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Feb 23, 2012

दो लघुकथाएँ

1. चाहत
मांझी काकी की फरमाबदार बेटियों के सागर से वो प्यास सारी जिन्दगी नहीं बुझी जो बेटे नाम की एक बूंद के अमृत से बुझती। हर पल उसकी जबान पर यही रहता बेटा होता तो और बात होती। शांति आंटी के दोनों बेटों की आज्ञाकारिता के बचपन से उनकी लड़कियों ने ऐसे किस्से सुने, पर आखिर में क्या हुआ कि श्रवण कुमार मां- बाप को अग्नि तक देने नहीं आ पाए। और उधर जमनाबाई का लड़का बहू उसे धक्के देकर हरिद्वार के आश्रम में छोड़ आए।
हालांकि मांझी काकी की पड़ोसन रुकमणी अपने बेटों के पास रह रही थी। क्योंकि जायदाद अभी उसके ही नाम थी, इतनी सी सच्चाई मांझी काकी नहीं समझना चाहती थी। किसी के भी बच्चा होने वाला होता उनकी आंखें मोतियों सी चमकने लगती यह कहते हुए देख लेना- बड़ी भागवान है, बेटा ही होगा। मांझी की देवरानी के दो लड़के थे, लेकिन समय की मांग के कारण आज$ादी से अलग रह रहे थे, पर मांझी की तो एक ही रट- भई उन्हें क्या कमी उनके तो दो- दो बेटे हैं। एक दिन मांझी काकी बीमार हो गईं, दोनों बेटियां उनके पास आ गईं, सेवा-सुश्रुसा करके उन्हें खड़ा किया। ऐसे में मोहल्ले से एक पड़ोसन आई- 'लो काकी मुंह मीठा कर लो राधव बाप बन गया है।' मांझी काकी ने लड्डू मुंह तक ले जाते हुए पूछा- 'क्या लड़का हुआ है।' पड़ोसन-'नहीं, काकी लक्ष्मी आई है घर में।' काकी के हाथ से लड्डू छूट गया।

2. पराया सम्मोहन

हिन्दी भाषा पर शोध कर रहे प्रो. माणक अभी बिस्तर पर लेटे ही थे कि पास के घर से दो नारियों की व्यथा उनके कान में पड़ी। एक कह रही थी -'नारी होने का दुख उठा रही हूं , जिसे देखो पीछे पड़ जाता है जैसे उसकी अपनी जागीर हो'।
दूसरी- 'हां यह सच है अपनी पत्नी में चाहे सब गुण मौजूद हों मगर भाती दूसरी ही है।'
पहली-'ये लोग यह नहीं समझते पराई स्त्री पराई ही रहेगी कभी इनकी हो नहीं पाएगी फिर भी मन- संतोष के लिए सिर मारते रहते है।'
दूसरी- 'कुछ लोगों की आदत होती है झूठन खाने की वह छूटती ही नहीं। दूसरे की थाली का व्यंजन सभी को अच्छा लगता है।'
यह बात प्रो. माणक का दिमाग मथ गई, उन्हें क्लू मिल गया था, तुरंत लिखने बैठ गए। उन्हें सब जगह अपना ही विषय नजर आता और हर बात विषयान्तर्गत। अत: उन्होंने हिन्दी भाषा व अंग्रेजी भाषा को घरवाली व बाहरवाली के रुप में ढाल लिया। अपने लेख में इन पंक्तियों पे जोर देकर लिखा 'हिन्दी (घरवाली) में स्फूर्ति है, तेजी है, लचक है और फिर भी लोग अंग्रेजी (बाहरवाली) के दीवाने हैं। अंग्रेजी पराई है कभी अपनी नहीं हो सकती फिर भी माथा मारे जा रहे है।'

संपर्क: ए -178, रिद्घि सिद्घि नगर ,कुन्हाड़ी, कोटा (राज.) 324008
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