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Feb 1, 2021

लघुकथाः महँगी धूप

   -रवि प्रभाकर

कम-से-कम अपने झुमके ही रख लेती’ सुनार की दुकान से बाहर निकलकर राकेश स्कूटर को किक मारते हुए शारदा से बोला

कोई बात नहीं जी। ऐसे वक़्त के लिए ही तो गहने बनवाए जाते हैं। वैसे भी कौन सी उम्र रही है गहने पहनने की, भगवान की दया से अब तो बच्चे बराबर के हो गए हैं। अपना घर बन जाए अब तो!‘ पर्स को कसकर पकड़ स्कूटर पर बैठती हुई शारदा ने कहा

अब तो हो ही जाएगा। पी.एफ., बेटियों की आर डी और अब ये गहने भी …! बेटियों की शादी कैसे करेंगे?‘ ठंडी साँस भरता राकेश धीरे-से बोला

आप चिंता मत करो जी! अभी उम्र ही क्या है बेटियों की! नीतू अगस्त में पंद्रहवें में लगेगी और मीतू दिसंबर में सत्रहवें में। उनकी शादी तक तो भगवान की कृपा से रोहन इंजीनियरिंग पूरी कर अच्छी नौकरी लग चुका होगा और आपकी रिटायरमेंट को तो अभी 11 साल बाक़ी हैं।’ शारदा अपना हाथ राकेश के कंधे पर रखते हुए आशा भरी आवाज़ में बोली

हाँ…। ख़ैर! अब तो घर में दम सा घुटने लगा है। तीन ही तो कमरे है और साथ में भाई साहिब की फैमिली। मैं तो किसी दफ्तर वाले को घर तक नहीं बुला सकता।’

सही कह रहे हो। दम तो वाक़ई घुटने लगा है। एक तो घर गली के आख़िरी कोने में है जहाँ न धूप न हवा। कभी छत पर चले ही जाओ तो जिठानी जी के माथे की त्यौरियाँ और उनके कमेंट्स…उफ़्फ़… बर्दाश्त के बाहर हो जाते हैं। मैं तो तरस गईं हूँ खुली धूप में बैठने को।’ राकेश ने मानो उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।

आइए राकेश बाबू! आपका ही इंतज़ार था।’ निर्माणाधीन हाऊसिंग कॉलोनी के गेट पर मज़दूरों को काम समझाता हुआ मैनेजर राकेश को आता देख गर्मजोशी से उनकी ओर लपका। ‘स्कूटर उधर खड़ा कर दीजिए। बस कुछ ही दिनों की बात है पार्किंग भी तैयार हो जाएगी।’

ओए! ये सामान हटाओ यहाँ से’ मज़दूर को इशारा करते हुए मैनेजर बोला।

आइए ऑफ़िस में बैठकर फारमेलिटीज़ कंप्लीट कर लेते हैं… पेमेण्ट तो लाए हैं न…?’

हाँ हाँ पेमेंट तो लाया हूँ। एक नज़़र फ़्लैट तो दिखा दें; इसीलिए तो आज श्रीमती जी को साथ लाया हूँ।’

क्यों नहीं… क्यों नहीं! आइए उधर से चलते हैं। भाभी जी! ज़रा ध्यान से चढ़िएगा! बस कुछ ही दिनों में रेलिंग भी लग जाएगी।’ सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैनेजर बेफ़िक्री से बोला

फ़्लैट्स तो सारे बुक हो चुके हैं जी पर आपके जी.एम. साहिब के कहने पर यह फ़्लैट आपके लिए रिज़र्व रख दिया था। आप इत्मीनान से देखकर तसल्ली कर लें, मैं ठंडा मंगवाता हूँ।’ दो मंज़िल सीढ़ियाँ चढ़ कर आए राकेश और शारदा को हाँफता देख मैनेजर बोला।

राकेश! इधर देखें। ये किचन थोड़ा छोटा लग रहा है। ये बेडरूम… इसमें डबल बैड लगने के बाद जगह ही कहाँ बचेगी और ये आसपास की बिल्‍डिंग्ज़ तो लॉबी की सारी धूप और हवा रोक रही हैं।’ मैनेजर के जाते ही थकान भूल कर फ़्लैट का मुआयना करती हुई शारदा अधीरता से बोली

लीजिए ठंडा पीजिए!’ खाली फ़्लैट में मैनेजर की गूँजती आवाज़ से दोनों एकदम चौंक गए।

भाई साहिब! टैरेस…।’ गिलास पकड़ते हुए शारदा ने पूछा

भाभी जी! टैरेस तो कॉमन है सभी फ़्लैट्स के लिए।’

सभी के लिए कॉमन! ये तो वही बात हो गई! राकेश धीरे-से शारदा के कान में फुसफुसाया।

पार्क के पीछे वाली कॉलोनी भी हमारी ही कंपनी बना रही है। वहाँ कारपेट एरिया तो इससे अधिक है ही साथ ही एंटरी और टैरेस भी इंडीपैंडेंट है। आप वहाँ देख लीजिए।’ स्थिति भाँपते हुए मैनेजर ने तीर छोड़ा

उसका प्राइस?’ शारदा ने सकुचाते हुए पूछा

अजी प्राइस तो बहुत कम है जी। कंपनी तो आपकी सेवा के लिए ही है। बस इस फ़्लैट से सिर्फ़ आठ लाख ही अधिक देने होंगे।’ खीसें निपोरता मैनेजर बोला

मैनेजर सॉबऽऽ! गुप्ता जी आपको नीचे ऑफ़िस में बुला रहे हैं। ‘नीचे से कुछ सामान उठाकर आ रहे एक मज़दूर ने मैनेजर को कहा।

मैं नीचे ऑफ़िस में ही हूँ, जो भी आपकी सलाह हो बता दीजिएगा।’ बाहर निकलते हुए मैनेजर बोला

आठ लाख! इतना तो हो ही नहीं पाएगा। तो अब क्या करें।’ राकेश की आवाज़ मानो बहुत गहरे कुएँ से आ रही थी

फ़्लैट बेशक छोटा है; पर अपने घर से छोटा तो नहीं है न। छत पर जाने से किसी के साथ कोई चख-चख भी नहीं। यहाँ तुम अपने किसी भी दफ्तर वाले को बड़े आराम से बुला सकते हो।’

पर तुम्हारी वो खुली धूप में बैठने की इच्छा…।’

अजी, मेरा तो आधा दिन स्कूल में ही निकल जाता है। उसके बाद सेंटर पर ट्यूशन। नीतू, मीतू भी मेरे साथ चार बजे के बाद ही घर आती हैं और तुम शाम को छह बजे के बाद। समय ही कहाँ मिलता है धूप में बैठने का।’

दोनों धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतर ऑफ़िस की तरफ़ बढ़ने लगे।

4 comments:

Upma said...

बहुत ही बढ़िया लघुकथा

प्रियंका गुप्ता said...

सुंदर लघुकथा के लिए बहुत बधाई

Sudershan Ratnakar said...

बहुत सुंदर लघुकथा

Anju Kharbanda said...

सच में ऐसा ही तो होता है!