कहां गुम हो गई छत्तीसगढ़ी
जनजीवन की झलक ?
- भूपेन्द्र मिश्रा
जनजीवन की झलक ?
- भूपेन्द्र मिश्रा
छत्तीसगढ़ में फिल्म निर्माण का दौर 1964 से शुरु हुआ जब मनु नायक ने 'कहि देबे संदेश' का निर्देशन किया था। फिल्म की कहानी एक सामाजिक समस्या पर आधारित थी जिसमें जात-पात जैसे संवेदनशील विषय को प्रस्तुत किया गया था। इसके गीत- संगीत कर्णप्रिय थे। इसके बाद फिल्म 'घर द्वार' आई। और फिर एक लम्बे विराम के बाद जनता की नब्ज पर हाथ रखने आई 'मोर छईयां भुईयां' जो पूरे छत्तीसगढ़ में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गई। बाद की कुछ ही फिल्में सफल रहीं। 'मया' शब्द को लेकर भी कुछ फिल्में बनाई गईं जिसमें छत्तीसगढ़ी जनजीवन की झलक मिलती थी।
छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ी फिल्मों की बाढ़ आ गई। लेकिन इसे बनाने वाले वे लोग थे जो कभी गांव व ग्रामीण परिवेश से जुड़े हुए नहीं थे। वे छत्तीसगढ़ की संस्कृति उसकी आत्मा और यहां की सोंधी खूशबू से अवगत नहीं थे। अत: छत्तीसगढ़ की सही तस्वरी इन फिल्मों में नजर नहीं आई। गांव के सरल, सुलभ वातावरण में रहने वाली छत्तीसगढ़ की जनता की समस्या और यहां के लोक जीवन और लोक कला को सामने लाने के बजाय कुछ ऐसी फिल्मों का दौर चला जिनके शीर्षक पढऩे मात्र से वे छत्तीसगढिय़ों की हंसी उड़ाते हुए ऐसी तस्वीर जेहन में लाते हैं मानों छत्तीसगढ़ की जनता बेवकूफ हंै। उदाहरण के लिए 'लेडग़ा नं.१', 'जकहा', 'झकला' आदि कई ऐसे नाम हैं जो छत्तीसगढ़ का मजाक उड़ाते प्रतीत होते हैं।
जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। विकसित होता यह राज्य भले ही अभी अपने पिछड़ेपन और अपनी गरीबी से उबरने की कोशिश कर रहा हो लेकिन इस क्षेत्र की अपनी एक समृद्ध परंपरा और संस्कृति रही है। छत्तीसगढ़ के गांवों में आज भी पारिवारिक माहौल आपको देखने को मिल जाएगा। जो छत्तीसगढ़ की पहचान है।
इस राज्य में खून के रिश्तों के अलावा दोस्ती का रिश्ता इतनी मजबूती से जिंदा है कि यहां मित्र बनने और बनाने की एक परंपरा ही बन गई है। जिसे मितान बदना कहा जाता है। यह परंपरा छत्तीसगढ़ में सौहाद्र्र का प्रतीक बन चुका है। यहां की महिलाएं 'जवारा' मितान और गजामूंग आदि बद (मित्रता) कर जीवन भर दोस्ती का रिश्ता निभाती हैं जो पीढिय़ों तक जारी रहता है। गांव में एक घर में बनी सब्जी पड़ोस के हर दूसरे- तीसरे घर में मिल- बांट कर खाई जाती है।
समय के बदलाव के साथ यहां के गांव में भी बुराईयों ने अपना घर बना लिया है जैसे शराब का नशा लोगों की सेहत को नष्ट करते चले जा रहा है। बावजूद इसके आज भी कई गांव छत्तीसगढ़ में स्वर्ग जैसा वातावरण बनाए हुए हैं इसका ताजा तरीन उदाहरण है अभनपुर ब्लाक का एक गांव 'परसदा' जो आदर्श गांव के रूप में प्रसिद्ध है। इस गांव में न कोई शराब पीता न कोई अपराध होता है। लोग जाति- पाति से दूर भाईचारा के साथ रहते हैं। परसदा में दाऊ रामकृष्ण मिश्र ने बरसों पहले सौहाद्र्र का जो बीज बोया था वह आज भी लहलहा रहा है। इसी तरह सिमगा के पास खिलोरा गांव में ग्रामीण बड़े- छोटे के भेदभाव से दूर सामाजिक चेतना के साथ आगे बढ़ते हुए सच्चे भारतीय होने की बात गर्व से कहते हैं।
इस अंचल के गांवों में तीज त्यौहार पर बहन- बेटियों का अपने मायके आने का क्रम अटूट रहता है। जब वे बचपन की सहेलियों से मिलती है तो उनका प्यार, समर्पण ईश्वर के प्रेम से भी ज्यादा दिखाई पड़ता है। यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह के वातावरण को अभी तक किसी छत्तीसगढ़ी फिल्मों में क्यों नहीं दिखाया गया। क्यों नहीं इस तरह की पृष्ठभूमि पर किसी छत्तीसगढ़ी फिल्म की पटकथा लिखी गई?
दीपावली, दशहरे जैसे त्यौहारों पर गांव में जो आनंद का माहौल रहता है वह शहरों में कहां दिखता है। रावत बंधु जब दोहा कहते हुए राऊत नाचा नाचते हैं तो साक्षात कृष्ण युग साकार हो उठता है बिलासपुर का रौताही मेला छत्तीसगढ़ की शान है जिस ढंग से यादव बंधु सजते संवरते हंै व बाजे की धुन पर पूरे शहर व गांव में घर- घर जाकर नृत्य करते है, ऐसी संस्कृति हमारी फिल्मों का हिस्सा क्यों नहीं बन सकती। क्या कॉमेडी के नाम पर फूहड़ नाच- गान और अश्लील डायलाग ही सफलता का एकमात्र मूलमंत्र है?
अलग राज्य बनने के बाद प्रदेश ने प्रगति के कई सोपान पार किए हैं। पंचायती राज्य में महिलाएं तेजी से घर की चाहर- दीवारी से निकलकर अपने गांव का प्रतिनिधित्व कर रही हैं, शिक्षा के क्षेत्र में उसने कई उपलब्धि हासिल किए हंैं। खेलकूद व अन्य क्षेत्रों में गांव की लड़कियां आज शहर की बालिकाओं से कई समस्याओं से जूझने के बाद भी लोहा ले रही हैं। छत्तीसगढ़ की अकलतरा की ऋचा ने प्रथम आईएएस होने का गौरव प्राप्त किया हैं। रीता शांडिल्य भी इसी कड़ी में काफी मेहनत के बाद पहुंची हैं।
ऐसे विषयों पर छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों की नजर क्यों नहीं पड़ती? क्या सफलता के लिए बॉलीवुड की तर्ज पर उनकी फिल्मों में आइटम गाने ही जरूरी हैं, प्रदेश की कला संस्कृति और विकास की बातें कोई मायने नहीं? बॉलीवुड की तर्ज पर छालीवुड नाम रख लेने भर से बात नहीं बनती। एक ओर जहां प्रदेश की अपनी अनूठी सांस्कृतिक पहचान है वहीं इस प्रदेश की माटी में यहां के जनजीवन को शराब जैसी भयंकर बुराई ने बहुत नुकसान भी पंहुचाया है। यद्यपि हाल ही में छत्तीसगढ़ शासन इस बुराई को दूर करने की दिशा में गंभीरता से सोच रही है और प्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय डॉ. रमन सिंह जी ने शराब मुक्त प्रदेश के लिए काम करना शुरू कर दिया है।
उपरोक्त विषयों का यहां पर उल्लेख करने का तात्पर्य सिर्फ यही है कि ऐसे तमाम विषय को केन्द्र में रखकर भी एक मनोरंजक फिल्म का निर्माण छत्तीसगढ़ में किया जा सकता है। लोक जीवन के सांस्कृतिक पक्ष और समाज में पनप रही बुराईयों को रूपहले पर्दे पर प्रस्तुत करके जनता को जागरूक करने का काम भी तो फिल्मों के माध्यम से किया जा सकता है?
परंपरा, संस्कृति और समाज के विषय के अलावा छत्तीसगढ़ी फिल्म में हमारे क्षेत्रीय कलाकारों को भी घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों की नायिकाएं ज्यादातर उड़ीसा, झारखंड व बंबई से बुलाई जाती हैं। जिनको छत्तीसगढ़ी बोलने में अड़चन तो आती ही है साथ ही चूंकि वे छत्तीसगढ़ के संस्कारों से वंचित होते हैं तो क्षेत्रीयता का जैसा पुट आना चाहिए वह नहीं आ पता जबकि ऐसा नहीं है कि हमारे प्रदेश में स्थानीय कलाकारों की कमी है, जरुरत उन्हें पहचानने, महत्व देने और आगे लाने की है। पर कहते हैं न- घर का जोगी जोंगड़ा आन गांव के नाव.... कुछ ऐसा ही हाल हमारे छत्तीसगढ़ के कलाकारों का भी हो रहा है।
इन दिनों बन रही छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मनोरंजन के नाम पर कुछ भी दिखाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों में कहानी के रूप में पुरानी हिंदी व भोजपुरी फिल्मों का रीमेक किया जा रहा है। क्योंकि छत्तीसगढ़ में बनने वाली फिल्मों के लगातार फ्लॉप होने से इंडस्ट्री में निराशा छा गई है। शायद यही वजह है कि छत्तीसढ़ी में पहली फिल्म 'कहि देबे संदेस' बनाने वाले मनु नायक अपनी दूसरी फिल्म 'पठौनी' को बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले वर्ष दो दर्जन से भी अधिक फिल्में बॉक्स आफिस पर औंधे मुंह गिर चुकी हैं। फिल्मों में बदले अंदाज को देखते हुए पैसा लगाने से निर्माता कतराने लगे हैं। यहां तक की घाटे को पूरा करने के लिए निर्माता छत्तीसगढ़ी के साथ भोजपुरी में फिल्में बनाने को मजबूर हंै। तो क्या छत्तीसगढ़ी में अब सार्थक फिल्म नहीं बन पायेंगी?
संपर्क- रायपुर (छ.ग.), मो. 9993316225
छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ी फिल्मों की बाढ़ आ गई। लेकिन इसे बनाने वाले वे लोग थे जो कभी गांव व ग्रामीण परिवेश से जुड़े हुए नहीं थे। वे छत्तीसगढ़ की संस्कृति उसकी आत्मा और यहां की सोंधी खूशबू से अवगत नहीं थे। अत: छत्तीसगढ़ की सही तस्वरी इन फिल्मों में नजर नहीं आई। गांव के सरल, सुलभ वातावरण में रहने वाली छत्तीसगढ़ की जनता की समस्या और यहां के लोक जीवन और लोक कला को सामने लाने के बजाय कुछ ऐसी फिल्मों का दौर चला जिनके शीर्षक पढऩे मात्र से वे छत्तीसगढिय़ों की हंसी उड़ाते हुए ऐसी तस्वीर जेहन में लाते हैं मानों छत्तीसगढ़ की जनता बेवकूफ हंै। उदाहरण के लिए 'लेडग़ा नं.१', 'जकहा', 'झकला' आदि कई ऐसे नाम हैं जो छत्तीसगढ़ का मजाक उड़ाते प्रतीत होते हैं।
जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। विकसित होता यह राज्य भले ही अभी अपने पिछड़ेपन और अपनी गरीबी से उबरने की कोशिश कर रहा हो लेकिन इस क्षेत्र की अपनी एक समृद्ध परंपरा और संस्कृति रही है। छत्तीसगढ़ के गांवों में आज भी पारिवारिक माहौल आपको देखने को मिल जाएगा। जो छत्तीसगढ़ की पहचान है।
इस राज्य में खून के रिश्तों के अलावा दोस्ती का रिश्ता इतनी मजबूती से जिंदा है कि यहां मित्र बनने और बनाने की एक परंपरा ही बन गई है। जिसे मितान बदना कहा जाता है। यह परंपरा छत्तीसगढ़ में सौहाद्र्र का प्रतीक बन चुका है। यहां की महिलाएं 'जवारा' मितान और गजामूंग आदि बद (मित्रता) कर जीवन भर दोस्ती का रिश्ता निभाती हैं जो पीढिय़ों तक जारी रहता है। गांव में एक घर में बनी सब्जी पड़ोस के हर दूसरे- तीसरे घर में मिल- बांट कर खाई जाती है।
समय के बदलाव के साथ यहां के गांव में भी बुराईयों ने अपना घर बना लिया है जैसे शराब का नशा लोगों की सेहत को नष्ट करते चले जा रहा है। बावजूद इसके आज भी कई गांव छत्तीसगढ़ में स्वर्ग जैसा वातावरण बनाए हुए हैं इसका ताजा तरीन उदाहरण है अभनपुर ब्लाक का एक गांव 'परसदा' जो आदर्श गांव के रूप में प्रसिद्ध है। इस गांव में न कोई शराब पीता न कोई अपराध होता है। लोग जाति- पाति से दूर भाईचारा के साथ रहते हैं। परसदा में दाऊ रामकृष्ण मिश्र ने बरसों पहले सौहाद्र्र का जो बीज बोया था वह आज भी लहलहा रहा है। इसी तरह सिमगा के पास खिलोरा गांव में ग्रामीण बड़े- छोटे के भेदभाव से दूर सामाजिक चेतना के साथ आगे बढ़ते हुए सच्चे भारतीय होने की बात गर्व से कहते हैं।
इस अंचल के गांवों में तीज त्यौहार पर बहन- बेटियों का अपने मायके आने का क्रम अटूट रहता है। जब वे बचपन की सहेलियों से मिलती है तो उनका प्यार, समर्पण ईश्वर के प्रेम से भी ज्यादा दिखाई पड़ता है। यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह के वातावरण को अभी तक किसी छत्तीसगढ़ी फिल्मों में क्यों नहीं दिखाया गया। क्यों नहीं इस तरह की पृष्ठभूमि पर किसी छत्तीसगढ़ी फिल्म की पटकथा लिखी गई?
दीपावली, दशहरे जैसे त्यौहारों पर गांव में जो आनंद का माहौल रहता है वह शहरों में कहां दिखता है। रावत बंधु जब दोहा कहते हुए राऊत नाचा नाचते हैं तो साक्षात कृष्ण युग साकार हो उठता है बिलासपुर का रौताही मेला छत्तीसगढ़ की शान है जिस ढंग से यादव बंधु सजते संवरते हंै व बाजे की धुन पर पूरे शहर व गांव में घर- घर जाकर नृत्य करते है, ऐसी संस्कृति हमारी फिल्मों का हिस्सा क्यों नहीं बन सकती। क्या कॉमेडी के नाम पर फूहड़ नाच- गान और अश्लील डायलाग ही सफलता का एकमात्र मूलमंत्र है?
अलग राज्य बनने के बाद प्रदेश ने प्रगति के कई सोपान पार किए हैं। पंचायती राज्य में महिलाएं तेजी से घर की चाहर- दीवारी से निकलकर अपने गांव का प्रतिनिधित्व कर रही हैं, शिक्षा के क्षेत्र में उसने कई उपलब्धि हासिल किए हंैं। खेलकूद व अन्य क्षेत्रों में गांव की लड़कियां आज शहर की बालिकाओं से कई समस्याओं से जूझने के बाद भी लोहा ले रही हैं। छत्तीसगढ़ की अकलतरा की ऋचा ने प्रथम आईएएस होने का गौरव प्राप्त किया हैं। रीता शांडिल्य भी इसी कड़ी में काफी मेहनत के बाद पहुंची हैं।
ऐसे विषयों पर छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों की नजर क्यों नहीं पड़ती? क्या सफलता के लिए बॉलीवुड की तर्ज पर उनकी फिल्मों में आइटम गाने ही जरूरी हैं, प्रदेश की कला संस्कृति और विकास की बातें कोई मायने नहीं? बॉलीवुड की तर्ज पर छालीवुड नाम रख लेने भर से बात नहीं बनती। एक ओर जहां प्रदेश की अपनी अनूठी सांस्कृतिक पहचान है वहीं इस प्रदेश की माटी में यहां के जनजीवन को शराब जैसी भयंकर बुराई ने बहुत नुकसान भी पंहुचाया है। यद्यपि हाल ही में छत्तीसगढ़ शासन इस बुराई को दूर करने की दिशा में गंभीरता से सोच रही है और प्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय डॉ. रमन सिंह जी ने शराब मुक्त प्रदेश के लिए काम करना शुरू कर दिया है।
उपरोक्त विषयों का यहां पर उल्लेख करने का तात्पर्य सिर्फ यही है कि ऐसे तमाम विषय को केन्द्र में रखकर भी एक मनोरंजक फिल्म का निर्माण छत्तीसगढ़ में किया जा सकता है। लोक जीवन के सांस्कृतिक पक्ष और समाज में पनप रही बुराईयों को रूपहले पर्दे पर प्रस्तुत करके जनता को जागरूक करने का काम भी तो फिल्मों के माध्यम से किया जा सकता है?
परंपरा, संस्कृति और समाज के विषय के अलावा छत्तीसगढ़ी फिल्म में हमारे क्षेत्रीय कलाकारों को भी घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों की नायिकाएं ज्यादातर उड़ीसा, झारखंड व बंबई से बुलाई जाती हैं। जिनको छत्तीसगढ़ी बोलने में अड़चन तो आती ही है साथ ही चूंकि वे छत्तीसगढ़ के संस्कारों से वंचित होते हैं तो क्षेत्रीयता का जैसा पुट आना चाहिए वह नहीं आ पता जबकि ऐसा नहीं है कि हमारे प्रदेश में स्थानीय कलाकारों की कमी है, जरुरत उन्हें पहचानने, महत्व देने और आगे लाने की है। पर कहते हैं न- घर का जोगी जोंगड़ा आन गांव के नाव.... कुछ ऐसा ही हाल हमारे छत्तीसगढ़ के कलाकारों का भी हो रहा है।
इन दिनों बन रही छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मनोरंजन के नाम पर कुछ भी दिखाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों में कहानी के रूप में पुरानी हिंदी व भोजपुरी फिल्मों का रीमेक किया जा रहा है। क्योंकि छत्तीसगढ़ में बनने वाली फिल्मों के लगातार फ्लॉप होने से इंडस्ट्री में निराशा छा गई है। शायद यही वजह है कि छत्तीसढ़ी में पहली फिल्म 'कहि देबे संदेस' बनाने वाले मनु नायक अपनी दूसरी फिल्म 'पठौनी' को बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले वर्ष दो दर्जन से भी अधिक फिल्में बॉक्स आफिस पर औंधे मुंह गिर चुकी हैं। फिल्मों में बदले अंदाज को देखते हुए पैसा लगाने से निर्माता कतराने लगे हैं। यहां तक की घाटे को पूरा करने के लिए निर्माता छत्तीसगढ़ी के साथ भोजपुरी में फिल्में बनाने को मजबूर हंै। तो क्या छत्तीसगढ़ी में अब सार्थक फिल्म नहीं बन पायेंगी?
संपर्क- रायपुर (छ.ग.), मो. 9993316225
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