- अर्बुदा ओहरी
कचनार छायादार वृक्षों की श्रेणी में तो नहीं आता लेकिन इसके विषय में जानने के लिए इसकी छाँह में आना जरूरी है। कचनार सुंदर फूलों वाला वृक्ष है और परिसर में या रास्तों की शोभा बढ़ाने के लिए इसको लगाया जाता है और इसे सुंदरता की मिसाल के रूप में माना जाता है।
कचनार का वनस्पतिक नाम बहुनिया ब्लैकियाना है पर भारत में यह मुख्यतया कचनार के नाम से ही जाना जाता है। भारत में इसकी बारह से अधिक प्रजातियाँ मिलती हैं। प्रजाति अथवा भाषा के आधार पर इसे अलग- अलग नामों से पुकारा जाता है। मराठी में कोरल या कोविदार, बंगला में कांचन, तेलगु में यह देवकांचनमु कन्नड़ में केंयुमंदार, अंग्रेजी में माउंटेन एबोनी कहते हैं और संस्कृत में इसे कन्दला या कश्चनार। संस्कृत में इसके विभिन्न गुणों के आधार पर भी इसका नामकरण किया गया है जैसे गण्डारि जिसका अर्थ है चंवर के समान फूल वाला या कोविदार यानी विचित्र फूल तथा फटे पत्ते वाला। इसका वनस्पतिक नाम 1880 में हांगकांग के ब्रिटिश गवर्नर सर हेनरी ब्लेक के नाम पर रखा गया था। सर हेनरी ब्लेक जाने माने वनस्पतिशास्त्री थे जिन्होंने हांगकांग में अपने घर के पास समुद्र के किनारे पर कचनार को पाया था। फिर 1908 में बाटेनिकल व फारेस्ट्री विभाग ने सर ब्लेक के सुझाए नाम को सहमति दे दी, तब ही से कचनार की एक विशेष प्रजाति का नाम वानस्पतिक नाम बहुनिया ब्लैकियाना पड़ गया।
कचनार के पेड़ की खासियत इसकी पत्तियाँ होती हैं। दो भागों में बँटी इसकी पत्तियाँ एक मध्य रेखा से जुड़ी होती हैं यदि इसकी पत्ती को समतल सतह पर रखें तो यह ऊँट के पैर के समान की आकृति दिखती है। एक सामान्य पत्ती सात से दस से.मी. लंबी और दस से तेरह से.मी चौड़ी होती है। कुछ प्रजातियों की पत्तियाँ अपेक्षाकृत लंबी और पतली होती हैं इन पत्तियों के द्विदलीय सिरे गोल की बजाय नुकीले होते हैं।
कचनार की सदाबहार बहुनिया ब्लैकियाना प्रजाति गहरी बैंगनी गुलाबी होती है और नवंबर से मार्च तक खिलती है। यह इतना सुन्दर है कि कवियों के मन को भा जाता है, इसलिए कचनार के फूल से सुन्दरता की तुलना की जाती है। बहुनिया परपूरिया गुलाबी होता है और इसकी सुंगंध बहुत आकर्षक होती है। इसके फूल की पंखुरियाँ और पत्तियाँ दोनों ही अपेक्षाकृत लंबे होते हैं। बहूनिया वैरिगाटा की चार पंखुरियाँ बिलकुल हल्की गुलाबी होती हैं और एक पंखुरी बिलकुल गहरी गुलाबी। इसका पेड़ मध्यम आकार का होता है और पतझड़ में पूरी तरह से झड़ जाता है। रास्तों को सुंदर बनाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है, साथ ही यह मीठा गाने वाले पक्षियों को भी बहुत आकर्षित करता है। ब्राजील और पेरू में सफेद फूलों वाला एक बहुनिया पाया जाता है जो मधुमेह के इलाज के लिए बहुत अच्छा समझा जाता है। इसका नाम पेटा डि वेका है। एक और सफेद प्रजाति बहुनिया एक्युमिनाटा के नाम से जानी जाती है। इसका सफेद फूल आकार में बहुत छोटा होता है इसलिए इसे बौनी सफेद बहुनिया भी कहा जाता है। यह मलेशिया इंडोनेशिया तथा फिलिपीन में सुंदर वृक्षों के रूप में बहुतायत से उगाई जाती है।
हृदयाकार पत्तियों वाले कचनार के खूबसूरत फूल सदियों से हांगकांग को अपने हल्के जामुनी रंग से रंगे हुए है। कचनार को हांगकांग आर्किड ट्री के नाम से भी जाना जाता है। इसको हांगकांग के राष्ट्रीय फूल होने का सम्मान प्राप्त है और 1965 में हांगकांग के अर्बन काउंसिल ने इसे प्रतीक चिन्ह के रूप में भी अपना लिया है। यही नहीं 1997 तक तो इसके सुन्दर फूल को हांगकांग के झंडे में भी स्थान मिल गया और चीनी मुद्रा पर भी यह फूल नजर आने लगा। वैसे कचनार का फूल सफेद से लेकर गहरे गुलाबी- जामुनी रंग का हो सकता है अत: हांगकांग के लाल झंडे पर इसका रंग सफेद स्वीकृत किया गया। यही नहीं हांगकांग के डाक-विभाग ने भी इसको पर्याप्त सम्मान दिया है और बार- बार टिकटों पर इसकी सुंदर छवियों को स्थान मिला है। ऐसा माना जाता है कि यह हांगकांग का स्थानीय पेड़ है परंतु 1967 में ताईवान में भी इसे उगाया गया था। भारत के अत्यंत प्राचीन साहित्य में भी कचनार की उपस्थिति पाई जाती है।
पूर्व में बर्मा से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक कचनार को देखा जा सकता है। भारत में हिमालय की घाटी से लेकर दक्षिण तक कचनार की सुन्दरता को देख सकते हैं। इसका पेड़ 20 से 40 फीट लंबाई तक बढ़ता है वैसे कचनार की कई प्रजाति बेल या झाड़ी जैसी भी होती है। कचनार का पेड़ मिट्टी को बाँध कर रख सकता है तथा भूस्खलन को भी रोकता है। इस खासियत के कारण इसे बहुत सी जगह उगाया जाता है। पतझड़ के समय जब कचनार की पत्तियाँ झड़ जाती हैं तब इसमें फूल खिलते हैं। कच्ची कली कचनार की दिखने में जितनी प्यारी होती है उतनी ही स्वादिष्ट भी होती है तभी तो कचनार की कली का शोरबा तथा अचार भी बनाया जाता है। इसकी पत्तियों से पशुओं के लिए चारा बनाया जाता है, जो ताकत से भरपूर होता है। दुधारू पशुओं के लिए यह चारा खास फायदेमंद होता है। बहुनिया ब्लैकियाना को छोड़ कर कचनार की अन्य सभी प्रजातियों में फल भी आते है। कचनार की छाल भूरे रंग की होती है तथा लंबाई में जगह- जगह से कटी होती है। इसके तने में चीरा देने से गोंद का स्राव होता है, इस गोंद के भी बहुत से औषधीय गुण हैं।
कचनार को बहुत सी दवाइयाँ बनाने के उपयोग में भी लिया जाता है। इसकी जड़ें तथा छाल विभिन्न प्रकार के चर्म रोगों के इलाज तथा गेंग्रीन, अक्•िामा में काम आती हैं, इसे लेप्रोसी तथा अल्सर की तकलीफ में भी फायदेमंद माना जाता है। कचनार की एक प्रजाति बहुनिया फोरफिकाटा से मधुमेह की दवाई भी बनती है। कचनार की कली को सुखा कर उससे डायरिया, बवासीर तथा पेचिश की दवाएँ बनती हैं। घरेलू तथा पारंपरिक दवाइयों के साथ- साथ आयुर्वेदिक चिकित्सा में भी बहुनिया का विभिन्न रूप से उपयोग किया जाता है। पित्त विकार, खांसी, प्रदर, क्षय के लिए भी इसे काम में लिया जाता है। लसिका ग्रंथि यानी लिंफ नोड में यदि कोई तकलीफ हो तो कचनार बहुत ही फायदा करती है। कचनार के साथ गुगल को मिला कर ट्यूमर की दवाई भी बनाई जाती है। यहाँ तक कि मेलिग्नेंट केंसर जैसी गंभीर बीमारी के इलाज में इसका अद्भुत असर देखा गया है। गर्भाशय में फाइब्रोइड की समस्या तथा अंडाशय की सिस्ट के लिए भी ये दवाई बहुत आराम पहुँचाती है।
कचनार की वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के जंगल विभाग ने इसके बीज को सस्ते दामों में देने की शुरुआत की है। जिनके पास पशु हैं उनके लिए कचनार को उगाना खास फायदेमंद है तथा कचनार को सजावट के रूप में भी उगा सकते हैं। यह विभिन्न औषधि बनाने के काम में आता है और किसी भी प्रकार की जलवायु के अनुरूप खुद को ढाल लेता है।
लेखक के बारे में-
जन्म-10 नवम्बर 1978 को जोधपुर में।
शिक्षा- जोधपुर से एम एससी वनस्पति शास्त्र में।
कार्यक्षेत्र- बचपन से ही लेखन को अभिव्यक्ति का माध्यम पाया। कहानियाँ, कविताएँ तथा आलेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित। एक कहानी अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जयपुर इकाई, द्वारा पुरस्कृत। आकाशवाणी, जोधपुर के युववाणी कार्यक्रम में भी नियमित रूप से भागीदारी। संप्रति- पिछले कुछ समय से दुबई में । reply_arbuda@yahoo.com
यह इतना सुन्दर है कि कवियों के मन को भा जाता है, इसलिए कचनार के फूल से सुन्दरता की तुलना की जाती है। पतझड़ के समय जब कचनार की पत्तियाँ झड़ जाती हैं तब इसमें फूल खिलते हैं। कच्ची कली कचनार की दिखने में जितनी प्यारी होती है उतनी ही स्वादिष्ट भी होती है तभी तो कचनार की कली का शोरबा तथा अचार भी बनाया जाता है।
कचनार का वनस्पतिक नाम बहुनिया ब्लैकियाना है पर भारत में यह मुख्यतया कचनार के नाम से ही जाना जाता है। भारत में इसकी बारह से अधिक प्रजातियाँ मिलती हैं। प्रजाति अथवा भाषा के आधार पर इसे अलग- अलग नामों से पुकारा जाता है। मराठी में कोरल या कोविदार, बंगला में कांचन, तेलगु में यह देवकांचनमु कन्नड़ में केंयुमंदार, अंग्रेजी में माउंटेन एबोनी कहते हैं और संस्कृत में इसे कन्दला या कश्चनार। संस्कृत में इसके विभिन्न गुणों के आधार पर भी इसका नामकरण किया गया है जैसे गण्डारि जिसका अर्थ है चंवर के समान फूल वाला या कोविदार यानी विचित्र फूल तथा फटे पत्ते वाला। इसका वनस्पतिक नाम 1880 में हांगकांग के ब्रिटिश गवर्नर सर हेनरी ब्लेक के नाम पर रखा गया था। सर हेनरी ब्लेक जाने माने वनस्पतिशास्त्री थे जिन्होंने हांगकांग में अपने घर के पास समुद्र के किनारे पर कचनार को पाया था। फिर 1908 में बाटेनिकल व फारेस्ट्री विभाग ने सर ब्लेक के सुझाए नाम को सहमति दे दी, तब ही से कचनार की एक विशेष प्रजाति का नाम वानस्पतिक नाम बहुनिया ब्लैकियाना पड़ गया।
कचनार के पेड़ की खासियत इसकी पत्तियाँ होती हैं। दो भागों में बँटी इसकी पत्तियाँ एक मध्य रेखा से जुड़ी होती हैं यदि इसकी पत्ती को समतल सतह पर रखें तो यह ऊँट के पैर के समान की आकृति दिखती है। एक सामान्य पत्ती सात से दस से.मी. लंबी और दस से तेरह से.मी चौड़ी होती है। कुछ प्रजातियों की पत्तियाँ अपेक्षाकृत लंबी और पतली होती हैं इन पत्तियों के द्विदलीय सिरे गोल की बजाय नुकीले होते हैं।
कचनार की सदाबहार बहुनिया ब्लैकियाना प्रजाति गहरी बैंगनी गुलाबी होती है और नवंबर से मार्च तक खिलती है। यह इतना सुन्दर है कि कवियों के मन को भा जाता है, इसलिए कचनार के फूल से सुन्दरता की तुलना की जाती है। बहुनिया परपूरिया गुलाबी होता है और इसकी सुंगंध बहुत आकर्षक होती है। इसके फूल की पंखुरियाँ और पत्तियाँ दोनों ही अपेक्षाकृत लंबे होते हैं। बहूनिया वैरिगाटा की चार पंखुरियाँ बिलकुल हल्की गुलाबी होती हैं और एक पंखुरी बिलकुल गहरी गुलाबी। इसका पेड़ मध्यम आकार का होता है और पतझड़ में पूरी तरह से झड़ जाता है। रास्तों को सुंदर बनाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है, साथ ही यह मीठा गाने वाले पक्षियों को भी बहुत आकर्षित करता है। ब्राजील और पेरू में सफेद फूलों वाला एक बहुनिया पाया जाता है जो मधुमेह के इलाज के लिए बहुत अच्छा समझा जाता है। इसका नाम पेटा डि वेका है। एक और सफेद प्रजाति बहुनिया एक्युमिनाटा के नाम से जानी जाती है। इसका सफेद फूल आकार में बहुत छोटा होता है इसलिए इसे बौनी सफेद बहुनिया भी कहा जाता है। यह मलेशिया इंडोनेशिया तथा फिलिपीन में सुंदर वृक्षों के रूप में बहुतायत से उगाई जाती है।
हृदयाकार पत्तियों वाले कचनार के खूबसूरत फूल सदियों से हांगकांग को अपने हल्के जामुनी रंग से रंगे हुए है। कचनार को हांगकांग आर्किड ट्री के नाम से भी जाना जाता है। इसको हांगकांग के राष्ट्रीय फूल होने का सम्मान प्राप्त है और 1965 में हांगकांग के अर्बन काउंसिल ने इसे प्रतीक चिन्ह के रूप में भी अपना लिया है। यही नहीं 1997 तक तो इसके सुन्दर फूल को हांगकांग के झंडे में भी स्थान मिल गया और चीनी मुद्रा पर भी यह फूल नजर आने लगा। वैसे कचनार का फूल सफेद से लेकर गहरे गुलाबी- जामुनी रंग का हो सकता है अत: हांगकांग के लाल झंडे पर इसका रंग सफेद स्वीकृत किया गया। यही नहीं हांगकांग के डाक-विभाग ने भी इसको पर्याप्त सम्मान दिया है और बार- बार टिकटों पर इसकी सुंदर छवियों को स्थान मिला है। ऐसा माना जाता है कि यह हांगकांग का स्थानीय पेड़ है परंतु 1967 में ताईवान में भी इसे उगाया गया था। भारत के अत्यंत प्राचीन साहित्य में भी कचनार की उपस्थिति पाई जाती है।
पूर्व में बर्मा से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक कचनार को देखा जा सकता है। भारत में हिमालय की घाटी से लेकर दक्षिण तक कचनार की सुन्दरता को देख सकते हैं। इसका पेड़ 20 से 40 फीट लंबाई तक बढ़ता है वैसे कचनार की कई प्रजाति बेल या झाड़ी जैसी भी होती है। कचनार का पेड़ मिट्टी को बाँध कर रख सकता है तथा भूस्खलन को भी रोकता है। इस खासियत के कारण इसे बहुत सी जगह उगाया जाता है। पतझड़ के समय जब कचनार की पत्तियाँ झड़ जाती हैं तब इसमें फूल खिलते हैं। कच्ची कली कचनार की दिखने में जितनी प्यारी होती है उतनी ही स्वादिष्ट भी होती है तभी तो कचनार की कली का शोरबा तथा अचार भी बनाया जाता है। इसकी पत्तियों से पशुओं के लिए चारा बनाया जाता है, जो ताकत से भरपूर होता है। दुधारू पशुओं के लिए यह चारा खास फायदेमंद होता है। बहुनिया ब्लैकियाना को छोड़ कर कचनार की अन्य सभी प्रजातियों में फल भी आते है। कचनार की छाल भूरे रंग की होती है तथा लंबाई में जगह- जगह से कटी होती है। इसके तने में चीरा देने से गोंद का स्राव होता है, इस गोंद के भी बहुत से औषधीय गुण हैं।
कचनार को बहुत सी दवाइयाँ बनाने के उपयोग में भी लिया जाता है। इसकी जड़ें तथा छाल विभिन्न प्रकार के चर्म रोगों के इलाज तथा गेंग्रीन, अक्•िामा में काम आती हैं, इसे लेप्रोसी तथा अल्सर की तकलीफ में भी फायदेमंद माना जाता है। कचनार की एक प्रजाति बहुनिया फोरफिकाटा से मधुमेह की दवाई भी बनती है। कचनार की कली को सुखा कर उससे डायरिया, बवासीर तथा पेचिश की दवाएँ बनती हैं। घरेलू तथा पारंपरिक दवाइयों के साथ- साथ आयुर्वेदिक चिकित्सा में भी बहुनिया का विभिन्न रूप से उपयोग किया जाता है। पित्त विकार, खांसी, प्रदर, क्षय के लिए भी इसे काम में लिया जाता है। लसिका ग्रंथि यानी लिंफ नोड में यदि कोई तकलीफ हो तो कचनार बहुत ही फायदा करती है। कचनार के साथ गुगल को मिला कर ट्यूमर की दवाई भी बनाई जाती है। यहाँ तक कि मेलिग्नेंट केंसर जैसी गंभीर बीमारी के इलाज में इसका अद्भुत असर देखा गया है। गर्भाशय में फाइब्रोइड की समस्या तथा अंडाशय की सिस्ट के लिए भी ये दवाई बहुत आराम पहुँचाती है।
कचनार की वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के जंगल विभाग ने इसके बीज को सस्ते दामों में देने की शुरुआत की है। जिनके पास पशु हैं उनके लिए कचनार को उगाना खास फायदेमंद है तथा कचनार को सजावट के रूप में भी उगा सकते हैं। यह विभिन्न औषधि बनाने के काम में आता है और किसी भी प्रकार की जलवायु के अनुरूप खुद को ढाल लेता है।
लेखक के बारे में-
जन्म-10 नवम्बर 1978 को जोधपुर में।
शिक्षा- जोधपुर से एम एससी वनस्पति शास्त्र में।
कार्यक्षेत्र- बचपन से ही लेखन को अभिव्यक्ति का माध्यम पाया। कहानियाँ, कविताएँ तथा आलेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित। एक कहानी अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जयपुर इकाई, द्वारा पुरस्कृत। आकाशवाणी, जोधपुर के युववाणी कार्यक्रम में भी नियमित रूप से भागीदारी। संप्रति- पिछले कुछ समय से दुबई में । reply_arbuda@yahoo.com
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