की बातें बेबुनियाद हैं। उल्लू व अन्य परिंदों के खात्मे
के दर्जनों कारण हैं।
इसमें मोबाइल फोन की भी भूमिका है। शहरों, कस्बों से
लेकर गांव-गांव में लगे मोबाइल फोन के बेशुमार टावरों से निकलने वाली तरंगों ने
पक्षियों के अस्तित्व पर प्रश्न चिंह लगा दिया है। उल्लुओं की प्रजातियों को
विलुप्ति के कगार तक पहुंचाने में पुराने वृक्षों की कटाई भी जिम्मेदार है क्योंकि
आम तौर पर उल्लू पचास-साठ साल पुराने वृक्षों के कोटरों में ही अंडे देना पसंद
करते हैं। अमरीका में जमा हुए पक्षीविदों ने इस बात पर गंभीर चिंता जाहिर की है कि
गगनचुंबी इमारतें तमाम परिंदों के लिए मौत का पैगाम साबित हो रही हैं। दरअसल पूरी
दुनिया में गगनचुंबी इमारतों में शीशे का प्रचलन बढऩे से पक्षियों के लिए समस्या
खड़ी हो गई है, क्योंकि
पक्षी इन शीशों में वृक्षों का प्रतिबिंब देखकर भ्रमित हो जाते हैं। वे प्रतिबिंब
को ही पेड़ समझकर उनमें शरण लेने आते हैं और खिड़कियों से टकराकर मारे जाते हैं।
हरियाणा के वन्य प्राणी विभाग के
मुख्य संरक्षक डॉ. परवेज अहमद बताते हैं कि भारत सहित कुछ एशियाई देशों में उल्लू
को लेकर प्रचलित अंधविश्वास, ओझाओं और तांत्रिकों के अनगिनत मनगढ़ंत
किस्से-कहानियों में उल्लू को अशुभ और मनहूस करार दिए जाने की वजह से उल्लुओं की
संख्या तेजी से घट रही है। यही वजह है कि उत्तरी राज्यों में उल्लू की घटती संख्या
की वजह से चूहे हर साल इतना अनाज नष्ट कर डालते हैं जो पूरे उत्तर प्रदेश की सवा
अठारह करोड़ की आबादी के लिए पर्याप्त होगा।
डॉ. परवेज के अनुसार स्ट्रिगाडी कुल
का पक्षी उल्लू एकांतवासी, बेहद चतुर, तेज-तर्रार और सटीक शिकारी है। यह शिकारी
परिंदा घोर अंधकार में भी किसी युवक की तुलना में सौ गुना अधिक देख और सुन सकता
है। करीब सत्तर साल तक जीवित रहने वाला उल्लू जीव जगत में ऐसा अकेला अपवाद है
जिसकी बड़ी-बड़ी और गोल आंखें इंसानों की तरह ठीक सामने होती हैं। इस कारण उल्लुओं
को अन्य परभक्षियों और प्रतिद्वंद्वी शिकारी पक्षियों से ज़्यादा खतरा नहीं होता
है।
जीव वैज्ञानिक परमिंदर कौर की राय
में रूढि़वादी परंपराओं से हटकर देखें तो उल्लू इस धरती पर सबसे सुंदर और श्रेष्ठ
निशाचर पक्षी है जिसकी लचीली आंखें 360 डिग्री कोण पर भी आसानी से घूम जाती हैं।
उल्लू अपनी आंखों में उपस्थित कुछ खास किस्म के रिफ्लेक्टरों की मदद से अपने शिकार
को बड़ी दूर से देख सकता है। इंसान से भी बड़ी आंखों के चलते वह मामूली प्रकाश में
भी बड़ी आसानी से अपने शिकार को देख सकता है। आंखों के समान ही उल्लू के कान भी
बेहद संवेदनशील होते हैं। ये अति संवेदी कान उल्लू की दिन में कम दिखाई देने की
खामी को बड़ी आसानी से पूरा कर देते हैं।
उत्तर भारत के प्रसिद्ध वन्य जीव
छायाकार संत अरोड़ा पच्चीस सालों से उल्लू जैसे निशाचर पक्षियों की गतिविधियों को
अपने कैमरे में कैद कर रहे हैं। वे चेतावनी भरे लहजे में कहते हैं कि आज तक कभी यह
नहीं सुना कि उल्लू ने किसी इंसान को नुकसान पहुंचाया हो, इसके
विपरीत इंसान ने उल्लू को विलुप्ति के कगार तक पहुंचा दिया है। संत अरोड़ा पंचकूला
में 2 मार्च 2009 की एक घटना का हवाला देते हुए कहते हैं कि सेक्टर 9 में ठगी की
वारदात में पुलिस ने जब एक तांत्रिक बाबा अजमल खान बंगाली पर मुकदमा दर्ज किया तो
उसने खुद कबूल किया कि उसने अनिष्ट निवारण की तांत्रिक क्रिया में सात उल्लुओं की
बलि चढ़ाई थी। इसके लिए सरकारी नियमों को जिम्मेदार ठहराते हुए संत अरोड़ा कहते हैं
कि, उदाहरण
के तौर पर, जब
भी जीव हत्या का कोई मामला सामने आता है, तो हरियाणा प्रदेश के वन्य प्राणी विभाग को
दोषियों को हिसार स्थित एकमात्र वन्य प्राणी अदालत में पेश करना पड़ता है। लिहाजा
स्टाफ कर्मियों के अभाव और कोर्ट के चक्कर से बचने के लिए वन्य प्राणी विभाग
ज़्यादातर मामलों को ले-देकर रफा-दफा कर देता है।
1972 के संशोधित वन्य प्राणी अधिनियम
के तहत उल्लू को संरक्षित और संकटग्रस्त प्रजाति घोषित किया गया है। इसके बावजूद
पंजाब, हरियाणा, हिमाचल
प्रदेश, राजस्थान, उत्तर
प्रदेश, बिहार
और मध्य प्रदेश में हर साल 15 से 20 हजार उल्लू तांत्रिक क्रियाओं की बलि चढ़ जाते
हैं। हरियाणा के जींद में स्थित कामाख्या देवी के कालीबाड़ी आश्रम के मुखिया
रामनारायण द्वारा किया गया खुलासा काफी चौंकाने वाला है। वे बताते हैं कि उल्लू के
शरीर का तापमान हर मौसम में स्थिर रहने की वजह से ही तंत्र साधना में उल्लू के
शरीर का हर अंग काम आता है। इसके पंखों को हासिल करने के लिए इसका शिकार किया जाता
है। कितने मामलों में तो उल्लू के बच्चे आंखें खोलने से पहले ही काल के मुंह में
चले जाते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा में बहेलिया प्रजाति के लोग उल्लुओं
के बच्चों को उनके कोटरों से निकालकर उन्हें 3 से 7 हजार रुपए प्रति उल्लू के
हिसाब से तांत्रिकों के हवाले कर देते हैं। एक तांत्रिक के अनुसार धन-वैभव की
प्रतीक लक्ष्मी को खुश करने, जमीन के नीचे के धन का पता लगाने, मृत्यु का
पूर्वाभास, दूसरे
की स्त्री को वश में करने तथा मारक वशीकरण जैसी मिथ्या और मनगढ़ंत तंत्र क्रियाएं
उल्लू की बलि चढ़ाए बिना कभी भी संपूर्ण नहीं होतीं। इसके अलावा दीवाली के अवसर पर
उल्लू के पंख जलाने, उल्लू के शरीर से तैयार भस्म को आंखों में लगाने और बच्चों को
बुरी नजर से बचाने वाली ताबीजों के नाम पर मक्कार तांत्रिक आम लोगों को बेवकूफ
बनाकर अपनी जेबें भर रहे हैं।
दीवाली के दिन पूजन और तांत्रिक
अनुष्ठान के लिए पश्चिम बंगाल के जंगलों में उल्लू की एक प्रजाति बार्न बाउल का
शिकार और उनकी तस्करी बढ़ गई है। धार्मिक मान्यताओं के अलावा इस उल्लू की आंखों, चमड़े और
पंखों का इस्तेमाल दवाइयां बनाने में होता है, खासकर, म्यांमार और चीन में। यूनानी और चीनी
दवाइयों में उल्लू की आंखों का खूब प्रयोग किया जाता है। युरोप के कुछ देशों में
भी बंगाल में पाए जाने वाले इस उल्लू की विशेष मांग है।
उल्लू को मारने की एक वजह यह है कि
इसके नाखून और चोंच को जलाकर एक प्रकार का तेल तैयार किया जाता है जो गठिया के
रोगियों की मालिश में काम आता है। वहीं देसी पद्धति से दवा तैयार करने वालों का यह
भी दावा है कि इसके मांस का उपयोग यौन उत्तेजक दवा तैयार करने में किया जाता है। कुछ
तांत्रिक विधानों में इनकी बलि से पुत्र प्राप्ति, बीमारी के उपचार, वशीकरण, नपुंसकता
जैसी समस्याओं के निदान का दावा किया जाता है जिससे छोटे कस्बों व शहरों की
मंडियों में इनकी मांग अधिक रहती है। उल्लू की आंख व अंडे की मांग तांत्रिक
क्रियाओं में सबसे अधिक होती है। तांत्रिक साधनाओं की किताब उल्लू तंत्र में उल्लू
की बलि द्वारा 150 तांत्रिक विधियों का उल्लेख है। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता
है कि तांत्रिक क्रियाओं की वजह से मंडियों में उल्लुओं की कितनी अधिक मांग है।
भारत में मिलने वाली 33 उल्लू प्रजातियों में बार्न आउल को लुप्तप्राय घोषित कर
दिया गया है। लेकिन बंगाल के जंगल बहुल इलाकों, खासकर बांग्लादेश की सीमा से सटे करीमपुर, नदिया के
चापरा व मुर्शिदाबाद के जलंगी, मालदा, पूर्व मेदिनीपुर के हल्दिया व अन्य इलाकों
में उल्लू की यह प्रजाति खूब पाई जाती है। ये गांव तस्करों का पसंदीदा इलाका बने
हुए हैं और स्थानीय ग्रामीणों के लिए इन उल्लुओं का शिकार रोजगार का एक माध्यम।
उल्लू के गैर कानूनी बाजारों में
सामान्यत: रॉक ईगल, ब्रााउन फिश, डस्की ईगल, बॉर्न आउल, कोलार्ड स्कॉप्स, मोटल्ड
वुड आदि प्रजातियों के उल्लुओं की अधिक मांग होती है।
तस्कर उल्लुओं को नेपाल और
बांग्लादेश के रास्ते अरब देशों को भेज देते हैं, जहां उसे बड़े चाव से खाया जाता है। भारत के
अलावा, नेपाल, बांग्लादेश, मलेशिया, थाईलैंड व
म्यांमार में इनके गैर कानूनी व्यापार के रैकेट सक्रिय हैं। विका प्रकृति निधि
द्वारा 2008 में जारी रिपोर्ट के अनुसार पिछले 6 सालों में उल्लू की कीमतों में दस
गुना वृद्धि हुई है जिससे गैर कानूनी व्यापार में भी इजाफा हुआ है। अंधविश्वास की
भेंट चढ़ता यह पक्षी अब अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। (स्रोत फीचर्स)
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