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Mar 1, 2023

ललित लेखः चिठ्ठी आई है...

 - प्रियंका गुप्ता

अभी दो-चार दिन पहले दरवाज़े पर दस्तक हुई, जाकर देखा तो डाकिया था। सोचा, शायद रजिस्ट्री से कोई पुस्तक आई हो, पर नहीं, डाकिया तो हाथों में एक लिफ़ाफ़ा लिए खड़ा था। ‘लिफ़ाफा देख के मजमून भाँपने’ के ज़माने तो कब के चले गए, फिर भी इतना अन्दाज़ा तो लग ही गया कि वो कोई किताब या मैगज़ीन नहीं, एक ख़त था।

ख़त और इस ज़माने में...? जितनी हैरानी मुझे हुई यह सोच कर कि ऐसा कौन है जो अब भी कागज़-क़लम लेकर पत्र लिखने बैठा होगा, उतना ही हल्का-फुल्का अचरज़ डाकिया के चेहरे पर भी दिखा। जाने क्यों पत्र हाथ में लेकर एक अनजानी-अनचीन्ही खुशी भी महसूस हुई। एक झटके से जैसे पुरानी यादें दिमाग़ में रील की तरह चल गई। बचपन की यादें...किशोरावस्था की यादें...और कुछ साल पहले तक की भी यादें...। चिठ्ठियों का आना और जाना...राह चलते डाकिया के मिल जाने पर पूछना...भैया, कोई चिठ्ठी है हमारी...? और उसका ‘इंकार’ में गर्दन हिलाते हुए आगे बढ़ जाने पर थोड़ा मायूस हो जाना। बिना किसी खास इंतज़ार के भी वो बार-बार जाकर लेटर-बॉक्स खोल कर देखना...सब जैसे सदियों पुरानी बातें लगती हैं। याद नहीं पड़ता, पिछला ख़त कब और किसने लिखा था मुझे। सच कहूँ, तो कागज़-क़लम लेकर मैंने आखिरी ख़त कब और किसको लिखा, मुझे खुद भी यह याद नहीं।

ज़रा याद कीजिए वो पहले के भूले-बिसरे पल...दीवाली हो या फिर नया साल...न केवल ग्रीटिंग कॉर्ड खरीदने या बनाने का शौक परवान चढ़ता था, बल्कि कुछ अपनों को हम महज ग्रीटिंग से ही नहीं, वरन अपने पत्रों से अपनी उपस्थिति जताने के ख़्वाहिशमन्द रहा करते थे। घरवालों के लिए मेरी पूरी कोशिश रहती थी कि उनको मैं अपने हाथ से बना हुआ कॉर्ड दूँ। यह आदत मैंने एक लम्बे समय तक चुनमुन (प्रांजल) के अन्दर भी बरकरार रखी। वैसे भी वह ड्राइंग-पेण्टिंग का इतना शौकीन था कि खुशी-खुशी इस काम को अंजाम देता था। हाँ, कॉर्ड के अन्दर हर व्यक्ति के हिसाब से चुन-चुन के कुछ लिखने का काम तब भी मेरा ही होता था। कारण सिर्फ़ दो हुआ करते थे, पहला यह कि मेरी लिखावट में काटा-पीटी नहीं हुआ करती थी...और दूसरे, चुनमुन के बहाने ही सही, पर मैं भी अपना बचपन एक बार फिर जी लिया करती थी।

बचपन में जब भी किसी भी अवसर पर मुझे ग्रीटिंग कॉर्ड्स मिला करते थे, मुझे उन्हें अपनी नज़रों के सामने रखना बहुत भाता था। जाने क्यों उन सबसे एक अपनेपन की खुशबू सी आती थी। अब टेबिल या कमरे की अलमारी पर तो इक्का-दुक्का कॉर्ड ही जगह पा सकते थे न...? (और वैसे भी उस ज़माने में हम दो कमरों के किराए के मकान में हुआ करते थे) तो फिर बाकी के कॉर्ड्स...? इसका एक बहुत बढ़िया हल निकाल लिया था मैंने...एक मोटे कॉर्डबोर्ड पर उनका एक कोलाज़ जैसा बना लेती थी। बाकायदा वेल्वेट पेपर, रंगीन टेप, सितारों और शीशों से उस कोलाज़ को सजाती और फिर एक खूबसूरत कलाकृति तैयार हो जाती। एक अर्सा बीत जाने पर जब नए कोलाज़ का वक़्त आता, तो बड़े सम्हाल कर उन पुराने कॉर्ड्स को निकाल कर अपने ख़ज़ाने का हिस्सा बना लेती। जाने कितने बरसों तक यह सिलसिला चलता रहा, पर जब किराए के मकान से निकल कर अपने मकान में कदम रखा, तो कई दिनों में धीरे-धीरे सैटिल होने के बाद भी जब मुझे अपना ख़ज़ाना नहीं मिल पाया, तब जाकर यक़ीन हुआ कि मकान बदलने की आपाधापी में मेरा वो अनमोल यादों का पिटारा अब सिर्फ़ यादों में ही रह गया था। उसके बाद पता नहीं क्यों, मन कुछ ऐसा उचटा कि कॉर्ड्स हर साल भले सम्हाल के रखती रही, पर उनका कोलाज़ फिर कभी नहीं बना पाई। कभी-कभी बचपन का वो बीता हुआ वक़्त...वो कोलाज़...और वो लम्हें, सब बड़ी शिद्दत से याद आते हैं। पर सच कहूँ...यादों का कोलाज़ तो आज भी सजता है मेरे मन की किसी दीवार पर...और कभी किन्हीं फ़ुर्सत के लम्हों में उन्हें ताक मैं आज भी मुस्करा देती हूँ।

मेरी पीढ़ी के लोग शायद इस धरती पर आखिरी होंगे जिन्होंने चिठ्ठियाँ लिखी होंगी। आठ-दस लाइनों में लिखे जाने वाले पोस्टकार्ड से लेकर एक छोटी-मोटी कहानी जितने पन्नों वाली चिट्ठियाँ भी...। फिर उन चिट्ठियों को डाक में डालने के बाद उनके जवाब का जो एक बेसब्र इंतज़ार का वक़्त होता था, उसकी मीठी कसक की बात ही कुछ और थी। पत्र का जवाब मिलने पर चेहरे का खिल जाना...घर के दूसरे सदस्यों को इकट्ठा कर के उस चिट्ठी को ज़ोर-ज़ोर से बाँचना...फिर उस पर सबकी टीका-टिप्पणी...आज की पीढ़ी कहाँ जानती है ये सब...?

आज के बच्चों ने शायद ही चिट्ठी में बसी उस गंध को महसूस किया हो...एक ही ख़त को बारम्बार पढ़ने का सुख जाना हो। कभी पुराने कागज़ों को टटोलते वक़्त उनके बीच दबे किसी अपने के ख़त के मिल जाने पर होने वाली खुशी को महसूसा हो।

आज कम्प्यूटर-मोबाइल के चटपट-फटाफट मैसेज से हर पल ‘कनेक्टेड’ रहने वाली बेसब्र हो चुकी है और बहुत हद तक सम्बन्धों की गर्माहट के प्रति बेपरवाह भी...। दिनों-हफ़्तों-महीनों किसी अपने के जवाब का इंतज़ार करने का धैर्य नहीं बचा आज ‘टू मिनट्स नूडल्स’ से झट से पेट भरने वाली पीढ़ी के अन्दर। आज मल्टीटास्किंग के युग में रिश्ते निभाना भी बस एक टॉस्क ही रह गया है। यहाँ उँगलियों की जुम्बिश से पट से रिश्ते बनते हैं और चट से टूट भी जाते हैं।

आज मशीन पर लिखे जाने वाले संदेशे भी मानो मशीनी हो गए हैं। हम स्माइली बनाते हैं, पर मुस्कराते नहीं। हम दिल भेजते हैं, पर पत्थर के...। एक ईमेल या मैसेज में हम सब कुछ दर्शा सकते हैं। सुख-दुःख... हँसना-रोना... प्यार-गुस्सा... शायद हर एक भाव...पर फिर भी भावना-रहित...। इनमें फूल ही नहीं, गुलदस्ते भी हैं, पर खुश्बू नही। हँसी है, पर खिलखिलाहट नहीं...रोना है, पर आँसुओं से भीगते पन्ने नहीं...दिल है, पर प्यार नहीं...। हम सिर्फ़ कनेक्टेड हैं, पर हममें जुड़ाव नहीं।

आज भी मुझे कभी चिट्ठियों की याद आती है तो उनसे जुड़े चेहरे याद आते हैं। उसमें लिखी कितनी बातें अब भी दिमाग़ में उतनी ही शिद्दत से ताज़ा हैं। लेकिन आप कभी किसी ईमेल या मैसेज के बारे में सोच कर देखिए...क्या लिखा था, याद भी है आपको? अपनी लिखी चिट्ठियों से मुझे वो अपने याद आते हैं जो वक़्त के बहाव में जाने कहाँ चले गए। अपनी दुनिया में मस्त-मगन...पर फिर भी शायद किन्ही पलों में सिर्फ़ चिट्ठी की वजह से वो भी मुझे याद करते होंगे।

अपनी एक ऐसी ही बिछुड़ी, लगभग हम‍उम्र मौसेरी बहन से लगभग पन्द्रह साल बाद मिली मैं...राह चलते...(राह चलते इस लिए क्योंकि दुनिया की तमाम फ़सादातों की तीन वजहों में से एक के कारण उनसे हमारा रिश्ता ख़तम हो चुका है) तो पुराने सगे रिश्तों की ख़ातिर हम दोनों ही पूरी गर्मजोशी से मिल लिए। हम दोनों ने बरसों एक-दूसरे को लम्बे-लम्बे ख़त लिखे थे। ख़तों के माध्यम से ही हम न जाने कितनी बातें शेयर करते थे। दस मिनट की इस मुलाक़ात में एक बार फिर बिछड़ते वक़्त उनके शब्द यही थे, “तुम्हें याद है...हम लोग खर्रा (लम्बी चिट्टी) लिखा करते थे एक-दूसरे को...। कितने अच्छे दिन थे न वो...?" पल भर के लिए सिर्फ़ इस एक याद से हम दोनो वही पुरानी सहेलियों-सी बहनें हो गई थी...‘आँखों में नमी, हँसी लबों पे...’ वाली स्टाइल में...।

उनसे उस दिन बिछड़ने के बाद शायद हम दोनों फिर कभी न मिल सकें...पर एक सवाल अब भी मेरे मन में आता है। अगर ख़तो-किताबत का सिलसिला हम दोनो के दरमियाँ कायम रहता तो क्या मेरी चिठ्ठियों पर गिरकर सूख चुके मेरे आँसू हमारे रिश्ते को सूखने से बचा लेते...?

आपके उत्तर की प्रतीक्षा तो रहेगी ही न...।

सम्पर्कः एम.आई.जी-292, कैलाश विहार, आवास विकास योजना संख्या- एक, कल्याणपुर, कानपुर-208017 (उ.प्र), ईमेल:  priyanka.gupta.knpr@gmail.com, ब्लॉग: www.priyankakedastavez.co.in

2 comments:

Bharati Babbar said...

सुंदर संस्मरण जिससे अपने बीते दिनों की याद दिला दी।सच है कि आजकल सम्पर्क-सूची लंबी होते हुए भी जुड़ाव नदारद।वैसे यह भी बतातीं किसने इस युग में आपको चिट्ठी लिखकर याद किया ! 😊

शिवजी श्रीवास्तव said...

भावप्रवण आलेख।नई पीढ़ी उस भावनात्मक लगाव से वंचित है जो हम लोग चिट्ठियों में सहेज कर रखते थे।प्रियंका गुप्ता जी को इस ललित लेख हेतु बधाई।