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Mar 24, 2018

सेल्युलर जेल

क्रान्तिकारियों के बलिदान का साक्षी 
सेल्युलर जेल 
- कृष्ण कुमार यादव
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी सरकार को चैकन्ना कर दिया। व्यापार के बहाने भारत आए अंग्रेजों को भारतीय जनमानस द्वारा यह पहली कड़ी चुनौती थी जिसमें समाज के लगभग सभी वर्ग शामिल थे। जिस अंग्रेजी साम्राज्य के बारे में ब्रिटेन के मजदूर नेता अर्नेस्ट जोंस का दावा था कि-अंग्रेजी राज्य में सूरज कभी डूबता नहीं और खून कभी सूखता नहीं’, उस दावे पर ग्रहण लगता नजर आया। दिल्ली में हुए युद्ध पर अंग्रेज हड्सन के शब्द गौर करने लायक हैं-शहर की सीमा पर जबरदस्त विरोध का सामना करने के बाद हमारी फौजें शहर में दाखिल हुईं, तो जिस हिम्मत और दृढ़ता के साथ विद्रोहियों और हथियारबंद योद्धाओं ने जंग लड़ी, वह सब हमारी सोच से बाहर था।स्पष्ट है कि अंग्रेजों को आभास हो चुका था कि उन्होंने युद्ध अपनी बहादुरी व रणकौशलता की वजह से नहीं बल्कि षडयंत्रों, जासूसों, गद्दारी और कुछेक भारतीय राजाओं के सहयोग से जीता था। अपनी इन कमजोरियों को छुपाने के लिए जहाँ अंग्रेजी इतिहासकारों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को सैनिक गदर मात्र कहकर इसके प्रभाव को कम करने की कोशिश की, वहीं इस संग्राम को कुचलने के लिए भारतीयों को असहनीय व अस्मरणीय यातनाएँ दी गई। एक तरफ लोगों को फाँसी दी गयी, पेड़ों पर समूहों में लटका कर मृत्यु दण्ड दिया गया व तोपों से बांधकर दागा गया वहीं जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी सरकार को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें ऐसी जगह भेजा गया, जहाँ से जीवित वापस आने की बात तो दूर किसी अपने-पराए की खबर तक मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं रख सकते थे। अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को अंग्रेजी सरकार ने रंगून भेज दिया, जबकि इसमें भाग लेने वाले अन्य क्रान्तिकारियों को काले पानी की सजा बतौर अण्डमान भेज दिया।

भौगोलिक रूप से कोलकाता के दक्षिण में लगभग 1200 किलोमीटर की दूरी पर बंगाल की खाड़ी में प्रकृति के खूबसूरत आगोश में 8249 वर्ग कि.मी. में विस्तृत 572 द्वीपों (अंडमान-550, निकोबार-22) के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भले ही मात्र 38 द्वीपों (अंडमान-28, निकोबार-10) पर जन-जीवन है, पर इसका यही अनछुआपन ही आज इसे प्रकृति के स्वर्ग रूप में परिभाषित करता है। अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर, जो कि यहाँ का प्रमुख बन्दरगाह भी है, पर सेल्युलर जेल अवस्थित है। 1789 में यहाँ कब्जा करने वाले ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लेफ्टिनेंट लॉर्ड आर्किबल्ड पोर्ट ब्लेयर के नाम पर इसका नामकरण पोर्टब्लेयर किया गया। वनाच्छादित इन जंगलों में दुनिया की सबसे प्राचीन जनजाति शोम्पेन और जारवा बसी हुई हैं। इसी द्वीप पर 1857 के संग्राम पश्चात जनवरी 1858 में अंग्रेजों ने पुन: कब्जा कर स्वाधीनता सेनानियों के निष्कासन के लिए चुना, जिसे दण्डी बस्तीकहा गया। इसी दण्ड को जनभाषा में काला पानीकी सजा कहा गया। 10 मार्च 1858 को पहली बार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले 200 लोगों के जत्थे को लेकर जेम्स पेरिकन वाकर जहाज से अण्डमान पहुँचा, तो अप्रैल 1868 में 737 स्वतंत्रता सेनानियों का दूसरा जत्था कराची से यहाँ लाया गया। इन सभी को आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया। अंग्रेजी सरकार को लगा कि सुदूर निर्वासन व यातनाओं के बाद ये स्वाधीनता सेनानी स्वत: निष्क्रिय व खत्म हो जायेंगे पर दण्डी बस्ती में यह निर्वासन भी इन सेनानियों की गतिविधियों को नहीं रोक पाया। वे तो पहले से ही जान हथेली पर लेकर निकले थे, फिर भय किस बात का। अपने विद्रोही तेवरों के लिए मशहूर प्रथम जत्थे के 200 पंजाबी सेनानियों ने 1 अप्रैल 1859 को सुपरिन्टेण्डेण्ट वाकर को मारने का प्रयास किया, पर किसी तरह वाकर ने वहाँ से भागकर अपनी जान बचायी। इस विद्रोह में इन बन्दी सेनानियों ने बन्दूकों, चाकुओं व कुल्हाड़ियों की मदद से नौसैनिक प्रहरियों की हत्या कर बस्ती के गोदाम और प्रहरी नौकाओं पर कब्जा कर लिया था। बन्दी सेनानियों का यह प्रथम संगठित प्रयास था पर इससे पूर्व भी कई बन्दी सेनानियों ने विद्रोह कर भागने का प्रयास किया था।
दीनापुर कैण्टोनमेण्ट के सेनानी नारायण ने पहले जत्थे में अण्डमान पहुँचने के दिन से ही कैदी सेनानियों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया और चौथे दिन ही चैथम द्वीप से पलायन करने का प्रयास किया। वह चैथम द्वीप से तैरकर मुख्य द्वीप पहुँचने ही वाला था कि उस पर गोली चलाकर वापस आने के लिए मजबूर कर दिया गया एवं तत्पश्चात मुकदमा चलाकर उसे मृत्यु दण्ड दे दिया गया। इसी प्रकार एक बन्दी सेनानी निर्गुण सिंह ने रॉस द्वीप पर आत्महत्या कर ली। 18 मार्च 1858 को रॉस द्वीप से 21 बन्दी सेनानी पलायन कर गए पर अन्तत: 30 मार्च को उन्हें चैथम द्वीप पर आत्मसमर्पण करना पड़ा। रॉस द्वीप से ही 23 मार्च को 11 कैदी पलायन कर गए, जिनका अन्त तक कोई पता नहीं चला। मात्र 2 महीनों के भीतर मार्च व अप्रैल 1858 में कुल 251 बन्दी सेनानियों ने वहाँ से पलायन करने का प्रयास किया, जिसमें 88 पकड़े गए और उनमें से 46 को सुपरिण्टेन्डेन्ट वाकर ने मृत्यु दण्ड दे दिया। पलायन करने वाले शेष बन्दी सेनानी या तो कबिलाइयों के हाथ मारे गए अथवा भूख-प्यास से ग्रस्त होकर खत्म हो गए। इसी प्रकार अंग्रेजी सरकार ने न जाने कितने स्वतंत्रता सेनानियों को अण्डमान निर्वासित करके भेजा पर इन सेनानियों ने हिम्मत नहीं हारी। 1868 में 238 बन्दी सेनानियों ने पलायन करने का प्रयास किया पर अन्तत: सभी पकड़ लिये गए। इनमें से 187 को सुपरिण्टेन्डेन्ट वाकर ने फाँसी पर लटका दिया और एक ने आत्महत्या कर ली।


8 फरवरी 1872 को वहाबी आन्दोलन से जुड़े भोरअली ने भारत के वायसराय लार्ड मेयो की हत्या कर दी। अंग्रेजी सरकार ने घबराकर भोरअली को मृत्युदण्ड की सजा देते हुए वाइपर नामक द्वीप पर फाँसी पर लटका दिया। इस घटना ने अंग्रेजी सरकार को हिला कर रख दिया और अंतत: अंग्रेजी सरकार ने दण्डी बस्ती को कारागार में बदलने का कठोर निर्णय लिया। बन्दी सेनानी से द्वीपों में जंगलों की सफाई, पेड़ काटने व पत्थर तोड़ने जैसे कार्य करवाए गए, ताकि कारागार का निर्माण हो सके। 1890 में सर चाल्र्स जे. लायल एवं ए. एस. लेथ पोर्टब्लेयर आए तथा कारागार निर्माण की अनुमति दी। पर यह निर्माण कार्य 6 साल बाद 1896 में आरम्भ हुआ तथा 10 साल बाद 10 मार्च 1906 को पूरा हुआ। सेलुलर  जेल के नाम से प्रसिद्ध इस कारागार में 698 बैरक (सेल) तथा 7 खण्ड थे, जो सात दिशाओं में फैल कर पंखुडीदार फूल की आकृति का एहसास कराते थे। इसके मध्य में बुर्जयुक्त मीनार थी, और हर खण्ड में तीन मंजिलें थीं। सेलुलर जेल के निर्माण के बाद यहाँ दिए जाने वाले दण्डों की भयावहता और भी बढ़ गयी। इस दौरान न सिर्फ वहाबी आन्दोलन (1830-1869), बल्कि मोपला आन्दोलन (1792-1947), प्रथम रम्पा आन्दोलन (1878-1879), द्वितीय रम्पा आन्दोलन (1922-1924), तरा़वड़ी किसान आन्दोलन, बर्मा आन्दोलन (1930) इत्यादि में भाग लेने वाले स्वाधीनता सेनानियों को काले पानी का आजीवन कारावास भोगने के लिए इस सेलुलर जेल में भेजा गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के पश्चात क्रान्तिकारियों को स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रियता से भाग लेने के कारण चार वर्ष की अवधि में ही 488 क्रान्तिकारी कालापानी की सजा हेतु सेलुलर जेल भेज दिए गए। इन क्रान्तिकारियों का मनोबल तोडऩे और उनके उत्पीडऩ हेतु यहाँ पर तमाम रास्ते अख्तियार किए गए। स्वाधीनता सेनानियों और क्रातिकारियों को राजनैतिक बंदी मानने की बजाय उन्हें एक सामान्य कैदी माना गया। यही कारण था कि उन्हें लोहे के कोल्हू चलाने हेतु बैल की जगह जोता गया और प्रतिदिन 15 सेर तेल निकालने की सजा दी गयी। यह अलग बात है कि सौ में एकाध ही ऐसा होता जो दिन-भर कोल्हू में जुतकर 15 सेर तेल निकाल पाता। तेल पूरा न होने पर थप्पड़ पड़ते, और बेतें बरसतीं। इतिहास गवाह है कि अलीपुर षडयंत्र से जुड़े क्रान्तिकारी उल्लासकर इसी प्रकार की सजा के चलते अपना मानसिक संतुलन खो बैठे और 14 साल तक मद्रास के मानसिक चिकित्सालय में भर्ती रहे। बन्दी सेनानियों को खाने के लिए दी जाने वाली रोटी में कचरे के साथ कीड़ों-मकोड़ों का मिश्रण होता, सब्जी में उन्हें जंगली घास उबाल कर दी जाती, पहनने हेतु मोटे खुरदुरे टाट के कपड़े दिए जाते, जो कोड़ों से छिले बदन पर सुई की भाँति चुभते और ये कपड़ा न पहनने पर नंगे छिले बदन को समुद्री पानी की नमकीन वायु की तीक्ष्ण जलन सहनी पड़ती थी। बेंत की मार, एकांतवास की सजा, कोल्हू में जुतना इत्यादि के साथ मल-मूत्र करने पर भी रोक-टोक थी। सुबह-शाम व दोपहर को छोडक़र अन्य समय शौच जाना अपराध माना जाता था। कोठरी में रात को एक ही कैदी रहता था तथा पेशाब करने के लिए एक मटका कोठरी में रहता। रात के बारह घंटों में कोई शौच न कर पाता था। यदि किसी को शौच लगता तो उसे डॉक्टर से कहकर बारी से आज्ञा लेनी पड़ती। उस पर भी यदि कोई बन्दी कमरे में ही शौच कर देता तो उसे तीन-चार दिन तक दिन-भर खड़े रहने की सज़ा दी जाती। उस हालत में सबेरे छ: से दस और दोपहर को बारह से पाँच बजे तक हथकड़ी में खड़ा होना पड़ता और उस समय शौच तो क्या पेशाब पर प्रतिबन्ध होता।


कालापानी की सजा कोई साधारण सजा नहीं होती थी। कितने ही कैदी उस सजा से घबराकर आत्महत्या कर लेते थे, तो वहाँ की खराब आबोहवा व तकलीफों के चलते कई लोग बीच में ही दम तोड़ देते थे। अरविन्द घोष, वीरेन्द्र घोष, आशुतोष लाहिड़ी, पृथ्वी सिंह, भाई परमानन्द और पंडित परमानन्द झाँसीवाले जैसे अनेक क्रान्तिकारियों को अंडमान में कालापानी की सजा दी गई। अलीपुर शड्यंत्र (1908) के मामले में 1909 में बरिन घोष, उल्लास्कर दत्त, उपेन्द्र नाथ बनर्जी व हेमचन्द्र दास सहित 34 क्रान्तिकारियों को, नासिक षड्यंत्र मामले में 7 अप्रैल 1911 को सावरकर को, गदर पार्टी से जुड़े क्रान्तिकारियों को 1914 में, लाहौर षड्यंत्र मामले में 1930 में बटुकेश्वर दत्त, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, महावीर सिंह, विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी, डॉ. गया प्रसाद को, चटगाँव विद्रोह (1930) में 1934 में अम्बिका चक्रवर्ती, अनन्त सिंह, गणेश घोष, आनन्द गुप्ता, लोकनाथ बल, फकीर सेन, रणधीर दास गुप्ता इत्यादि को आजीवन करावास सहित अंडमान में कालापानी की सजा दी गई। काकोरी काण्ड में शचीन्द्र नाथ सान्याल व शचीन्द्र बख्शी को कालापानी की सजा हुई तो योगेश चन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लालजी, गोविन्दचरण कार, राजकुमार सिंह व रामकृष्ण खत्री, जिन्हें काकोरी काण्ड में 10 साल की सजा हुई थी, को भी बढ़ाकर कालापानी में तब्दील कर दिया गया। गौरतलब है कि चीन और रूस की सफल क्रान्ति पश्चात भारत में इससे प्रेरणा लेकर तमाम आन्दोलन आरम्भ हुए। बंगाल में बंगाल रिवोल्यूशनरी पार्टी, अनुशीलन समिति, युगान्तर, तो उत्तर प्रदेश व पंजाब में नौजवान भारत सभा व हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी जैसे क्रांन्तिकारी संगठनों से जुड़े तमाम लोगों को 1921 के बाद काला पानी की सजा देकर अण्डमान भेजा गया।


सावरकर ने अपनी आत्मकथा में कालापानी के दिनों का वर्णन किया है, जिन्हें पढक़र अहसास होता है कि आजादी के दीवाने गुलामी के दंश को खत्म करने हेतु किस हद तक  यातनाएँ और कष्ट झेलते रहे। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- हमें तेल का कोल्हू चलाने का काम सौंपा गया, जो बैल के ही योग्य काम माना जाता है। जेल में सबसे कठिन काम कोल्हू चलाना है-सबेरे उठते ही लंगोटी पहनकर कमरे में बन्द होना तथा शाम तक कोल्हू का डंडा हाथ से घुमाते रहना। कोल्हू में घानी के पड़ते ही वह इतना भारी चलने लगता कि हृष्ट-पुष्ट शरीर के व्यक्ति भी उसकी बीस फेरियाँ करके रोने लग जाते। राजनैतिक कैदियों का स्वास्थ्य खराब हो या अच्छा, ये सब सख्त काम उन्हें दिए ही जाते थे। सवेरे से दस बजे तक लगातार चक्कर लगाने से साँस लेना भारी हो जाता और प्राय: सभी को चक्कर आ जाता और कुछ तो बेहोश भी हो जाते। दोपहर को भोजन आते ही दरवाजा खुल पड़ता, कैदी थाली भर लेता और अन्दर जाता कि दरवाजा बन्द। यदि इस बीच कोई अभागा कैदी यह कोशिश करता कि हाथ-पैर धो ले या बदन पर थोड़ी धूप लगा ले, तो नंबरदार का पारा चढ़ जाता था। वह माँ-बहन की सैकड़ों गालियाँ देना शुरू कर देता। हाथ धोने को पानी नहीं मिलता था। कोल्हू चलाते-चलाते पसीने से तर हो जाते, प्यास लग आती और पानी माँगते तो पानी वाला पानी नहीं देता था। नंबरदार को यदि कहीं से इन्तज़ाम कर एकाध चुटकी तम्बाकू की दे दी तो अच्छी बात, नहीं तो उल्टे शिकायत कर दी जाती कि ये पानी बेकार बहाते हैं। पानी बेकार खर्च करना जेल में एक भारी जुर्म है। यदि किसी ने जमादार से शिकायत की तो वह गुस्से में कह उठा-दो कटोरी का हुक्म है, तुम तो तीन पी गया, और पानी क्या तुम्हारे बाप के यहाँ से आएगा।नहाने की तो कल्पना ही अपराध था। हाँ, वर्षा हो तो भले ही नहा लो। भोजन की स्थिति तो और भी बुरी थी। बाजरे की बेकार-सी रोटी, न मालूम कैसी खट्टी तरकारी कि मुँह में रखना भी कठिन। रोटी का एक टुकड़ा काटा, थोड़ा चबाया, ऊपर घूँट-भर पानी पिया और उसी के साथ कौर निगल लिया। बहुत से ऐसा करते कि मुँह में कौर रख लिया और कोल्हू में चलने लगे। कोल्हू पेरते-पेरते, थालियों में पसीना टपकाते-टपकाते उसी कौर को उठा-उठाकर मुँह में भरकर निगलते-निगलते ही कोल्हू पेरते रहते।


काला पानी की अमानवीय यातनाओं के बीच भी ये बन्दी सेनानी अपना उल्लास नहीं खोते थे। 16 वर्षीय किशोर बेनी गोपाल मुखर्जी तो अण्डमान आते ही जेल में चल रही भूख हड़ताल में शामिल हो गया। क्रान्तिकारी पत्र स्वराजके सम्पादक नन्द गोपाल चोपड़ा ने तो अपनी हाज़िरजवाबी से वहाँ के स्टाफ को खूब परेशान किया। उन्होंने कोल्हू में चलने से इनकार कर दिया और जब जोर-जबरदस्ती की गई तो खूब धीमे-धीमे चलते रहे। नतीजन खाने के समय तक अपने हिस्से का एक तिहाई तेल ही निकाल पाए। जब खाने की बारी आई तो जमादार ने उनसे जल्दी खाकर काम में जुटने को कहा तो मुस्कराते हुए उन्होंने जमादार को जल्दी-जल्दी खाने से होने वाले पेट के विकारों पर लम्बा भाषण दे डाला। खीझकर जमादार जेलर को बुला लाया और जब जेलर ने उन्हें कोड़े लगाने की धमकी दी ,तो सम्पादक जी ने बड़ी मासूमियत से जेलर साहब को याद दिलाया कि  खाने का समय 10 से 12 बजे तक नियत है और उन्हें इस सम्बन्ध में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। खाना खाकर नन्द गोपाल चोपड़ा ने एक लम्बी नींद ली। अनुशासन भंग के कारण जेलर ने उन्हें एकान्तवास की सजा दी, पर इसी बहाने वे कोल्हू में जुतने से बच गए। देशभक्ति के जज्बे से भरे इन देशभक्तों ने सेल्युलर जेल की दीवारों पर भी अपने शब्द चित्र अंकित किए हैं।
सेल्युलर जेल में कैद राजनैतिक बन्दियों ने 12 मई 1933 को यातनाओं के विरोध में प्रथम बार सामूहिक रूप से आमरण अनशन शुरू कर दिया। उन्होंने उन सभी सुविधाओं, मसलन-अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ और कोठरियों में बिजली इत्यादि की व्यवस्था की माँग की, जो भारत की अन्य जेलों में दी जा रही थीं। पंजाब का जेलर वाकर, जो अपनी क्रूरता के लिए जाना जाता था, इस भूख हड़ताल को तोडऩे के लिए तत्काल बुलवाया गया। वाकर ने बन्दी सेनानियों पर दबाव डालने के लिए उन्हें पानी से भी वंचित कर दिया। इस दौरान उत्तर प्रदेश के महावीर सिंह और बंगाल के मोहन किशोर, नामोदास और मोहित मित्र की मृत्यु हो गयी। मामला ज्यादा तूल न पकड़े, इसलिए उनकी लाशों को पत्थर से बाँधकर रातों-रात समुद्र में फिंकवा दिया गया। इसके बावजूद बन्दी सेनानी अडिग रहे और पूरे 46 दिनों तक यह हड़ताल चली। अन्तत:, अंग्रेजी सरकार को बन्दी सेनानियों की माँगों को मानना पड़ा व तब जाकर 26 जून 1933 को भूख हड़ताल खत्म हुई और उन्हें एक-दूसरे से मिलने जुलने की अनुमति प्रदान की गई।
 इस बीच द्वितीय विश्व युद्ध की आहट सुनाई देने लगी थी। 26 अप्रैल 1935 को 39 बन्दियों का एक दल गठित हुआ जिसकी संख्या बाद में बढक़र 200 तक हो गयी। सेल्युलर जेल के राजनैतिक बंदियों ने 9 जुलाई 1937 को  अंग्रेजी सरकार को एक याचिका भेजकर समस्त राजनैतिक कैदियों को अबिलम्ब रिहा कर स्वदेश वापसी की माँग की। यही नहीं, अपनी माँग मनवाने के लिए बन्दी सेनानियों ने 25 जुलाई 1937 को सामूहिक रूप से भूख हड़ताल भी आरम्भ कर दी। अंडमान में कैद इन बन्दियों के समर्थन में भारत में भी देशव्यापी प्रदर्शन आरम्भ हो गए तथा अन्य बन्दीगृहों में कैद राजनैतिक बन्दियों ने भी उनके समर्थन में भूख हड़ताल आरम्भ कर दी। उस समय चुनाव पश्चात् तमाम प्रान्तों में कांग्रेस मंत्रिमण्डल गठित था और ज्यों-ज्यों इस हड़ताल का दायरा बढ़ता गया तो सारे राष्ट्रीय नेता चिन्तित हो उठे।
गाँधीजी, नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, रवीन्द्र नाथ टैगोर इत्यादि ने बंदियों से भूख हड़ताल खत्म करने का आग्रह किया। 28 अगस्त 1937 को इन नेताओं द्वारा तार भेजे गए कि -सम्पूर्ण राष्ट्र आप लोगों से भूख हड़ताल खत्म करने की अपील करता है तथा आपको आश्वस्त करता है कि आपकी माँगों को पूरा कराया जाएगा।अन्तत:  36 दिन की भूख हड़ताल और भारत में अंग्रेजी सरकार पर राष्ट्रीय नेताओं के पड़ते दबाव से अंग्रेजी सरकार झुकने को मजबूर हो गयी व बंदियों की सभी माँगों को मान लिया। काला पानी की सजा झेल रहे बन्दी सेनानियों और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के राष्ट्रीय नेताओं हेतु यह एक बड़ी विजय थी। इसके पश्चात सितम्बर 1937 से अंडमान की सेल्युलर जेल से बन्दी सेनानियों के वापस आने का सिलसिला आरम्भ हुआ। उस समय कुल 385 बन्दी सेनानियों में से बंगाल के 339, बिहार के 19, उत्तर प्रदेश के 11, असम से 5, पंजाब से 3 एवं दिल्ली व मद्रास से 2-2 स्वतंत्रता सेनानी थे। 1937 के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाले किसी भी सेनानी को काले पानी का मुँह नहीं देखना पड़ा और सेल्युलर जेल एक इतिहास बन गया।
कहा जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 23 मार्च 1942 को जब अंडमान जापानियों के कब्जे में था, उस दौरान  वहाँ के सभी दस्तावेज जला दिए गए। यह एक रहस्य ही है कि यह किसके निर्देश पर व क्यों जलाया गया ? 1943 में आजाद हिन्द फौज ने पोर्टब्लेयर पर पदार्पण किया और सुभाषचन्द्र बोस ने 30 दिसम्बर 1943 को वहाँ तिरंगा झण्डा फहरा दिया और सेल्युलर जेल में यातना पा रहे क्रान्तिकारियों की तुलना फ्रांसीसी क्रान्ति के सजायाफ़्ता कैदियों से की। 1945 में अंग्रेजों ने अंडमान व निकोबार द्वीप समूहों पर पुन: कब्जा कर लिया। 1906 में निर्मित  सेल्यूलर जेल की शताब्दी पर 10 मार्च 2006 को अंडमान व निकोबार द्वीप पर सेल्यूलर जेल का शताब्दी उत्सव मनाया गया, जिसमें काला पानी की सजा भुगत चुके तीन जीवित बन्दी सेनानी-अधीर नाग, कार्तिक सरकार व विमल भौमिक भी सम्मिलित हुए। कार्तिक सरकार ने इस अवसर पर इच्छा व्यक्त की कि देश के हरेक व्यक्ति विशेषकर बच्चों को सेल्युलर जेल के दर्शन करने चाहिए ,ताकि आजादी की कीमत का अहसास उन्हें भी हो सके। इस शताब्दी उत्सव में शामिल अधिकतर लोगों ने सेल्युलर जेल को एक ऐसा तीर्थ माना जो मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे से भी ज्यादा महान व विलक्षण हैं। बदलते वक्त के साथ सेल्युलर जेल इतिहास की चीज बन गया है पर क्रान्तिकारियों के संघर्ष, बलिदान एवं यातनाओं का साक्षी यह स्थल हमेशा याद दिलाता रहेगा कि स्वतंत्रता यूँ ही नहीं मिली है, बल्कि इसके पीछे क्रान्तिकारियों के संघर्ष, त्याग व बलिदान की गाथा है। 
सम्पर्क: निदेशक डाक सेवाएँ, राजस्थान पश्चिमी क्षेत्रजोधपुर- 342001, मो. 09413666599, Email- kkyadav.t@gmail.com

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