गुड़ाखू के गुलाम
3 साल की बच्ची से लेकर
60 साल की बुजुर्ग तक
3 साल की बच्ची से लेकर
60 साल की बुजुर्ग तक
- पुरुषोत्तम सिंह ठाकुर
इस तस्वीर में गुडिय़ा जैसी दिखनेवाली 3 साल की इस नन्ही परी का नाम टमी है। 3 साल की इस बच्ची की उंगली में गुड़ाखू लगा है और वह उससे दांत घिस रही है। कालाहांडी जिले के नियमगिरि पहाड़ में बसे गांव लाखपदर में जब मैंने उसे घर के बाहर खड़े होकर गुड़ाखू करते देखा तो पशोपेश में पड़ गया। गुड़ाखू यानी एक तरह का तंबाकू मिश्रित दंतमंजन, जिसमें अच्छा-खासा नशा होता है। सोचा, जरुर यह बच्ची गलती से गुड़ाखू कर रही होगी। मैंने घर के अंदर बैठी उसकी मां को आवाज़ लगाई। मां का जवाब था- नहीं, वह गुड़ाखू ही कर रही है।
उसकी मां खुद भी गुड़ाखू करती है और उन्होंने कहा कि उनके गांव की ज्यादातर लड़कियां और महिलायें गुड़ाखू करती हैं। पुरुष तो गुड़ाखू करते ही हैं।
इतने घने जंगल में बसे इस डोंगरिया कंध आदिवासी गांव में यह गुड़ाखू किस हद तक अपने पैर पसार चुका है, इस बात को समझने के लिये टमी की हालत देखना पर्याप्त था। तंबाकू मिला यह कथित दंतमंजन उस नन्हीं सी जान के जिस्म में किस तरह के दुष्प्रभाव पैदा कर रहा होगा और आगे क्या करेगा, यह पता नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि टमी के लिये इसका इस्तेमाल जानलेवा भी साबित हो सकता है।
हालांकि टमी को तो इसका इल्म भी नहीं है लेकिन उसकी मां भी इस बात से बेखबर है कि उन्होंने जाने-अनजाने कितनी खतरनाक चीज को अपना लिया है।
आस-पास के छोटे दुकानों के अलावा साप्ताहिक हाट में सब तरफ मिलने वाला यह गुड़ाखू जिन छोटी-छोटी डिबियों में बिकता है, उसमें किसी तरह की कोई चेतावनी भी नहीं लिखी होती है। यहां तक कि गुड़ाखू कैसे बनता है और उसमें क्या-क्या सामग्री मिलाई गयी है, उसकी भी कोई जानकारी नहीं दी जाती है। जनता के नाम अपील में दर्ज होता है कि गुड़ाखू वास्तव में तम्बाकू मिश्रित एक दंत मंजन है।
तंबाखू के सेवन से शरीर को जितना नुकसान होता है, उतना ही नुकसान गुड़ाखू के सेवन से भी होता है। इसके प्रयोग से मुंह और श्वांस नली के विभिन्न भागों में कैंसर हो सकता है। दांतों में इसे घिसने से हाजमा खराब होना, भूख न लगना, एलर्जी और अल्सर आदि रोग बड़ी तेजी से
पनपते हैं।
आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल तकरीबन 10 लाख भारतीयों की मौत केवल धुम्रपान जनित बीमारी से होती है। लगभग 28 प्रतिशत भारतीय यानि आबादी का एक तिहाई तम्बाकू का सेवन करता हैं, जिनमें 15 से 49 वर्ष के लोग शामिल हैं। लेकिन इनके मुकाबले महिलाओं के आंकड़े भी कमजोर नहीं हैं। तकरीबन 11 प्रतिशत यानि करीब 5 करोड़ 40 लाख महिलाएं किसी ना किसी रूप में तम्बाकू का सेवन करती हैं। इनमें ज्यादातर महिलाएं धुआं रहित तम्बाकू का इस्तेमाल करती हैं, जैसे तम्बाकू वाला गुटखा, पान मसाला, मिश्री गुल आदि। 35 से 69 वर्ष की तकरीबन 20 में से एक यानि 90,000 महिलाओं की मौत के लिए धुम्रपान को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
लेकिन इन सारे आंकड़ों से बेखबर उड़ीसा के घने जंगलों में बसे इन गांवों में गुड़ाखू के अलावा खैनी और गुटका भी लोगों को नशे की एक ऐसी गिरफ्त में कस रहे हैं, जिससे निकलना मुश्किल है। पहाड़ी रास्तों में हर जगह गुटका और खैनी के खाली पाउच नजर आते हैं। गांव की बुजुर्ग महिलाएं और युवतियों में तो जैसे खैनी खाने की होड़ सी लगी हुई है। ये महिलाऐं खैनी को अपनी कमर में खोंस के रखती हैं। फिर चाहे वह घर पर हों, बाजार जा रही हों, काम पर या रिश्तेदारों के घर। कमर में हर वक्त खैनी की एक पोटली पड़ी रहती है।
गौरतलब है कि कालाहांडी जिले के लांजीगढ़ ब्लाक के नियमगिरि पहाड़ में बसे ये आदिवासी, बदनाम ब्रितानी कंपनी वेदांता के खिलाफ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो नियमगिरि पर्वत में बॉक्साइट की खुदाई करना चाहता है। नियमगिरि पर्वत को डोंगरिया कंध नियम राजा कहते हैं और उसकी पूजा अर्चना करते हैं क्योंकि यहां पीढिय़ों से ना केवल उनका बसेरा है बल्कि यह नियमगिरि उन्हें वह सब कुछ देता है, जो उन्हें चाहिये। इस 'सब कुछ' में भोजन से लेकर जड़ी-बुटी और दूसरे जरुरी सामान शामिल हैं।
ऐसे में आश्चर्य नहीं कि तंबाकू, गुटका, खैनी और गुड़ाखू जैसी नशीली सामग्री को इलाके में जिस तरह से विस्तारित किया जा रहा है, उससे आदिवासी समाज के अंदर एक खास किस्म की अराजकता और कमजोरी पैदा हो रही है। जाहिर है, इससे ब्रितानी कंपनी वेदांता के खिलाफ चल रही लड़ाई भी कहीं न कहीं कमजोर पड़ेगी ही।
दूसरी ओर जिस राज्य सरकार को अपनी आदिवासी जनता की सुध लेनी थी, उसका कहीं अता-पता नहीं है। उदाहरण के लिये लाखपदर गांव को ही लें। गांव में ना तो स्कूल है, ना ही स्वास्थ्य केंद्र। गांव तक आने के लिये कोई सड़क भी नहीं है। गांव के छोटे बच्चे भी अपने मां-बाप के साथ जंगल जाते हैं और घर के लिए खाना जुगाडऩे में लगे रहते हैं।
मामला केवल लाखपदर और कालाहांडी तक सिमटा हुआ है, ऐसा नहीं है। कोरापूट जिले के पोटापोड़ू गांव में जब हम पहुंचे तो गांव के बाहर एक इमली के पेड़ के नीचे बड़ी संख्या में महिलाएं बैठी थीं। अधिकांश महिलाओं के कान में तंबाकू के पीका लगे हुए थे। ये ऐसे पीका हैं, जिनसे महिलाएं नशे का सेवन करती हैं। पता चला कि गांव की अधिकांश महिलाओं को इसकी लत है। दूसरी और महिलाओं के एक साथ मिल बैठने और खाली समय में बोरियत दूर करने के लिये भी पीका का सेवन किया जा रहा है। महिलाएं पीका में डूबी हैं। कम उम्र की लड़कियां और गर्भवती औरतें भी। इस बात से बेखबर कि इसका उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। सरकार की लापरवाही और उदासीनता से एकदम दूर, जैसे हर फिक्र को धुयें में उड़ाते हुये और जीवन की हर समस्या को गुड़ाखू की तरह समय की धार पर घिसते हुये। (रविवार.com से)
इस तस्वीर में गुडिय़ा जैसी दिखनेवाली 3 साल की इस नन्ही परी का नाम टमी है। 3 साल की इस बच्ची की उंगली में गुड़ाखू लगा है और वह उससे दांत घिस रही है। कालाहांडी जिले के नियमगिरि पहाड़ में बसे गांव लाखपदर में जब मैंने उसे घर के बाहर खड़े होकर गुड़ाखू करते देखा तो पशोपेश में पड़ गया। गुड़ाखू यानी एक तरह का तंबाकू मिश्रित दंतमंजन, जिसमें अच्छा-खासा नशा होता है। सोचा, जरुर यह बच्ची गलती से गुड़ाखू कर रही होगी। मैंने घर के अंदर बैठी उसकी मां को आवाज़ लगाई। मां का जवाब था- नहीं, वह गुड़ाखू ही कर रही है।
उसकी मां खुद भी गुड़ाखू करती है और उन्होंने कहा कि उनके गांव की ज्यादातर लड़कियां और महिलायें गुड़ाखू करती हैं। पुरुष तो गुड़ाखू करते ही हैं।
इतने घने जंगल में बसे इस डोंगरिया कंध आदिवासी गांव में यह गुड़ाखू किस हद तक अपने पैर पसार चुका है, इस बात को समझने के लिये टमी की हालत देखना पर्याप्त था। तंबाकू मिला यह कथित दंतमंजन उस नन्हीं सी जान के जिस्म में किस तरह के दुष्प्रभाव पैदा कर रहा होगा और आगे क्या करेगा, यह पता नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि टमी के लिये इसका इस्तेमाल जानलेवा भी साबित हो सकता है।
हालांकि टमी को तो इसका इल्म भी नहीं है लेकिन उसकी मां भी इस बात से बेखबर है कि उन्होंने जाने-अनजाने कितनी खतरनाक चीज को अपना लिया है।
आस-पास के छोटे दुकानों के अलावा साप्ताहिक हाट में सब तरफ मिलने वाला यह गुड़ाखू जिन छोटी-छोटी डिबियों में बिकता है, उसमें किसी तरह की कोई चेतावनी भी नहीं लिखी होती है। यहां तक कि गुड़ाखू कैसे बनता है और उसमें क्या-क्या सामग्री मिलाई गयी है, उसकी भी कोई जानकारी नहीं दी जाती है। जनता के नाम अपील में दर्ज होता है कि गुड़ाखू वास्तव में तम्बाकू मिश्रित एक दंत मंजन है।
तंबाखू के सेवन से शरीर को जितना नुकसान होता है, उतना ही नुकसान गुड़ाखू के सेवन से भी होता है। इसके प्रयोग से मुंह और श्वांस नली के विभिन्न भागों में कैंसर हो सकता है। दांतों में इसे घिसने से हाजमा खराब होना, भूख न लगना, एलर्जी और अल्सर आदि रोग बड़ी तेजी से
पनपते हैं।
तंबाखू के सेवन से शरीर को जितना नुकसान होता है, उतना ही नुकसान गुड़ाखू के सेवन से भी होता है। इसके प्रयोग से मुंह और श्वांस नली के विभिन्न भागों में कैंसर हो सकता है। दांतों में इसे घिसने से हाजमा खराब होना, भूख न लगना, एलर्जी और अल्सर आदि रोग बड़ी तेजी से पनपते हैं।
लेकिन इन सारे आंकड़ों से बेखबर उड़ीसा के घने जंगलों में बसे इन गांवों में गुड़ाखू के अलावा खैनी और गुटका भी लोगों को नशे की एक ऐसी गिरफ्त में कस रहे हैं, जिससे निकलना मुश्किल है। पहाड़ी रास्तों में हर जगह गुटका और खैनी के खाली पाउच नजर आते हैं। गांव की बुजुर्ग महिलाएं और युवतियों में तो जैसे खैनी खाने की होड़ सी लगी हुई है। ये महिलाऐं खैनी को अपनी कमर में खोंस के रखती हैं। फिर चाहे वह घर पर हों, बाजार जा रही हों, काम पर या रिश्तेदारों के घर। कमर में हर वक्त खैनी की एक पोटली पड़ी रहती है।
गौरतलब है कि कालाहांडी जिले के लांजीगढ़ ब्लाक के नियमगिरि पहाड़ में बसे ये आदिवासी, बदनाम ब्रितानी कंपनी वेदांता के खिलाफ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो नियमगिरि पर्वत में बॉक्साइट की खुदाई करना चाहता है। नियमगिरि पर्वत को डोंगरिया कंध नियम राजा कहते हैं और उसकी पूजा अर्चना करते हैं क्योंकि यहां पीढिय़ों से ना केवल उनका बसेरा है बल्कि यह नियमगिरि उन्हें वह सब कुछ देता है, जो उन्हें चाहिये। इस 'सब कुछ' में भोजन से लेकर जड़ी-बुटी और दूसरे जरुरी सामान शामिल हैं।
ऐसे में आश्चर्य नहीं कि तंबाकू, गुटका, खैनी और गुड़ाखू जैसी नशीली सामग्री को इलाके में जिस तरह से विस्तारित किया जा रहा है, उससे आदिवासी समाज के अंदर एक खास किस्म की अराजकता और कमजोरी पैदा हो रही है। जाहिर है, इससे ब्रितानी कंपनी वेदांता के खिलाफ चल रही लड़ाई भी कहीं न कहीं कमजोर पड़ेगी ही।
दूसरी ओर जिस राज्य सरकार को अपनी आदिवासी जनता की सुध लेनी थी, उसका कहीं अता-पता नहीं है। उदाहरण के लिये लाखपदर गांव को ही लें। गांव में ना तो स्कूल है, ना ही स्वास्थ्य केंद्र। गांव तक आने के लिये कोई सड़क भी नहीं है। गांव के छोटे बच्चे भी अपने मां-बाप के साथ जंगल जाते हैं और घर के लिए खाना जुगाडऩे में लगे रहते हैं।
मामला केवल लाखपदर और कालाहांडी तक सिमटा हुआ है, ऐसा नहीं है। कोरापूट जिले के पोटापोड़ू गांव में जब हम पहुंचे तो गांव के बाहर एक इमली के पेड़ के नीचे बड़ी संख्या में महिलाएं बैठी थीं। अधिकांश महिलाओं के कान में तंबाकू के पीका लगे हुए थे। ये ऐसे पीका हैं, जिनसे महिलाएं नशे का सेवन करती हैं। पता चला कि गांव की अधिकांश महिलाओं को इसकी लत है। दूसरी और महिलाओं के एक साथ मिल बैठने और खाली समय में बोरियत दूर करने के लिये भी पीका का सेवन किया जा रहा है। महिलाएं पीका में डूबी हैं। कम उम्र की लड़कियां और गर्भवती औरतें भी। इस बात से बेखबर कि इसका उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। सरकार की लापरवाही और उदासीनता से एकदम दूर, जैसे हर फिक्र को धुयें में उड़ाते हुये और जीवन की हर समस्या को गुड़ाखू की तरह समय की धार पर घिसते हुये। (रविवार.com से)
1 comment:
छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अपने 11 वर्ष के प्रवास में मैं भी इसका दुरुपयोग देख चुका हूँ । जा्ग्रति न होने के कारण न जाने कितने मासूम इसका खमियाज़ा भुगतेंगे । इसके लिए जनजागरण की नितान्त आवश्यकता है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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