लुच्चों की दुनिया
- आलोक पुराणिक
यह
निबंध उस छात्र की कापी से लिया गया है, जिसे निबंध प्रतियोगिता में पहला
स्थान मिला है। निबंध प्रतियोगिता का विषय था- बोर्ड के एक्जाम्स।
बोर्ड
के एक्जाम फिर रिजल्ट, फिर परसेंटेज। परसेंटेज पे मार है। साधो जग बौराना।
यानी कबीरदास जी कहते हैं कि जग बौराया हुआ है, देखता नहीं है, सच क्या
है। सच हम बताता हूं। हमारे मुहल्ले के एक परिवार में तीन बेटे हैं।
टुच्चा, लुच्चा और सच्चा। सच्चा बहुत पढ़ाकू था, बोर्ड के एक्जाम्स बहुत
सीरियसली लिये। हंड्रेड परसेंट माक्र्स हर बोर्ड एक्जाम में। सच्चाजी को
परसेंटेज के बेसिस पे होटल मैनेजमेंट के कोर्स में एडमीशन मिल गया। बहुत मन
लगा कर पढ़ाई की आपने। इतने होशियार माने गये कि आपके बारे में सबकी राय
रही है कि बहुतै बेवकूफ टाइप आदमी हैं। पर हैं बहुत पढ़े लिखे। आप होटल
मैनेजर हुए। साल दर साल इस चिंता में उलझे रहे कि इस साल टीए डीए में
कित्ते बढ़ेंगे। मुन्नी का स्कूल एडमीशन, मुन्ने के स्कूल की फीस। तरह- तरह
की चिताएं इतनी गहरी रहीं कि सामाजिक कुछ कम हो पाये। सो कनेक्शन सही सैट
ना बने। जीवन या दफ्तर में कटा या तमाम तरह की लाइनों में, इसके बाद जो कुछ
भी बचा वह शिकायतों में कटा कि हाय ये देश क्या हो गया है, अब भले आदमियों
का गुजारा नहीं है। यद्यपि सच्चे जी की पूरी लाइफ गुजारे के जुगाड़ में ही
गुजरी। यूं इनकी लाइफ के बारे में यूं ही कह सकते हैं कि बस कट सी गयी।
बचपन
में ही इनके दिमाग में घुस गया था कि दारु पीना बुरी बात है। सो ये सारे
महानों की सोहबत से वंचित हो गये। शहर के जितने महान थे, वो सारे परस्पर एक
दूसरे से दारु पर मिलते थे। फिर एक मसला यह भी था कि चूंकि सच्चे जी बहुत
शरीफ थे, इसलिए वह व्यापक समाज में घुल मिल नहीं पाते थे। बड़े लोग आपस में
सुनाते थे कि कैसे थाईलैंड में मजे आये। और हमने लास वेगास में ये ये
किया। सच्चा जी के पास बताने को सिर्फ ये होता था कि हाय हाय देखो आलू
कितने महंगे हो गये हैं। मैं तो थोक मंडी तक गया, पर वहां भी इतने महंगे।
जीना कितना मुश्किल हो गया है। ऐसी बोरिंग बातें सुनकर सच्चाजी को बड़े लोग
भगा दिया करते थे। कुल मिलाकर सदाचार के मारे सच्चाजी का जीवन गहन कष्टों
में, छोटे लोगों में ही गुजरा।
पुत्र नंबर टू, लुच्चा जी, बचपन से ही
लुच्चे थे। लुच्चों की सोहबत में रहे, सारे बड़े आदमियों के लड़कों से
मैत्री रही। और साहब बड़े आदमी भी ऐसे ऐसे कि क्या कहो। किसी का बाप एसपी,
किसी का बाप नेता। किसी का बाप वाइस चांसलर। किसी के बाप की पान मसाले की
फैक्ट्री। किसी का बाप इनकम टैक्स कमिश्नर, जिसने अपने बेटे को बारह लाख की
मोटरसाइकिल दिलवायी। यानी लुच्चाजी बचपन से ही जिन लोगों के बीच बड़े हुए
वो काफी महत्वाकांक्षी थे। इनमें से किसी की इच्छा नौकरी का ना थी। या यूं
कहे कि नौकरी की इच्छा अगर होती तो काबिलियत ना थी। पर इन सब बच्चों के
पिताओं को पता था कि बच्चों को ठिकाने कैसे लगाना है यानी कैसे सही जगह पर
सैट करना है।
सो रिजल्ट ये हुआ कि पैसे वालों के, असरदार लोगों के
बच्चे, इन सबने मिलकर एक फाइव स्टार होटल खोला। बोर्ड के एक्जाम्स की
इन्होंने बहुत कम चिंता की, हमेशा पचास परसेंट के आसपास आये। बड़े आदमियों
के बच्चों के इनसे ज्यादा नंबर आ जायें, तो शिक्षा व्यवस्था पर शक करना
चाहिए कि वह भ्रष्ट हो चुकी है पूरे तौर पर। तो कुल मिलाकर लुच्चाजी की
सोहबत वाले ज्यादा पढ़े लिखे तो ना हुए पर फाइव स्टार होटल के मालिक हुए।
पुत्र
नंबर तीन टुच्चा जी, बचपन से ही एक्स्ट्रा क्यूरिकूलर गतिविधियों में
दिलचस्पी लेते थे। शहर के रोचक स्थलों पर आप पाये जाते थे। काल गर्ल के
अड्डों के बारे में आपको इनसाइक्लोपीडिया माना जाता था। शहर के तमाम धनी
मानी लोग आपके टच में बराबर रहते थे। धीमे- धीमे आप को इस विषय का महारथी
भी माना जाने लगा कि शहर में अफीम, हीरोईन वगैरह कहां मिलती हैं। इस
कारोबार में आपके संपर्क पुलिस वालों से हुए, नेताओं से हुए। आपने बहुत
कमाया। तरह- तरह से कमाया। कैरियर के शुरुआती दौर में भले ही आपको दलाल
टाइप आदमी कहा जाता रहा हो, पर अब तो आपको सब माननीय विधायक ही कहते हैं।
मतलब माननीय मंत्री तक आप हो गये। अपनी एक्स्ट्रा क्यूरिकुलर एक्टिविटीज के
चलते ही आप विधायक हुए और पर्यटन मंत्री हुए, होटल वगैरह के लाइसेंस देने
में आपकी बहुत चलती है।
यानी बोर्ड के एक्जाम्स को बहुत सीरियसली लेने वाले सच्चा, होटल मैनेजर हुए।
बोर्ड के एक्जाम्स को बहुत कम सीरियसली लेने वाले लुच्चा, होटल मालिक हुए।
बोर्ड एक्जाम्स की बिलकुल चिंता ना करने वाले टुच्चा पर्यटन मंत्री हुए और होटल वालों के सलाम स्वीकार करने लगे।
पर
जैसा कि कबीरदास ने कहा कि साधो, जग बौराना। जग बौराया हुआ है। बोर्ड के
एक्जाम्स की, पढ़ाई लिखाई की बहुत चिंता करता है। वैसे साधो जग बौराना का
एक और मतलब है- साधो, ये नार्मल वर्ड बोरिंग है। किराये, फीस, सेलरी,
इन्क्रीमेंट्स की चिकचिक। हमें साधुगिरी के कैरियर पर विचार करना चाहिए,
सुंदर चेलियां, सुंदर भवन, बड़ी कारों वाला साधुगिरी का कैरियर अत्यंत ही
धन व यश प्रदायक है। साधुगिरी के कैरियर के लिए भी बोर्ड एक्जाम्स की जरुरत
नहीं होती।
साधुगिरी का कैरियर भी परम नोट प्रदायक है। बड़े- बड़े
आगे पीछे घूमते हैं। फिर टीवी चैनल जब से ढेर सारे हो गये हैं, तब से तो
बाबागिरी का कैरियर और भी धांसू हो गया है। पर बचपन से देखा जाता है कि
बाबा बनने के प्रति आमतौर पर बालकों और बालिकाओं में कोई रुचि नहीं होती।
वो तो पारंपरिक कैरियरों में फंसकर चौपट होना चाहते हैं। इसलिए आवश्यक है
कि बाबागिरी के कैरियर को लेकर समाज में नयी चेतना का प्रसार किया जाये।
लोगों को बताया जाये कि कैसे बाबागिरी में अरबों खड़े किये जा सकते हैं।
पर
ऐसा हो नहीं पा रहा है। ये देश की शिक्षा का दुर्भाग्य है। देश की शिक्षा
तो सिर्फ क्लर्क बना रही है। होटल मालिक, होटल मंत्री या बाबा जैसा धांसू
कैरियर उसकी चिंता का विषय नहीं है। इसलिए कहा जाता है कि भारतीय शिक्षा
व्यवस्था ठीक नहीं है। यह बात विद्वान लोग कहते हैं और अब मैंने भी सिद्ध
कर दिया कि वो सही कहते हैं।
संक्षेप में इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि सच्चे नहीं लुच्चे ही टाप पर जाते हैं।
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