दो कविताएँ:
- डॉ. सरस्वती माथुर
1. नि:शब्द नींद!
पौधे की तरह
उग जाता है
एक सपना
जब आँखों में
तो देर तक मैं
नैन तलैया में
गोते लगाती हूँ
नि:शब्द नींद
चिड़िया की तरह
उड़ती हुई जब
थक जाती है तो
रूह- सी उड़
मेरी देह पर एक
दंश छोड़ जाती है
मेरे जीवन को
नए मोड़ पर
छोड़ जाती है।
2. निरंतर बहो!
लहरो! तुम
मन सागर में
सिहरता स्पर्श हो
हरहराते हुए जब भी
गहराई में उतर मैं
नदी-सी तुम्हारे
भीतर के सागर से
मिल जाती हूँ तो
उसके अमृत रस में
मेरा अस्तित्व भी
समाहित हो जाता है
मुझे नव संदेश देता है कि
निरंतर बहो- बहती रहो
सच लहरो
! तुम तो
गति देने वाला
चक्रशील एक संघर्ष हो
तुम्ही ने सिखाया है
तूफानों से जूझ कर
शांत होना
अपने दर्द को
किसी से ना कहना !
Labels: कविता, डॉ. सरस्वती माथुर
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