
मकडिय़ों के जाले से बने गोल्डन सिल्क को हाथ से बुनकर बनाया गया यह संभवत: दुनिया में अपनी तरह का अनूठा बेशकीमती लबादा है। यह वस्त्र हथकरघे पर मैडागास्कर में पाए जाने वाले आर्ब नामक मकड़े से मिलने वाली रेशम से बुना गया है। इस वस्त्र को बनने में आठ वर्ष का समय लगा है।
इस लबादे का प्रदर्शन पिछले दिनों न्यूयार्क के संग्रहालय में किया गया था। शाल के लिए सिल्क निकालने में दस लाख गोल्डन आर्ब मकडिय़ों इस्तेमाल में लाई गईं। ये मकडिय़ां मेडागास्कर द्वीप में पाई जाती हैं। गोल्डन आर्ब प्रजाति की मादा मकडिय़ां ही सिल्क का उत्पादन करती हैं। इस सिल्क का धागा सुनहरा और बेहद मजबूत होता है।
गोडली ने कहा, मुझे लगता है हमने दुनिया के समक्ष कला और इंसानी कोशिशों का बेहतरीन नमूना पेश किया है। यह मकड़ी जहरीली नहीं होती। इस कारण इन्हें पालना आसान होता है। बुनकर इनके जालों को अलग कर सिल्क का धागा तैयार करते हैं। एक मकड़ी चार सौ यार्डस (करीब 365 मीटर) सुनहरा धागा बनाने में सक्षम होती है। गोडली ने बताया कि 14 हजार मकडिय़ां मिलकर 2.6 पाउंड (करीब सवा किलो) धागा तैयार करती हैं। पीयर्स ने बताया कि उनकी जानकारी में मकड़ी के सिल्क से आज तक सिर्फ दो वस्त्र बनाए गए हैं जो सिर्फ कुछ सेमी लंबे हैं। वे फ्रांस के लियोंस संग्रहालय में रखे हुए हैं।
...और बदल गई भिखारी बच्चे की तकदीर!

कभी रेलगाडिय़ों में झाडू लगाकर भीख मांगने वाले बच्चे शेरू की तकदीर ने ऐसी करवट ली कि घर से बिछड़ कर वह ऑस्ट्रेलिया के एक करोड़पति दंपत्ति के घर गोद चला गया। 25 साल में उसने वह सब कुछ पाया, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी लेकिन कमी थी तो सिर्फ अपनी माँ की। माँ की ममता उसे सात समंदर पार महलों से अपने झोपड़े में खींच लाई।
खंडवा के गणेशतलाई क्षेत्र की गरीब बस्ती में फिल्मों की तर्ज पर हुए इस वाकये ने सबको अचंभे में डाल दिया। हुआ यूँ कि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला एक विदेशी युवक महंगा मोबाइल और एक पुरानी तस्वीर हाथ में लिए फातमा बी यानी अपनी माँ का घर ढूंढ रहा था। उस युवक और फातमा का क्या सम्बन्ध है यह किसी को भी समझ नहीं आया...इस बीच लोगों ने उसे फातमा के घर पहुंचा दिया। जैसे ही मां- बेटे आमने सामने हुए पच्चीस साल पहले बिछड़े बच्चे ने अपनी माँ को तुरंत पहचान लिया, वहीं माँ को भी अपने कलेजे के टुकड़े को पहचानने में कोई देर नहीं लगी।
माँ कमला उर्फ फातमा का कहना है कि हमारे दिन बहुत गरीबी में गुजरे। उसके पिता मुंशी खान ने उसे बच्चों सहित छोड़ दिया था। बेहद गरीबी में बच्चे ही टे्रन में झाड़ू लगाते हुए भीख मांगकर परिवार का पेट पाल रहे थे। एक दिन ट्रेन में शेरू को पता नहीं कब झपकी लग गई और नींद में वह कलकत्ता चला गया, इधर उसका बड़ा भाई गुड्डू बुरहानपुर के पास ट्रेन से गिरकर कट गया।
शेरू को कलकत्ता में नवजीवन नामक संस्था ने नया जीवन दिया उसे कुछ दिन वहां रखने के बाद ऑस्ट्रेलिया की एक करोड़पति संतानहीन दंपत्ति को गोद दे दिया। उसका नाम शेरू से सारू ब्रिएर्ले हो गया। केनबेरा विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट होने के बाद सारू ने अपने पिता जॉन ब्रिएर्ले की अग्रोबेस इंडस्ट्री का कामकाज संभाला।
इतना सब बदल जाने के बाद भी सारू के दिमाग में खंडवा की यादें बराबर बनी हुई थीं। सारू ने गूगल पर खंडवा को खोज निकाला। अपनी माँ और परिवार से मिलना यकीनन ऊपर वाले का चमत्कार ही है। आज सारू के पास सुख- सुविधाओं की कोई कमी नहीं है उसका आलीशान बंगला है, महंगी निसान कार है और ब्रिएर्ले दंपत्ति का भरपूर प्यार भी पर जन्म देने वाली माँ से मिलने की छटपटाहट ही थी कि उसे खंडवा खींच ही लाई।
इस लबादे का प्रदर्शन पिछले दिनों न्यूयार्क के संग्रहालय में किया गया था। शाल के लिए सिल्क निकालने में दस लाख गोल्डन आर्ब मकडिय़ों इस्तेमाल में लाई गईं। ये मकडिय़ां मेडागास्कर द्वीप में पाई जाती हैं। गोल्डन आर्ब प्रजाति की मादा मकडिय़ां ही सिल्क का उत्पादन करती हैं। इस सिल्क का धागा सुनहरा और बेहद मजबूत होता है।
गोडली ने कहा, मुझे लगता है हमने दुनिया के समक्ष कला और इंसानी कोशिशों का बेहतरीन नमूना पेश किया है। यह मकड़ी जहरीली नहीं होती। इस कारण इन्हें पालना आसान होता है। बुनकर इनके जालों को अलग कर सिल्क का धागा तैयार करते हैं। एक मकड़ी चार सौ यार्डस (करीब 365 मीटर) सुनहरा धागा बनाने में सक्षम होती है। गोडली ने बताया कि 14 हजार मकडिय़ां मिलकर 2.6 पाउंड (करीब सवा किलो) धागा तैयार करती हैं। पीयर्स ने बताया कि उनकी जानकारी में मकड़ी के सिल्क से आज तक सिर्फ दो वस्त्र बनाए गए हैं जो सिर्फ कुछ सेमी लंबे हैं। वे फ्रांस के लियोंस संग्रहालय में रखे हुए हैं।
...और बदल गई भिखारी बच्चे की तकदीर!

कभी रेलगाडिय़ों में झाडू लगाकर भीख मांगने वाले बच्चे शेरू की तकदीर ने ऐसी करवट ली कि घर से बिछड़ कर वह ऑस्ट्रेलिया के एक करोड़पति दंपत्ति के घर गोद चला गया। 25 साल में उसने वह सब कुछ पाया, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी लेकिन कमी थी तो सिर्फ अपनी माँ की। माँ की ममता उसे सात समंदर पार महलों से अपने झोपड़े में खींच लाई।
खंडवा के गणेशतलाई क्षेत्र की गरीब बस्ती में फिल्मों की तर्ज पर हुए इस वाकये ने सबको अचंभे में डाल दिया। हुआ यूँ कि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला एक विदेशी युवक महंगा मोबाइल और एक पुरानी तस्वीर हाथ में लिए फातमा बी यानी अपनी माँ का घर ढूंढ रहा था। उस युवक और फातमा का क्या सम्बन्ध है यह किसी को भी समझ नहीं आया...इस बीच लोगों ने उसे फातमा के घर पहुंचा दिया। जैसे ही मां- बेटे आमने सामने हुए पच्चीस साल पहले बिछड़े बच्चे ने अपनी माँ को तुरंत पहचान लिया, वहीं माँ को भी अपने कलेजे के टुकड़े को पहचानने में कोई देर नहीं लगी।
माँ कमला उर्फ फातमा का कहना है कि हमारे दिन बहुत गरीबी में गुजरे। उसके पिता मुंशी खान ने उसे बच्चों सहित छोड़ दिया था। बेहद गरीबी में बच्चे ही टे्रन में झाड़ू लगाते हुए भीख मांगकर परिवार का पेट पाल रहे थे। एक दिन ट्रेन में शेरू को पता नहीं कब झपकी लग गई और नींद में वह कलकत्ता चला गया, इधर उसका बड़ा भाई गुड्डू बुरहानपुर के पास ट्रेन से गिरकर कट गया।
शेरू को कलकत्ता में नवजीवन नामक संस्था ने नया जीवन दिया उसे कुछ दिन वहां रखने के बाद ऑस्ट्रेलिया की एक करोड़पति संतानहीन दंपत्ति को गोद दे दिया। उसका नाम शेरू से सारू ब्रिएर्ले हो गया। केनबेरा विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट होने के बाद सारू ने अपने पिता जॉन ब्रिएर्ले की अग्रोबेस इंडस्ट्री का कामकाज संभाला।
इतना सब बदल जाने के बाद भी सारू के दिमाग में खंडवा की यादें बराबर बनी हुई थीं। सारू ने गूगल पर खंडवा को खोज निकाला। अपनी माँ और परिवार से मिलना यकीनन ऊपर वाले का चमत्कार ही है। आज सारू के पास सुख- सुविधाओं की कोई कमी नहीं है उसका आलीशान बंगला है, महंगी निसान कार है और ब्रिएर्ले दंपत्ति का भरपूर प्यार भी पर जन्म देने वाली माँ से मिलने की छटपटाहट ही थी कि उसे खंडवा खींच ही लाई।
No comments:
Post a Comment