
उदंती के इस अंक से हम एक नयी शृंखला की शुरूआत कर रहे हैं जिसके अंतर्गत हर बार किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको जानकारी दी जाएगी। इस 'एकल ब्लॉग चर्चा' में ब्लॉग की शुरुआत से ले कर अब तक की सभी पोस्टों के आधार पर उस ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय रश्मि प्रभा जी अपने ही अंदाज में करवायेंगी। आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। तो आज मिलिए ... पूजा उपाध्याय के ब्लॉग http://laharein.blogspot.com से - रश्मि प्रभा
कुछ लोग रूह को हथेलियों पर उठाकर लिखते हैं- कुछ ऐसे एहसास कि कितनों की रूह उस रूह के इर्द- गिर्द खड़ी हो कहती है-
'यह तो मुझे कहना था...' पूजा उपाध्याय के एहसास ऐसे ही सगे लगते हैं, यूँ कहें जुड़वाँ। पढ़ते- पढ़ते कई बार ठिठकी हूँ, कभी आँखें शून्य में टंग गई हैं, कभी हथेलियाँ पसीज गईं... सच पूछिए तो कई बार गुस्सा भी आया- 'मुझसे आगे तुम कैसे लिख गई' फिर एक स्नेहिल मुस्कान चेहरे पर रूकती है- कुछ पल ब्लॉग के पन्ने पर मुस्कुराती पूजा को देखती हूँ - इश्क, अश्क, ओस, बारिश, हवाएँ... ऐसे ही सहज चेहरों के पास मुकाम पाते हैं। सच कह दो तो शरीर, दिल, दिमाग कमल की तरह खिल जाते हैं... कहीं कोई काई नहीं, खुरदुरी बुनावट नहीं, न ही आँखों को मिचिआती तेज रौशनी, न कोई सीलन... एक मोमबत्ती, पिघलता मोम, हल्की रौशनी के घेरे- खुदा बहुत करीब होता है।
2007 से पूजा ने लिखना शुरू किया, नि:संदेह ब्लॉग पर। ब्लॉग पर आने से पहले तितली बन कई कागजों पर उतरी ही होगी, ख्वाबों के कितने इन्द्रधनुष बनाये होंगे। अपने ब्लॉग के शुरूआती पन्ने पर पूजा ने लिखा है-
'कितना कुछ है जो मेरे अन्दर उमड़ता घुमड़ता रहता है कितना कुछ कहना चाहती हूँ मैं कितना कुछ बताना चाहती हूँ मैं, ये कौन सा कुआँ हैं, ये कौन सा समंदर है कि जिसमें इतनी हलचलें होती रहती है' पढ़कर मैं भी सतर्कता के साथ अपने भीतर के कुँए और समंदर को ढूँढने लगती हूँ... वह समंदर- जहाँ कई बार सुनामी आया और टचवुड मेरी कई बेवकूफियों को बहा ले गया। पर सोचती हूँ- बेवकूफियों में ही रिश्ते चलते हैं, पर सामने अगर समझदारी हो, स्वार्थ व्यवहारिकता हो तो इकतरफा बेवकूफ पागल हो जाता है। खैर ये कहानी फिर सही...
2008 की दहलीज पर भी कई एहसास कई मुद्राओं में बैठे मिले.... सबसे मिली, कुछ उनसे सुना, कुछ सुनाया और उठा लायी कुछ पंक्तियाँ, कवयित्री की सोच से परे मैं उन पंक्तियों में समा गई, जाने कितने ख्याल पलकों तले गुजर गए -
'आलसी चांद
आज बहुत दिनों बाद निकला
बादल की कुर्सी पे टेक लगा कर बैठ गया
बेशरम चाँद
पूरी शाम हमें घूरता रहा' ....
अपने ख्यालों में डूबी कवयित्री ने सोचा नहीं होगा कि इस आलसी चाँद के आगे कितने शर्माए चेहरे खुद में सिमटते खड़े होंगे। बात तेरी जुबां से निकली हो या मेरी जुबां से- ख्वाब तो कितनों के होते हैं।
किसी राह से गुजरते हमारे ख्याल, हमारी परछाई मिले होंगे... एक ही ट्रेन में सफर किया होगा, भागते दृश्यों से एक लम्हा तुमने तोड़ा तो मैंने भी तोड़ा- रहे अजनबी, पर एहसास? कहा तो उसने, पर कैसे कहूँ ये मेरे नहीं?
'एक सोच को जिन्दा रखने के लिए बहुत मेहनत लगती है, बहुत दर्द सहना पड़ता है, फिर भी कई ख्याल हमेशा के लिए दफन करने पड़ते हैं... उनका खर्चा पानी उसके बस की बात नहीं।'
2009 की पोटली से एक रचना उठती हूँ- कोई कम नहीं किसी से, पर जहाँ आँखें ठहर गईं, उसे छू लिया और ले आई-
एक लॉन्ग ड्राइव से लौट कर
जाने क्या है तुम्हारे हाथों में
कि जब थामते हो तो लगता है
जिंदगी संवर गई है...
बारिश का जलतरंग
कार की विन्ड्स्क्रीन पर बजता है
हमारी खामोशी को खूबसूरती देता हुआ
कोहरा सा छाता है देर रात सड़कों पर
ठंड उतर आती है मेरी नींदों में
पीते हैं किसी ढाबे पर गर्म चाय
जागने लगते हैं आसमान के बादल
ख्वाब में भीगे, रंगों में लिपटे हुए
उछल कर बाहर आता है सूरज
रात का बीता रास्ता पहचानने लगता है हमें
अंगड़ाईयों में उलझ जाता है नक्शा
लौट आते हैं हम बार बार खो कर भी
अजनबी नहीं लगते बंगलोर के रस्ते
घर भी मुस्कुराता है जब हम लौटते हैं
अपनी पहली लॉन्ग ड्राइव से
रात, हाईवे, बारिश चाय
तुम, मैं, एक कार और कुछ गाने
जिंदगी से यूँ मिलना अच्छा लगा...
जिन्दगी से यूँ मुलाकात आपने भी की होगी, रख दिया होगा हाथ बेतकल्लुफी से कानों पर, लम्बे रास्ते छोटे होते गए होंगे... खुली आँखों इश्क को जीते गए होंगे।
पूजा के ब्लॉग से मेरी मुलाकात नई नहीं, पर जब भी इसके दरवाजे खोले हैं- यूँ लगता है अभी- अभी कोई ताजी हवा इधर से गुजरी है, सब नया नया खास- खास लगता है... जैसे 2010 का यह कमरा।
कोई गुनगुना रहा है या मेरी धड़कनें गा रही हैं... मेरी जाँ मुझे जाँ न कहो...नहीं यह है पूजा का कमरा, जहाँ उसकी धड़कनें कह रही हैं, 'जान'... तुम जब यूँ बुलाते हो तो जैसे जिस्म के आँगन में धूप दबे पाँव उतरती है और अंगड़ाइयां लेकर इश्क जागता है, धूप बस रौशनी और गर्मी नहीं रहती, खुशबू भी घुल जाती है जो पोर पोर को सुलगाती और महकाती है। तुम्हारी आवाज पल भर को ठहरती है, जैसे पहाडिय़ों के किसी तीखे मोड़ पर किसी ने हलके ब्रेक मारे हों और फिर जैसे धक से दिल में कुछ लगता है, धड़कनें तेज हो जाती हैं साँसों की लय टूट जाती है। इतना सब कुछ बस तुम्हारे 'जान' बुलाने से हो जाता है... एक लम्हे भर में। तुम जानते भी हो क्या? तो, मुझे यूँ जाँ ना कहो...
ख्वाबों के संग यूँ ही मेरा उठना बैठना रहता है, दिन हो या रात सुबह हो या शाम एक ख्वाब मेरे संग चलता ही है, उसपे करम ऐसे ब्लॉग के जो मुझे न देंगे जीने...
2011 की शाख पर पूजा ने कई कंदील जलाये, एहसासों के आगे कोई अँधेरा न हो - इसका ध्यान रखा, या... चलो, एक कंदील के उजाले में पढ़ें-
आपने देखा है किसी लड़की में दो नदियाँ ? न देखा हो तो देखिये-
'मेरे अन्दर दो बारामासी नदियाँ बहती हैं। दोनों को एक दूसरे से मतलब नहीं... अपनी- अपनी रफ्तार, अपना रास्ता... आँखें इन दोनों पर बाँध बनाये रखती हैं, पर हर कुछ दिन में इन दोनों में से किसी एक में बाढ़ आ जाती है और मुझे बहा लेती है।'
मुझे मालूम है इसे पढऩे के बाद कईयों को अपने अन्दर की नदी का पता मिल जायेगा!
2012 ने तो अभी घूँघट उठाया ही है... और गले में प्यास की तरह अटके थे (हैं)
सिर्फ तीन शब्द-l love you, l love you, l love you
यह ब्लॉग है या एक नशा है एहसासों का... घूंट- घूंट जी के देखिये, शब्द- शब्द आँखों की हलक से उतार के देखिये- हिचकी हिचकी हिचक हिचकी हो न जाना, ख्वाबों की गली में तू याद बनके खो न जाना...
संपर्क: निको एन एक्स, फ्लैट नम्बर- 42, दत्त मंदिर,
विमान नगर, पुणे- 14, मो. 09371022446
http://lifeteacheseverything.blogspot.in
2 comments:
आदरणीय रश्मि जी की कलम से पूजा जी को पढ़ना अच्छा लगा ... आपका यह प्रयास सराहनीय है ... इस बेहतरीन शुरूआत के लिए ...आभार सहित शुभकामनाएं ।
निसंदेह पूजा जी बेहतरीन लिखती हैं। मैंने हाल ही में उनको पढऩा शुरू किया है। उनके शब्द बातें करते जान पड़ते हैं। इस कॉलम की शुरुआत उनसे हो रही है यह बड़े संयोग की बात है। एक शानदार पत्रिका (उदंती) के नए कॉलम में उन्हें जगह मिली इसके लिए पूजा जी को बधाई।
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