- लोकेन्द्रसिंह कोट
क्या इसे चमत्कार नहीं कहेंगे कि हमारी आधी जनसंख्या को सिर्फ एक समय का भोजन नसीब होता है, इसके बाद भी वे जी रहे हैं? तीस प्रतिशत लोगों के ऊपर छत के नाम पर सिर्फ नीली छतरी है? इसे चमत्कार नहीं कहेंगे कि आज दिनांक एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचार के कांड हुए और किसी को सजा तो दूर, वे सारे आपके और हमारे देश की मुख्य धारा से बेखौफ जुड़े हुए हैं? क्या यह चमत्कार नहीं है कि देश के न्यायालयों में न्याय के लिए इतनी अर्जियां दर्ज हैं कि अगर उन्हें निपटाने का बीड़ा उठाया जाय तो पूरे पचास साल लग जाएंगे और जिन्हें आज न्याय की सख्त जरुरत है वे तब तक बूढ़े हो जाएंगे या मर जाएंगे? क्या यह चमत्कार नहीं है कि आज भी औरतों को सार्वजनिक रुप से डायन करार दिया जाता है और उन्हे नंगा कर घुमाया जाता है? क्या यह चमत्कार नहीं है कि जब भी कोई युवा अपने ही सामने आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियां उड़ाते व धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल और सार्थक होते देखते हुए भी अधिकांशत: पश्चिम की भांति इतने विकृत नहीं हुए हैं? क्या यह भी चमत्कार नहीं है कि देश की सरहद पर या अन्य जगह सैकड़ों सिपाही आतंकवादियों के हाथों शहीद हो रहे रहे हैं और इसके बाद भी माँएं अपने सपूतों को सेना में भेज रही हैं? और क्या यह चमत्कार नहीं है कि कई कर्ता- धर्ताओं ने भावनाओं, खेल एवं देश को भी व्यवसाय में तब्दील कर दिया है लेकिन दूर एक कस्बे में आज भी एक मां अपने बच्चे को यह बोलने के लिए कह रही है कि, 'दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है।'कुल मिलाकर प्रतिकूलता की अधिकता, अनुकूलता की कमी और कोई अन्य विकल्प नहीं होने की दशा में हर नई बात में चमत्कार की आशा रखना बेमानी भी तो नहीं है। बकौल शायर -
'उम्र बीती सदियां गुजरी लेकिन,
है वही फिर भी अक्ल का बचपन।'
समाज के प्रतिष्ठित एवं प्रतिनिधित्व करने वाले शख्सों द्वारा समाज के प्रति प्रतिबद्धताओं की आशा की जाती है क्योंकि वे अपने अनुजों के लिए 'रोल मॉडल' होते हैं, जैसे कि एक परिवार में उस परिवार के वरिष्ठ होते है। भावनाओं के बाद सैद्धांतिक रुप से देश के कायाकल्प में इन्हीं योगदान होता है। लेकिन यहां आकर जुड़ जाता है एक लम्बा सा अफसोस। हमारे रोल मॉडलों में से अधिकतर वही बिखरे हुए व्यक्तिव के मालिक होते हैं। और वे जो विरासत में देंगे वही तो 'केरी फारवर्ड' होगा। अब आप और हम साथ- साथ सोच सकते हैं कि जैसे 'रोल मॉडल' होंगे, वैसे ही उनके अनुज...। यह अफसोस तो बढ़कर और भी लंबा हो जाता है जब हमें पता चलता है कि पिछले चार दशकों में गांधी, नेहरू, तिलक आदि जैसी कोई विभूति हमारी पथ- प्रदर्शक नहीं बन सकी।
'....वो अच्छा' और '....वो बुरा' के परीक्षक हम जीवनभर बने रहते हैं, लेकिन हम स्वयं की श्रेष्ठता का प्रमाण अर्थात हमारी ओर उठने वाली नजरों को हमेशा नजरअंदाज करते रहते हैं। बस, हमारी नजरें अच्छे आदमी की खोज में लगी रहती हैं, हम अपना भला भर चाहते हैं। 'भला करो तो भला मिलेगा' वाली उक्ति आज हमारे आकर्षणों, महत्वाकांक्षाओं के तले दब गई है। हमारी उम्मीदों का संतुलन बिगड़ गया है। हम अब सिर्फ अपने सामने वाले से ही उम्मीद रखते हैं कि वह अच्छा हो, हमारा कार्य अच्छा करें....। हम स्वयं से उम्मीद रखना भूल ही गए हैं, हमने स्वयं के प्रति जवाबदेही को किनारा दिखा दिया है। हमारे मध्य प्रामाणिकता का इतना अभाव हो गया है कि आज एक शराबी व्यक्ति भी सोचता है कि उसका बेटा शराब न पीए, एक व्यभिचारी पिता चाहता है कि उसे उसका दामाद सदचरित्र मिले, एक क्रूर सास चाहती है कि उसकी बेटी को सीधी- सादी, चाहने वाली सास मिले, भ्रष्टाचार विरोधी वही है, जिसे अभी तक 'हाथ दिखाने' का मौका नहीं मिला है....यह फेहरिस्त लंबी है। बस, उलटवांसी के रूप में जैसा भेष होगा वैसा ही देश भी होगा।
विडम्बना तो इस बात की है कि हमारे मध्य से अच्छा आदमी तेजी से घट रहा है और बुरा आदमी जुड़ रहा है। पिछले दिनों समाचार पत्र में एक खबर थी कि एक टैक्सी ड्रायवर को उसकी ईमानदारी के लिए सार्वजनिक तौर पर सम्मानित किया गया। एक ईमानदार व्यक्ति को सम्मान देना तो एक श्रेष्ठ परम्परा का निर्वहन होना है तथा इसे जारी रहना चाहिए, परंतु 'ईमानदार व्यक्ति' को लेकर उपजे प्रश्न से ईमानदारी के संकट का आभास होता है।
जिस ईमानदारी को समाज में आम होना था, वह यदा- कदा हो गई है और आज तो यह आलम है कि ईमानदारी को आश्चर्य से देखा जाता है। अच्छे आदमी के घटने की दर इतनी तीव्र है कि हम अनायास कह उठते हैं, 'खुशी हो जाती है उनसे ही मिल के जो शहर के दूसरे लोगों से कम झूठे हैं।'
हमारे वर्तमान की भी यही सबसे बड़ी परेशानी है। एक अच्छा आदमी भी असुर व्यक्ति का शिकार हो रहा है। कार्य नहीं होने पर कुंठा स्वरूप सब कुछ बुरा बताने की वृत्ति बन चुकी है और इसी तारतम्य में एक अच्छे आदमी में भी बुराई प्रवेश कर जाती है। तंत्र, प्रशासन, व्यवस्थाओं को बनाने में हम ही सहायक होते हैं और हम ही उनमें बुराईयां खोजना प्रारम्भ कर देते है इसका सीधा सा अर्थ यही है कि बुराईया हमारे भीतर ही कही है... एक में नहीं प्रत्येक में...। सदियों पहले कबीर ने इस सत्य को भोगा था और 'बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलया कोय जो दिल देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय' में उकेरा था। शायर ने भी एक जगह लिखा है- 'जिसको देखा नहीं उसे लोग खुदा कहते हैं, सामने जो है उसे लोग बुरा कहते हैं।'
यह दौर कुछ ऐसा है कि अधिकांश लोग यह चाहते है कि सबकुछ तैयार और तुरंत मिले। फिर चाहे वह अच्छा देश ही क्यों न हो....'रेडिमेड' और 'इंस्टंट' अच्छा देश या फिर ऐसी ही कोई 'रेसेपी' जिससे हमारा देश, अच्छा देश तुरत-फुरत बनाया जा सके। अब जैसा माहौल होगा वैसा तो बनना ही होगा तो लीजिए पेश है 'अच्छा देश बनने की विधि।' सच्चाई के फूल, परोपकार की जड़, ईमानदारी के पत्ते, वाणी कीमिठास, मिलन- सारिता के आंवले, सत्संग का पानी, संगठन का दूध, शान्ति की दाल, उदारता का अर्क और स्वदेश प्रेम का सत् बराबर- बराबर मात्रा में लेकर उन्हें अच्छी तरह मिला लें। प्रेम का घी डाल कर धैर्य से अग्नि पर रखकर तन्मयता की चम्मच से हिलायें। अच्छी तरह पक जाने पर नीचे उतार ले व ठंडा होने दें। फिर शुद्ध व पवित्र मन के कपड़े से छानकर देश का प्रत्येक नागरिक अपने मन की शीशी में इसे भर ले। इसे खाते वक्त, क्रोध की मिर्ची, अंहकार का तेल, लोभ लालच की खटाई, धोखे का नमक दुराचार के आचार से अवश्य परहेज रखें। लीजिये तैयार है 'इन्सटंट' अच्छा देश। यदि हम इसी आशा में है कि सदैव अच्छा आदमी ही मिले तो प्रत्याशा में भी अच्छा आदमी बनना होगा। क्योंकि और कोई नहीं हम ही बनाते हैं देश को। आदमी को तो खैर वही रहना है, सिर्फ अपनी वृत्तियों का फैर भर करना है। वैसे तो वृत्ति कैसी भी हो संक्रामक होती है। चार आदमी अच्छे बनते है तो साथ सोलह को भी अच्छा बनाते हैं। यह सारा देश, यह फैला हुआ अनंत विश्व, सब का सब मन के विचारों से बना है। यदि यह अच्छा है और बुरा है तो भी, मन के विचार, वृत्ति अच्छे हंै, तो सब कुछ अच्छा है, बुद्धि अच्छी है, कर्म अच्छे हंै, संस्कार अच्छे हैं, उनमें कोई बुराई नहीं, घृणा नहीं, ईष्र्या नहीं, सब प्यार भरे हैं। यदि मन के विचार बुरे हैं, तो यह सब कुछ बुरा है। यहां तक की शरीर भी बुरा है। बकौल शायर-
'तुमने सूली पर चढ़ते जिसे देखा होगा,
वक्त आयेगा वही शख्स मसीहा होगा।'
संपर्क: 208-ए, पंचवटी कालोनी, एयरपोर्ट रोड, भोपाल- 462001 म. प्र.
अक्सर कहा यह जाता है कि हम भारतीय हमेशा किसी अवतार की प्रतिक्षा में बैठे रहते हैं और यह इंतजार करते रहते हैं कि कहीं से कोई चमत्कार हो जाय और हमारी स्थितियां बदल जाय। वैसे देखा जाय तो यह कहना बेमानी भी नहीं है। अब देखिए हमारे दृढ़ विश्वास की तो इंतहा तब हो जाती जब हम पत्थरों में से भी अवतार की खोज करते पाए जाते हैं। यह सब हमारी आस्था का परिणाम है। इसलिए किसी अवतार का इंतजार करना कहीं से कहीं तक निराधार नहीं है। माना कि यह एक इल्यूसन (भ्रम) है परंतु यदि इस भ्रम से ही हम अपनी सीमा में रहते हैं तो क्या बुरा है। और रहा सवाल चमत्कार का तो कहना ही होगा कि हम भारतीय जिस 'गार से गढ़े' है वह कोई चमत्कार से कम नहीं है। जिस पानी को विश्व स्वास्थ्य संगठन पीने योग्य तो दूर खेतों के लिए भी सही नहीं समझता है वह पीकर हम न केवल जिन्दा हैं बल्कि कई एक तो सौ का आंकड़ा भी पार कर जाते हैं। इसे आप चमत्कार नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?जिस ईमानदारी को समाज में आम होना था, वह यदा- कदा हो गई है और आज तो यह आलम है कि ईमानदारी को आश्चर्य से देखा जाता है। अच्छे आदमी के घटने की दर इतनी तीव्र है कि हम अनायास कह उठते हैं, 'खुशी हो जाती है उनसे ही मिल के जो शहर के दूसरे लोगों से कम झूठे हैं।'
क्या इसे चमत्कार नहीं कहेंगे कि हमारी आधी जनसंख्या को सिर्फ एक समय का भोजन नसीब होता है, इसके बाद भी वे जी रहे हैं? तीस प्रतिशत लोगों के ऊपर छत के नाम पर सिर्फ नीली छतरी है? इसे चमत्कार नहीं कहेंगे कि आज दिनांक एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचार के कांड हुए और किसी को सजा तो दूर, वे सारे आपके और हमारे देश की मुख्य धारा से बेखौफ जुड़े हुए हैं? क्या यह चमत्कार नहीं है कि देश के न्यायालयों में न्याय के लिए इतनी अर्जियां दर्ज हैं कि अगर उन्हें निपटाने का बीड़ा उठाया जाय तो पूरे पचास साल लग जाएंगे और जिन्हें आज न्याय की सख्त जरुरत है वे तब तक बूढ़े हो जाएंगे या मर जाएंगे? क्या यह चमत्कार नहीं है कि आज भी औरतों को सार्वजनिक रुप से डायन करार दिया जाता है और उन्हे नंगा कर घुमाया जाता है? क्या यह चमत्कार नहीं है कि जब भी कोई युवा अपने ही सामने आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियां उड़ाते व धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल और सार्थक होते देखते हुए भी अधिकांशत: पश्चिम की भांति इतने विकृत नहीं हुए हैं? क्या यह भी चमत्कार नहीं है कि देश की सरहद पर या अन्य जगह सैकड़ों सिपाही आतंकवादियों के हाथों शहीद हो रहे रहे हैं और इसके बाद भी माँएं अपने सपूतों को सेना में भेज रही हैं? और क्या यह चमत्कार नहीं है कि कई कर्ता- धर्ताओं ने भावनाओं, खेल एवं देश को भी व्यवसाय में तब्दील कर दिया है लेकिन दूर एक कस्बे में आज भी एक मां अपने बच्चे को यह बोलने के लिए कह रही है कि, 'दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है।'कुल मिलाकर प्रतिकूलता की अधिकता, अनुकूलता की कमी और कोई अन्य विकल्प नहीं होने की दशा में हर नई बात में चमत्कार की आशा रखना बेमानी भी तो नहीं है। बकौल शायर -
'उम्र बीती सदियां गुजरी लेकिन,
है वही फिर भी अक्ल का बचपन।'
समाज के प्रतिष्ठित एवं प्रतिनिधित्व करने वाले शख्सों द्वारा समाज के प्रति प्रतिबद्धताओं की आशा की जाती है क्योंकि वे अपने अनुजों के लिए 'रोल मॉडल' होते हैं, जैसे कि एक परिवार में उस परिवार के वरिष्ठ होते है। भावनाओं के बाद सैद्धांतिक रुप से देश के कायाकल्प में इन्हीं योगदान होता है। लेकिन यहां आकर जुड़ जाता है एक लम्बा सा अफसोस। हमारे रोल मॉडलों में से अधिकतर वही बिखरे हुए व्यक्तिव के मालिक होते हैं। और वे जो विरासत में देंगे वही तो 'केरी फारवर्ड' होगा। अब आप और हम साथ- साथ सोच सकते हैं कि जैसे 'रोल मॉडल' होंगे, वैसे ही उनके अनुज...। यह अफसोस तो बढ़कर और भी लंबा हो जाता है जब हमें पता चलता है कि पिछले चार दशकों में गांधी, नेहरू, तिलक आदि जैसी कोई विभूति हमारी पथ- प्रदर्शक नहीं बन सकी।
'....वो अच्छा' और '....वो बुरा' के परीक्षक हम जीवनभर बने रहते हैं, लेकिन हम स्वयं की श्रेष्ठता का प्रमाण अर्थात हमारी ओर उठने वाली नजरों को हमेशा नजरअंदाज करते रहते हैं। बस, हमारी नजरें अच्छे आदमी की खोज में लगी रहती हैं, हम अपना भला भर चाहते हैं। 'भला करो तो भला मिलेगा' वाली उक्ति आज हमारे आकर्षणों, महत्वाकांक्षाओं के तले दब गई है। हमारी उम्मीदों का संतुलन बिगड़ गया है। हम अब सिर्फ अपने सामने वाले से ही उम्मीद रखते हैं कि वह अच्छा हो, हमारा कार्य अच्छा करें....। हम स्वयं से उम्मीद रखना भूल ही गए हैं, हमने स्वयं के प्रति जवाबदेही को किनारा दिखा दिया है। हमारे मध्य प्रामाणिकता का इतना अभाव हो गया है कि आज एक शराबी व्यक्ति भी सोचता है कि उसका बेटा शराब न पीए, एक व्यभिचारी पिता चाहता है कि उसे उसका दामाद सदचरित्र मिले, एक क्रूर सास चाहती है कि उसकी बेटी को सीधी- सादी, चाहने वाली सास मिले, भ्रष्टाचार विरोधी वही है, जिसे अभी तक 'हाथ दिखाने' का मौका नहीं मिला है....यह फेहरिस्त लंबी है। बस, उलटवांसी के रूप में जैसा भेष होगा वैसा ही देश भी होगा।
विडम्बना तो इस बात की है कि हमारे मध्य से अच्छा आदमी तेजी से घट रहा है और बुरा आदमी जुड़ रहा है। पिछले दिनों समाचार पत्र में एक खबर थी कि एक टैक्सी ड्रायवर को उसकी ईमानदारी के लिए सार्वजनिक तौर पर सम्मानित किया गया। एक ईमानदार व्यक्ति को सम्मान देना तो एक श्रेष्ठ परम्परा का निर्वहन होना है तथा इसे जारी रहना चाहिए, परंतु 'ईमानदार व्यक्ति' को लेकर उपजे प्रश्न से ईमानदारी के संकट का आभास होता है।
जिस ईमानदारी को समाज में आम होना था, वह यदा- कदा हो गई है और आज तो यह आलम है कि ईमानदारी को आश्चर्य से देखा जाता है। अच्छे आदमी के घटने की दर इतनी तीव्र है कि हम अनायास कह उठते हैं, 'खुशी हो जाती है उनसे ही मिल के जो शहर के दूसरे लोगों से कम झूठे हैं।'
हमारे वर्तमान की भी यही सबसे बड़ी परेशानी है। एक अच्छा आदमी भी असुर व्यक्ति का शिकार हो रहा है। कार्य नहीं होने पर कुंठा स्वरूप सब कुछ बुरा बताने की वृत्ति बन चुकी है और इसी तारतम्य में एक अच्छे आदमी में भी बुराई प्रवेश कर जाती है। तंत्र, प्रशासन, व्यवस्थाओं को बनाने में हम ही सहायक होते हैं और हम ही उनमें बुराईयां खोजना प्रारम्भ कर देते है इसका सीधा सा अर्थ यही है कि बुराईया हमारे भीतर ही कही है... एक में नहीं प्रत्येक में...। सदियों पहले कबीर ने इस सत्य को भोगा था और 'बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलया कोय जो दिल देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय' में उकेरा था। शायर ने भी एक जगह लिखा है- 'जिसको देखा नहीं उसे लोग खुदा कहते हैं, सामने जो है उसे लोग बुरा कहते हैं।'
यह दौर कुछ ऐसा है कि अधिकांश लोग यह चाहते है कि सबकुछ तैयार और तुरंत मिले। फिर चाहे वह अच्छा देश ही क्यों न हो....'रेडिमेड' और 'इंस्टंट' अच्छा देश या फिर ऐसी ही कोई 'रेसेपी' जिससे हमारा देश, अच्छा देश तुरत-फुरत बनाया जा सके। अब जैसा माहौल होगा वैसा तो बनना ही होगा तो लीजिए पेश है 'अच्छा देश बनने की विधि।' सच्चाई के फूल, परोपकार की जड़, ईमानदारी के पत्ते, वाणी कीमिठास, मिलन- सारिता के आंवले, सत्संग का पानी, संगठन का दूध, शान्ति की दाल, उदारता का अर्क और स्वदेश प्रेम का सत् बराबर- बराबर मात्रा में लेकर उन्हें अच्छी तरह मिला लें। प्रेम का घी डाल कर धैर्य से अग्नि पर रखकर तन्मयता की चम्मच से हिलायें। अच्छी तरह पक जाने पर नीचे उतार ले व ठंडा होने दें। फिर शुद्ध व पवित्र मन के कपड़े से छानकर देश का प्रत्येक नागरिक अपने मन की शीशी में इसे भर ले। इसे खाते वक्त, क्रोध की मिर्ची, अंहकार का तेल, लोभ लालच की खटाई, धोखे का नमक दुराचार के आचार से अवश्य परहेज रखें। लीजिये तैयार है 'इन्सटंट' अच्छा देश। यदि हम इसी आशा में है कि सदैव अच्छा आदमी ही मिले तो प्रत्याशा में भी अच्छा आदमी बनना होगा। क्योंकि और कोई नहीं हम ही बनाते हैं देश को। आदमी को तो खैर वही रहना है, सिर्फ अपनी वृत्तियों का फैर भर करना है। वैसे तो वृत्ति कैसी भी हो संक्रामक होती है। चार आदमी अच्छे बनते है तो साथ सोलह को भी अच्छा बनाते हैं। यह सारा देश, यह फैला हुआ अनंत विश्व, सब का सब मन के विचारों से बना है। यदि यह अच्छा है और बुरा है तो भी, मन के विचार, वृत्ति अच्छे हंै, तो सब कुछ अच्छा है, बुद्धि अच्छी है, कर्म अच्छे हंै, संस्कार अच्छे हैं, उनमें कोई बुराई नहीं, घृणा नहीं, ईष्र्या नहीं, सब प्यार भरे हैं। यदि मन के विचार बुरे हैं, तो यह सब कुछ बुरा है। यहां तक की शरीर भी बुरा है। बकौल शायर-
'तुमने सूली पर चढ़ते जिसे देखा होगा,
वक्त आयेगा वही शख्स मसीहा होगा।'
संपर्क: 208-ए, पंचवटी कालोनी, एयरपोर्ट रोड, भोपाल- 462001 म. प्र.
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