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Oct 3, 2021

अनकही –सामाजिक अवमूल्यन के चक्रव्यूह में बुज़ुर्ग

 -डॉ. रत्ना वर्मा

 पिछले महीने राजधानी से एक खबर आई, जिसमें नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रीड के अनुसार वरिष्ठ नगारिकों के 25.02 लाख केस लम्बित हैं। आप सोच सकते हैं वरिष्ठ नागरिकों के इतने सारे मामले क्यों लम्बित हैं? लिखते हुए दुःख हो रहा है कि जिस भारत देश में परिवार, रिश्ते, संस्कार, संस्कृति, परम्परा और मूल्यों की दुहाई दी जाती हैं, वहाँ ऐसे लाखों बुजुर्ग माता- पिता को अपनी ही संतानों के विरुद्ध कानून का दरवाजा खटखटाना पड़ता है।

यह खबर ऐसे समय पर आई है, जब पितृपक्ष में हम अपने पितरों का तर्पण कर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे । पितरों के जाने के बाद उनकी याद में, उनके नाम पर किए जाने वाले श्राद्धकर्म में किसी को आपत्ति नहीं है। यह प्रत्येक संतान का धर्म  है कि वे अपने पितरों को याद करें उनको नमन कर उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करें , परंतु शिकायत उनसे है, जो उनके जीते जी उन्हें कष्ट देते हैं और उनके मरने के बाद उनके नाम पर भोज रखते हैं दान कर पुण्यलाभ कमाने का स्वांग करते हुए मानव -धर्म को कलंकित करते हैं। सबसे दुखद है  कि उन्हें वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर करते हैं, उनकी सेहत का उनके खान पान का ध्यान नहीं रखते।

इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि पूरी जिंदगी जिन बच्चों को पालने- पोसने में गुजार दी, उन्हीं से गुजारा भत्ता पाने, अपने ही घर में रहने का अधिकार माँगने, जिन्हें गोद में खिलाया और उँगली पकड़कर चलना सिखाया, उन्हीं बच्चों द्वारा मार- पीट किए जाने पर, उनसे  संरक्षण पाने के लिए उन्हें कोर्ट में जाने को मजबूर होना पड़ता है। हमारे देश में  लाखों ऐसे  माता – पिता भी हैं, जो कानून के दरवाजे तक  जाने के लिए भी हिम्मत नहीं जुटा पाते। वे सारे जुल्म सहते हुए अपनी मौत का इंतजार करते रहते हैं या वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर हैं।

अपने बच्चों के होते हुए वृद्धाश्रम में जीवन गुजारने से बड़ा अभिशाप और कुछ नहीं हो सकता। जिस प्रकार अनाथ बच्चों के लिए अनाथालय होते हैं और जहाँ उन बच्चों का जीवन सँवारने का प्रयास किया जाता है, उसी प्रकार वृद्धाश्रम सिर्फ उन बुज़ुर्गों के लिए हों, जिनके बच्चे नहीं हैं, ताकि वे अपना बुढ़ापा स्वस्थ रहते हुए दूसरों के साथ मिल-जुलकर गुजार सकें। परंतु दुर्भाग्य कि हमारे देश में अपना घर, अपने बच्चे होते हुए भी न जाने कितने माता- पिता को अपना जीवन वृद्धाश्रम में गुजारना पड़ता है।

दरअसल कोई भी माता– पिता यह कल्पना भी नहीं कर पाते कि बड़े होने के बाद उनका यही बच्चा उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ देगा। यही वजह है कि वे अपने जिगर के टुकड़े के नाम अपनी सारी सम्पत्ति लिख देते हैं, यह कहते हुए कि अब बुढ़ापा आराम से बिना किसी चिंता के सुख से बच्चों के साथ गुजारेंगे। अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी अभिनीत बागबान फिल्म की कहानी सबको याद ही होगी, जिसमें उनके बच्चे माता- पिता का ही बटवारा कर लेते हैं।

दिल्ली के एक वकील हैं एन के  सिंह भदौरिया, जो लगभग 200 बुज़ुर्गों का केस निःशुल्क लड़ चुके हैं। वे कहते हैं कि ज्यादातर मामलों में कोर्ट की फटकार पर दो से तीन सुनवाई के बाद अच्छे परिणाम मिलते हैं। यह है तो सकारात्मक, परंतु इसके बाद भी मेरे मन में एक सवाल उठता है कि उनके बच्चों ने किया तो गलत ही है। जब बात अदालत तक पँहुच गई, तो वे मजबूरन उन्हें रखने को तैयार हो गए, पर इसकी क्या गारंटी वे दिल से स्वीकारेंगे और उन्हें घर में रखने के लिए उनका सच्चे मन से स्वागत करेंगे।

पिछले कुछ दशकों से लगातार गिरते सामाजिक मूल्यों का ही नतीजा है कि बुजुर्गों के सम्मान की रक्षा के लिए अलग से कानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। नए कानून के अनुसार अब बच्चे बुज़ुर्गों को घर से नहीं निकाल सकते; बल्कि बुज़ुर्गों को यह अधिकार है कि उन्हें अपने बच्चों से आदर व सम्मान न मिलने पर, उनकी सेवा न करने पर, अथवा किसी भी प्रकार से परेशान किए जाने पर, अपनी बालिग संतान को वे घर छोड़ने के लिए बाध्य कर सकते हैं।  यहाँ तक कि यदि उनके नाम अपनी कोई सम्पत्ति नहीं है, तो भी वे उनसे गुजारा भत्ता माँगने का अधिकार रखते हैं। कानून में हुए इस नए संशोधन के अनुसार बुज़ुर्गों की देखभाल का जिम्मा उनके बच्चों पर ही नहीं, बल्कि इसके दायरे में बेटा- बेटी, नाती-नातिन, और पोता- पोती भी उनकी देखभाल के लिए बाध्य हैं। सही भी है, चूँकि अब माता- पिता की सम्पत्ति में अब बेटा और बेटी की बराबर का अधिकार होता है, तो जिम्मेदारी भी तो दोनों तरफ और उनकी अगली पीढ़ी की होनी चाहिए।

जरूरत जागरूक रहने की है, क्योंकि एकल परिवार के इस बढ़ते दौर में बच्चे जहाँ अपने पैरों पर खड़े हुए नहीं कि वे अपनी स्वतंत्र जिंदगी जीना चाहते हैं।  उन्हें बुजुर्गों का साया बंधन युक्त लगता है। इस बदलती मानसिकता को देखते हुए आजकल एक वर्ग विशेष में जागरूकता तो दिखाई दे रही है।  वे अब बच्चों को जबरदस्ती बाँधकर नहीं रखते। उन्हें अलग रहने की आजादी दे देते हैं ; क्योंकि उन्हें मालूम होता है साथ रहकर दिन- रात के क्लेश से अच्छा है, अलग- अलग रहकर सुख से रहें। पर साथ ही वे अपनी सम्पत्ति भी प्यार में अंधे होकर उनके नाम नहीं करते । जब तक उनका जीवन है, सम्पत्ति उनकी रहेगी मरने के बाद ही वे अपनी वसीयत बच्चों को सौंपते हैं।

अनुभव यही सिखाता है कि रिश्ते- नाते सब एक तरफ, परंतु यदि आपके पास अपना घर, अपनी सम्पत्ति और पैसा है, तो आप किसी के आगे कुछ माँगने के लिए बाध्य नहीं होते । आपके अंदर एक आत्मविश्वास भी होता है कि यदि कभी कोई मुसीबत आई,  तो हम अकेले उसका सामना कर सकते हैं। आत्मनिर्भर रहने के फायदे सिर्फ युवाओं के लिए नहीं होते, आत्मनिर्भरता प्रत्येक उम्र के लिए जरूरी है। उम्र के एक पड़ाव पर आकर शरीर भले ही कमजोर हो जाता है, पर यदि मन स्वस्थ है, हाथ में धन है, तो इस कमजोरी पर भी जीत हासिल की जा सकती है।

एक समय था जब माता – पिता बड़े गर्व के साथ कहते थे कि हमारी सम्पत्ति, हमारा असली धन तो हमारे बच्चे हैं।  उनके रहते हमें किसी प्रकार की चिंता करने की जरूरत नहीं।  पर समय बदल गया है । अब के दौर में बड़े- बुजुर्ग कहने लगे हैं- थोड़ी धन- सम्पत्ति बुढ़ापे के लिए भी जोड़कर रख लो।  क्या पता कब जरूरत पड़ जाए। इस नई सीख को अब गाँठ बाँधकर रखने की जरूरत है।



3 comments:

विजय जोशी said...

बहुत ही सुंदर, सारगर्भित एवं सामयिक बात उठाई है आपने. मूल्य तथा सिद्धांत का दम भरने वाले हमारे देश में पिछले कुछ दशकों में इतनी तेजी से ह्रास होगा यह किसने सोचा होगा.
रामायण में तो कहा गया है :
- प्रात: काल उठिके रघुनाथा
- मातु पितु गुरु नावहि माथा
अब राम केवल किताबों में सिमट कर रह गए हैं. दुर्भाग्य. समाजिक मूल्यों का पतन आगामी विनाश की झलक है.
सामयिक बात साफगोई से उठाने के लिये हार्दिक साधुवाद. सादर

Sudershan Ratnakar said...

सामयिक, ज्वलंत समस्या का सटीक विश्लेषण।सच में यह विडंबना ही तो है।माता-पिता को बच्चों के मोह में न पड़ कर अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए। बहुत सुंदर ।हार्दिक बधाई

रश्मि लहर said...

यर्थाथ की कटुताएं रिश्तों पर हावी हैं.. विचारोत्तेजक लेख लिखा है आपने!