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Aug 26, 2010

विद्यालयों में शारीरिक दण्ड

विद्यालयों में शारीरिक दण्ड
- डॉ. राम प्रताप गुप्ता
इसी माह आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले के जमंदला पल्ली गांव में एक प्राथमिक स्कूल के 11 बच्चों को शरारत करने पर उनकी प्रधानाचार्या ने जलती लकड़ी से जला दिया। इस तरह शिक्षकों द्वारा बच्चों को सजा के नाम पर शारीरिक दंड देने की खबरें जब- तब सामने आती रहती हैं। इस पर काबू पाने के लिए अब एक कानूनी मसौदा भी तैयार किया गया है। अब देखना यह होगा कि यह कानून बच्चों की कितनी सुरक्षा कर पाता है।
फरवरी माह में कोलकाता के एक स्कूल में प्राचार्य द्वारा एक छात्र को शारीरिक दण्ड दिए जाने पर उसके द्वारा आत्महत्या कर लेने के समाचार ने विद्यालयों में शारीरिक दण्ड पर प्रतिबंध की आवश्यकता को एक बार फिर सामयिक बना दिया है। कानूनी स्थिति जो भी हो, शासकीय और निजी, सभी विद्यालयों में शिक्षकों द्वारा अनुशासन के नाम पर छात्रों को शारीरिक रूप से प्रताडि़त किया जाना आम बात है।
महिला और बाल विकास विभाग द्वारा देश के 13 राज्यों के स्कूली बच्चों से पूछताछ करने पर 63 प्रतिशत छात्रों ने बताया कि उन्हें कभी न कभी प्राचार्य या शिक्षक द्वारा शारीरिक दण्ड दिया गया है। इनमें से 62 प्रतिशत दण्ड की घटनाएं शासकीय स्कूलों में और शेष 38 प्रतिशत निजी स्कूलों में हुई थीं। जब तक कोई गंभीर दुष्परिणाम न निकले, छात्र द्वारा अपेक्षित शैक्षणिक प्रगति न दिखाने या संस्था का अनुशासन तोडऩे पर शारीरिक दण्ड दिए जाने को पालकों की भी मौन सहमति है। कई बार तो विद्यालय से निरंतर शिकायतें मिलने पर परेशान पालक खुद भी अपने बच्चों को शारीरिक दण्ड देते हैं। ऐसे में स्कूल तथा घर, दोनों जगहों पर शारीरिक प्रताडऩा के चलते छात्र हमेशा के लिए स्कूल छोड़ देना ही उचित समझते हैं। पालक एवं अध्यापक अक्सर छात्रों को उद्दण्ड, अनुशासनहीन जैसे विशेषणों से विभूषित करते हैं जिसका उनके मस्तिष्क पर स्थाई दुष्प्रभाव पड़ता है।
कभी हमारे न्यायालय भी विद्यालय में अनुशासन बनाए रखने तथा विद्यार्थी की शैक्षणिक प्रगति के लिए शारीरिक दण्ड को उचित मानते थे। सन् 1964 में कोलकाता उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि इंग्लैंड के कानूनों के अनुसार भी जब छात्र विद्यालय में होता है तो अध्यापक छात्र के पालक का स्थान ले लेता है और उसे पालक के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। छात्र को शारीरिक दण्ड देने का अधिकार भी उसे प्राप्त हो जाता है। इसी तर्क के आधार पर उसने छात्र को छड़ी से दण्डित करने पर निचले न्यायालय द्वारा अध्यापक को दिए गए दण्ड के फैसले को अनुचित माना था।
विगत वर्षों में न्यायालय के इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है। अब न्यायालय का सोचना है कि शारीरिक दण्ड बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और यह बच्चों के अधिकारों का हनन है। बच्चों के अधिकार के संरक्षण हेतु बनाए गए आयोग ने हाल में घोषणा की है कि भारतीय दण्ड संहिता के उन प्रावधानों में संशोधन किया जाएगा जो बच्चों को शारीरिक दण्ड को उचित मानते हैं। 1 दिसम्बर 2000 को दिए गए एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि शारीरिक दण्ड भारतीय संविधान की धारा 14 (कानून के समक्ष समानता) और धारा 29 (जीवन एवं निजी स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है। उसने राज्यों को निर्देश दिया था कि वे देखें कि शालाओं में बच्चों को शारीरिक दण्ड न दिया जाए और वे भयमुक्त एवं स्वतंत्र वातावरण में शिक्षा प्राप्त करें। परन्तु इस निर्णय के एक दशक बाद भी हमारे विद्यालयों में अनुशासन के नाम पर और समुचित अध्ययन करने की दिशा में बाध्य करने के लिए छात्रों को शारीरिक दण्ड दिया जाना आम बात है।
किशोर आयु में छात्र-छात्राओं में अनेक शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन आते हैं, परन्तु हमारे विद्यालय इन परिवर्तनों को न तो समझने में उनकी मदद करते है और न स्वयं समझने का प्रयास करते हैं। ऐसे में उनकी समस्याओं से उत्पन्न व्यवहार सम्बंधी परिवर्तनों को अनुशासनहीनता करार देकर उन्हें दण्डित करने का आसान तरीका अपना लेते हैं। अनुशासनहीनता के मामले में छात्रों को दण्डित करने के स्थान पर शिक्षकों को उनके भावना जगत में आ रही समस्याओं को समझने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए छात्रों एवं शिक्षकों के बीच खुले संवाद की स्थिति कायम की जानी चाहिए। शाला प्रशासन में भागीदारी देकर छात्रों को यह समझने का अवसर देना चाहिए कि व्यवस्था संचालन के लिए कोई नियम क्यों बनाया गया? उनकी भागीदारी के साथ ही यह तय भी किया जाना चाहिए कि किसी नियम के तोड़े जाने पर छात्र से कौन-कौन सी सुविधाएं छीनी जाएंगी।
शिक्षकों को किशोरावस्था में छात्रों में आ रहे शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों की समझ के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। अगर ऐसी समझ विकसित हो सकी तो किसी छात्र द्वारा अनुशासन तोडऩे पर शिक्षक स्थिति को समझने का प्रयास करेगा। यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए कि क्या छात्र उद्दंडता का व्यवहार कर छात्रों के बीच अपनी धाक जमाना चाहता है अथवा वह शिक्षक या स्कूल प्रशासन के किसी कदम से आहत है। अगर शिक्षकों में छात्रों की भावनाओं की समझ भी विकसित की जाती है तो कक्षा में ऐसा माहौल विकसित होगा जिसमें छात्र नया ज्ञान भी आसानी से ग्रहण कर सकेंगे।
शाला प्रमुखों को छात्रों की भावनाओं को समझने का प्रयास करना होगा। अनुशासन तोडऩे की प्रवृत्ति वाले छात्र को उद्दण्ड, जिद्दी, अनुशासनहीन, आलसी जैसे विशेषणों से संबोधित करने से उसके साथियों के बीच उसकी प्रतिष्ठा कम होती है और उसमें विद्रोह एवं प्रतिरोध की भावना जाग्रत होती है। बार-बार की शिकायतों से परेशान होकर माता-पिता भी उसे दोष देने लगते हैं। इससे उसके व्यवहार में सुधार की जगह बिगड़ाव आने लगता है। इसका दुष्परिणाम अंतत: स्वयं छात्र और उसके माता पिता को ही भुगतना पड़ता है। छात्र द्वारा किया जाने वाला असामान्य व्यवहार ही इस बात का प्रमाण है कि उसे मदद की जरूरत है।
समाज प्राय: किसी विद्यालय में प्रदत्त शिक्षा की श्रेष्ठता का आकलन उसके परीक्षा परिणामों से करता है। विद्यालय स्वयं भी पालकों, विद्यार्थियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इन्हीं परिणामों का प्रचार-प्रसार करते हैं। विद्यालय और पालक दोनों ही भूल जाते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य छात्र की केवल शैक्षणिक क्षमता का विस्तार नहीं, बल्कि छात्र के व्यक्तित्व का समग्र विकास होता हैै। लेकिन आज के विद्यालय शिक्षा के इस उद्देश्य को भुलाकर ऐसे उपायों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं जिनसे परीक्षा परिणाम बेहतर हो सके। इस प्रक्रिया में छात्र का भावना पक्ष तो पूरी तरह उपेक्षित हो जाता है। शिक्षा में बच्चों का श्रेष्ठ परिणाम नहीं, उनमें भावनात्मक परिपक्वता विकसित करने का लक्ष्य लेकर चलना होगा, व्यक्तित्व का समग्र विकास भी तभी संभव होगा। जब कोई शिक्षक कक्षा में अनुशासन स्थापित करने के लिए छात्रों की भावनाओं का दमन करता है तो उसकी स्थिति एक आतंकवादी जैसी हो जाती है। हमारा संविधान हम सबको जीवन का अधिकार देता है, सम्मानपूर्वक जीवन का अधिकार इसमें निहित है। जब बच्चे को शारीरिक प्रताडऩा दी जाती है तो उसके संवैधानिक अधिकार का हनन होता है, यह तथ्य हमारी शैक्षणिक व्यवस्था को अच्छी तरह से आत्मसात् करना होगा।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि शाला में अनुशासनहीनता अधिकांश मामलों में छात्रों की भावनाओं के दमन का परिणाम होती है। शाला के हर छात्र को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के समुचित अवसर मिलना ही चाहिए। इसकी बजाय जब उसे किसी व्यवहार के लिए शारीरिक दण्ड दिया जाता है तो उसे भारी आघात पहुंचता है और वह आत्महत्या जैसा चरम कदम भी उठा सकता है। अगर स्कूल प्रशासन छात्रों की भावनाओं को समुचित दिशा देने में सफल होता है तो उसे तमाम तरह के प्रतिकूल परिणामों वाले शारीरिक दण्ड देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। अगर किसी शाला में छात्रों को अनुशासित करने के लिए शारीरिक दण्ड दिया जाता है तो आवश्यकता छात्र के व्यवहार में सुधार की नहीं बल्कि शाला की प्रशासन प्रणाली और सोच में सुधार की है। (स्रोत फीचर्स)
स्कूल में पिटाई रोकने के लिए नए निर्देश जल्द
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के अनुसार स्कूलों में शारीरिक दंड पर लगाम लगाने के लिए सख्त दिशा निर्देश जारी किए जाएंगे। इस बारे में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) को स्कूलों में शारीरिक दंड से निजात के लिए सख्त दिशानिर्देश तैयार करने और जारी करने को कहा गया है। सरकार की यह पहल कोलकाता की घटना के मद्देनजर आई है जिसमें 13 साल के एक स्टूडेंट ने बेंत से प्रिंसिपल द्वारा पिटायी खाने के बाद कथित तौर पर आत्महत्या कर ली थी।
सिब्बल के अनुसार बच्चे हमारे लिए बेशकीमती हैं। किसी छात्र को परेशान नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे वह हतोत्साहित होते हैं और व्यवस्था से अलग-थलग पड़ जाते हैं। उन्होंने कहा कि नए शिक्षा के अधिकार कानून में शारीरिक दंड पर रोक लगाई गई है।
एनसीपीसीआर आईपीसी में बदलाव की मांग पर भी विचार कर रही है ताकि सजा देने वाला कोई भी शख्स कानून के कुछ प्रावधानों के तहत बच न सके। एनसीपीसीआर का मानना है कि आईपीसी की धारा 88 और 89 बच्चों को शारीरिक दंड देने के मामले में टीचर और अभिभावक का बचाव करती है।
इन दो धाराओं के मुताबिक अगर 12 साल से छोटे बच्चे के फायदे के लिए अच्छी सोच से कुछ किया जाता है तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता। आयोग अब इस मुद्दे को देखेगा और सरकार से सिफारिश करेगा। शारीरिक दंड रोकने के लिए एनसीपीसीआर ने 2007 में दिशा निर्देश जारी किए थे पर वे नियम इस समस्या को रोकने के लिहाज से नाकाफी थे।
अब गुरुजी की खैर नहीं
स्कूलों में शिक्षकों के अत्याचार से छात्रों को बचाने के लिए अब शिकायत बॉक्स लगाए जाएंगे। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के फरमान पर अमल करते हुए दिल्ली शिक्षा निदेशालय ने सभी स्कूलों को आदेश दिया है कि वह अपने यहां शिकायत बॉक्स लगाएं, जिनकी मदद से छात्र अपनी शिकायत बिना किसी डर के कर सकें। शिक्षा निदेशालय ने अपने आदेश में साफ कर दिया है कि इस सुविधा के तहत छात्र को अपनी पहचान सार्वजनिक करने की कोई जरूरत नहीं होगी यानी अब अत्याचारी गुरुजी की खैर नहीं है।
स्कूल में मेरी भी होती थी पिटाई
लेकिन अब मैं इसके खिलाफ हूं
- अमिताभ
स्कूलों में बच्चों को शारीरिक दंड दिए जाने पर इन दिनों मीडिया में उपजी बहस के बीच अमिताभ बच्चन ने इस बात का खुलासा अपने ब्लॉग में किया है कि स्कूल में बाकी बच्चों की तरह उनकी भी खूब पिटाई होती थी, लेकिन बड़े 'सभ्य और शालीन' तरीके से। हालांकि अमिताभ ने इस बात को स्वीकार किया है कि उस समय ऐसा दंड अनुशासन सिखाने और नियम-कानून के प्रति सम्मान व्यक्त करने के प्रशिक्षण के रूप में दिया जाता था और आज की परिस्थितियां उस समय की तुलना में पूरी तरह बदल चुकी हैं।
मैंने नैनीताल के शेरवुड में बोर्डिंग में रह कर पढ़ाई की है और मुझे ये स्वीकार करना पड़ेगा कि वहां पिटाई एक नियमित क्रिया थी। ऐसा कोई साल नहीं गया, जब हमारे प्राचार्य रेवरेंट आरसी लेवेलिन ने हमारी पीठ पर टेनिस खेलने वाले अपने हाथों का उपयोग न किया हो। हमारे अपराध कई तरह के होते थे, लंच ब्रेक के दौरान पहाड़ी के पास के एक पिकनिक स्पॉट पर जाना, डोरोथी सीट पर पहुंच जाना, पास के स्कूल ऑल सेंट्स की लड़कियों को देखना, चुइंगम चबाना या रात को लाइट बंद होने के बाद बिलियर्ड्स खेलना। ऐसे सभी काम, जिनमें उस उम्र के बच्चे शामिल होते हैं और बाद में सजा पाते हैं।
रेवरेंट लेवेलिन हमारी सजा की घोषणा बहुत ही शालीन तरीके से ऐसे करते थे, 'मैं आपको चार बेंत मारने जा रहा हूं मिस्टर बच्चन। क्या आप दूसरे कमरे में आएंगे? दूसरे कमरे में सजा का उपकरण चुना जाता था और आपको अहसास हो जाता था कि आपका 'अंत' नजदीक आ गया है। उसके बाद आपसे पूछा जाता था 'क्या आप तैयार हैं मिस्टर बच्चन?' जिसके जवाब में मासूम और अनसुनी-सी आवाज निकलती थी 'यस सर'। जिसके फौरन बाद एक ऐसी तेज झन्नाटेदार आवाज आती थी, जिसके बाद आपको कुछ और सुनाई नहीं देता था। इसके बाद बस, ऑपरेशन खत्म। आपको पीछे मुड़कर जाना होता था और इस दौरान एक बार भी अपनी पीठ को सहलाने की भी इजाजत नहीं होती थी। आपको कहना होता था 'थैंक यू सर', अगर आप ऐसा नहीं कहते तो आपको बड़ी नजाकत से याद दिलाया जाता था कि आपको ऐसा कहना है।
तो आपने देखा, जो कुछ भी होता था, बहुत ही सभ्य और अनुशासित तरीके से होता था। किसी पाठ की तरह ये एक सीख होती थी, जो हमें नियमों का पालन करना सिखाती थी। उन्होंने लिखा है 'लेकिन, वह 1956 था, अब 2010 है। अगर अब अभिषेक, श्वेता, अगस्त्य या नव्य-नवेली से कोई तेजी से बोल भी लें, तो इससे हमें गुस्सा आ जाता है। समय और परिस्थितियां दोनों बदल गई हैं और अब मैं स्कूलों में शारीरिक दंड के पूरी तरह खिलाफ हूं।

1 comment:

Here me said...

Very well written and still relevant after more than 10 years.