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Apr 21, 2012

छोटा जादूगर

छोटा जादूगर

                                                                                            -जयशंकर प्रसाद 
 उसने कहा-तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती। मैं आश्चर्य से उस तेरह- चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।
कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लड़का चुपचाप शराब पीने वालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा-क्यों जी, तुमने इसमें क्या देखा?
मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।- उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी।
मैंने पूछा-और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।
नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।
मैंने कहा-तो चल, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ। मैंने मन-ही-मन कहा-भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।
उसने कहा-वहाँ जाकर क्या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाय।
मैंने सहमत होकर कहा-तो फिर चलो, पहिले शरबत पी लिया जाय। उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया।
मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा-तुम्हारे और कौन हैं?
माँ और बाबूजी।
उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?
बाबूजी जेल में है।
क्यों?
देश के लिए। वह गर्व से बोला।
और तुम्हारी माँ?
वह बीमार है।
और तुम तमाशा देख रहे हो?
उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा-तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती।
मैं आश्चर्य से उस तेरह- चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।
हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँ जी बीमार है; इसलिए मैं नहीं गया।
कहाँ?
जेल में! जब कुछ लोग खेल- तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।
मैंने दीर्घ निश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा-अच्छा चलो, निशाना लगाया जाय।
हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिये।
वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद खाली नहीं गया। देखने वाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया, लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रुमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिए गये।
लड़के ने कहा-बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ। वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा-इतनी जल्दी आँख बदल गयी।
मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर- नीचे आना देखने लगा। अकस्मात किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा-बाबूजी!
मैंने पूछा-कौन?
मैं हूँ छोटा जादूगर।
कलकत्ते के सुरम्य बोटानिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी-झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मण्डली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने की खादी का झोला। साफ जाँघिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरी रुमाल सूत की रस्सी से बँधी हुई थी। मस्तानी चाल से झूमता हुआ आकर कहने लगा-
बाबूजी, नमस्ते! आज कहिए, तो खेल दिखाऊँ।
नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।
फिर इसके बाद क्या गाना-बजाना होगा, बाबूजी?
नहीं जी-तुमको...., क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमती ने कहा-दिखलाओ जी, तुम तो अच्छे आये। भला, कुछ मन तो बहले। मैं चुप हो गया, क्योंकि श्रीमती की वाणी में वह माँ की- सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका जा नहीं सकता। उसने खेल आरम्भ किया।
उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। बन्दर घुड़कने लगा।
गुडिय़ा का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते- हँसते लोट- पोट हो गये।
मैं सोच रहा था। बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।
ताश के सब पत्ते लाल हो गये। फिर सब काले हो गये। गले की सूत की डोरी टुकड़े- टुकड़े होकर जुट गयी। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा-अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जायँगे।
श्रीमती जी ने धीरे से उसे एक रुपया दे दिया। वह उछल उठा।
मैंने कहा-लड़के!
छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।
मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमती ने कहा-अच्छा, तुम इस रुपये से क्या करोगे?
पहले भर पेट पकौड़ी खाऊँगा। फिर एक सूती कम्बल लूँगा।
मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रूद्ध होकर सोचने लगा-ओह! कितना स्वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपये पाने पर मैं ईष्र्या करने लगा था न!
वह नमस्कार करके चला गया। हम लोग लता-कुंज देखने के लिए चले।
उस छोटे-से बनावटी जंगल में सन्ध्या साँय- साँय करने लगी थी। अस्ताचलगामी सूर्य की अन्तिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शान्त वातावरण था। हम लोग धीरे- धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।
रह- रहकर छोटा जादूगर स्मरण होता था। सचमुच वह एक झोपड़ी के पास कम्बल कन्धे पर डाले खड़ा था। मैंने मोटर रोककर उससे पूछा-तुम यहाँ कहाँ?
मेरी माँ यहीं है न। अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दिया है। मैं उतर गया। उस झोपड़ी में देखा, तो एक स्त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।
छोटे जादूगर ने कम्बल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा-माँ।
मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।
बड़े दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने आफिस में समय से पहुँचना था। कलकत्ते से मन ऊब गया था। फिर भी चलते- चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्छा हुई। साथ- ही- साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता, तो और भी..... मैं उस दिन अकेले ही चल पड़ा। जल्द लौट आना था।
दस बज चुका था। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ बिल्ली रूठ रही थी। भालू मनाने चला था। ब्याह की तैयारी थी, यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्नता की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्टा कर रहा था, तब जैसे स्वयं कँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्चर्य से देख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षण-भर के लिए स्फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा- आज तुम्हारा खेल जमा क्यों नहीं?
माँ ने कहा है कि आज तुरन्त चले आना। मेरी घड़ी समीप है।-अविचल भाव से उसने कहा।
तब भी तुम खेल दिखलाने चले आये! मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्य के सुख- दु:ख का माप अपना ही साधन तो है। उसी के अनुपात से वह तुलना करता है।
उसके मुँह पर वही परिचित तिरस्कार की रेखा फूट पड़ी।
उसने कहा-न क्यों आता!
और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था।
क्षण- भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गयी। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा-जल्दी चलो। मोटरवाला मेरे बताये हुए पथ पर चल पड़ा।
कुछ ही मिनटों में मैं झोपड़े के पास पहुँचा। जादूगर दौड़कर झोपड़े में माँ- माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था, किन्तु स्त्री के मुँह से, बे... निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गये। जादूगर उससे लिपटा रो रहा था, मैं स्तब्ध था। उस उज्ज्वल धूप में समग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्य करने लगा।
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 जयशंकर प्रसाद जी का जन्म माघ शुक्ल 10, संवत् 1946 वि. में काशी के सरायगोवर्धन में हुआ। किशोरावस्था के पूर्व ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण 17 वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई, किंतु बाद में घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान इनके संस्कृत के अध्यापक थे। इनके गुरुओं में रसमय सिद्ध की भी चर्चा की जाती है।
प्रसाद जी ने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग- बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध, साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में उन्होंने ऐतिहासिक महत्व की रचनाएँ कीं तथा खड़ी बोली की श्रीसंपदा को महान और मौलिक दान से समृद्ध किया। वे छायावाद के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव- अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पड़ा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पड़ा है, उतना दूसरों को नहीं। प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। क्षय रोग से प्रबोधिनी एकादशी सं. 1993 (15 नवंबर, 1936 ई.) को उनका देहांत काशी में हुआ। उदंती के इस अंक में प्रस्तुत है उनकी एक बेहद मर्मस्पर्शी कहानी छोटा जादूगर।

1 comment:

Devi Nangrani said...

Sach mein marmi kahani, apne tammam mool tatvon se pathak ko ant tak padhwane mein saksham rahi.
Ise Yahan pesh karne ke liye Ratna Verma ji badhayi ki paatr hai jo is prakar ka sahity pathkon ke samaksh laane ke liye
devi Nangrani