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Aug 26, 2010

पीपली लाइव के बहाने... - चोला माटी के हे राम...


पीपली लाइव के बहाने...
चोला माटी के हे राम...
- राहुल सिंह
लगता है कि हम नया थियेटर के किसी वर्कशाप में उपस्थित हैं। फिल्म आरंभ होती है, हबीब तनवीर और नया थियेटर को धन्यवाद देते हुए। निर्माता आमिर खान, हबीब जी से जुड़े रहे हैं तो फिल्म के निर्देशक दम्पति अनुशा रिजवी और महमूद फारूकी (सह-निर्देशक) हबीब जी के करीबी रहे हैं।
'जय शंकर' हबीब जी के नया थियेटर का अभिवादन- संबोधन रहा है, फिल्म 'पीपली लाइव' के पात्र इसका अनुकरण करते हैं, तब लगता है कि हम नया थियेटर के किसी वर्कशाप में उपस्थित हैं। फिल्म आरंभ होती है, हबीब तनवीर और नया थियेटर को धन्यवाद देते हुए। निर्माता आमिर खान, हबीब जी से जुड़े रहे हैं तो फिल्म के निर्देशक दम्पति अनुशा रिजवी और महमूद फारूकी (सह-निर्देशक) हबीब जी के करीबी रहे हैं। इस सिलसिले के चलते फिल्म के नायक 'नत्था' यानि ओंकार दास मानिकपुरी के साथ छत्तीसगढ़वासी (नया थियेटर के) कलाकारों की लगभग पूरी टीम, चैतराम यादव, उदयराम श्रीवास, रविलाल सांगड़े, रामशरण वैष्णव, मनहरण गंधर्व, और लता खापर्डे फिल्म में हैं। पात्र शैल सिंह- अनूप रंजन पांडे के पोस्टर और नारों की झलक फिल्म में जगह-जगह है। शुरुआती एक दृश्य में नत्था, लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी ददरिया 'आमा ल टोरेंव... ' पंक्तियां गाते, जाता दिखाया गया है।
फिल्म दिल्ली-6 के गीत 'सास गारी देवे' के बाद इस फिल्म का गीत 'चोला माटी के' चर्चा में है। यह प्रायोगिक लोक गीत है, जो अब पीपली लाइव के गीत के रूप में जाना जाने लगा। गीत, हबीब जी के जीवन-काल में नगीन तनवीर के स्वर में रिकॉर्ड हो चुका था और बाद में फिल्म के लिए फिर से रिकॉर्ड किया गया है, लेकिन दोनों रिकॉर्डिंग में बोल एक जैसे ही, इस तरह हैं -
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा, चोला माटी के हे रे।
द्रोणा जइसे गुरू चले गे, करन जइसे दानी
संगी करन जइसे दानी
बाली जइसे बीर चले गे, रावन कस अभिमानी
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....
कोनो रिहिस ना कोनो रहय भई आही सब के पारी
एक दिन आही सब के पारी
काल कोनो ल छोंड़े नहीं राजा रंक भिखारी
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....
भव से पार लगे बर हे तैं हरि के नाम सुमर ले संगी
हरि के नाम सुमर ले
ए दुनिया माया के रे पगला जीवन मुक्ती कर ले
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....
इंटरनेट पर जारी इस गीत के बोल अंगरेजी- रोमन में हैं (हिन्दी फिल्मों का कारोबार इसी तरह चलता है) और जाहिर है कि किसी छत्तीसगढ़ी जानने वाले की मदद नहीं ली गई है, इसलिए इसमें बोल, जैसा गीत में सुनाई पड़ता है, उसी तरह से आया है और भरोसा, दानी व अभिमानी के बदले क्रमश: बरोसा, दाहिक व बीमाही जैसी कई भूलें हैं। यहां इस गीत के गायक और संगीतकार का नाम नगीन तनवीर और गीतकार गंगाराम सखेत अंकित है। फिल्म में एक कदम आगे बढ़कर स्पष्ट किया गया है कि गीत की धुन मध्यप्रदेश के गोंड़ों की है और गीतकार छत्तीसगढ़ी के लोक कवि हैं।
गीत के संदर्भ और पृष्ठभूमि की बात आगे बढ़ाएं। गीत, छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती मंडलाही झूमर करमा धुन में है, जिसका भाव छत्तीसगढ़ के पारम्परिक कायाखंडी भजन (निर्गुण की भांति) अथवा पंथी गीत की तरह (देवदास बंजारे का प्रसिद्ध पंथी गीत- माटी के काया, माटी के चोला, कै दिन रहिबे, बता ना मो ला) है। इसी तरह का यह गीत देखें -
हाय रे हाय रे चंदा चार घरी के ना
बादर मं छुप जाही चंदा चार घरी के ना
जस पानी कस फोटका संगी
जस घाम अउ छइंहा
एहू चोला मं का धरे हे
रटहा हे तोर बइंहा रे संगी चार घरी के ना।
अगर हवाला न हो कि यह गीत खटोला, अकलतरा के एक अन्जान से गायक- कवि दूजराम यादव की (लगभग सन 1990 की) रचना है तो आसानी से झूमर करमा का पारंपरिक लोक गीत मान लिया जाएगा। यह चर्चा का एक अलग विषय है, जिसके साथ पारंपरिक पंक्तियों को लेकर नये गीत रचे जाने के ढेरों उदाहरण भी याद किए जा सकते हैं।
एक और तह पर चलें- छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले का एक बड़ा भाग प्राचीन महाश्मीय (मेगालिथिक) प्रमाण युक्त है। यहां सोरर-चिरचारी गांव में 'बहादुर कलारिन की माची' नाम से प्रसिद्ध स्थल है और इस लोक नायिका की कथा प्रचलित है। हबीब जी ने इसे आधार बनाकर 'बहादुर कलारिन' नाटक तैयार किया, जिसमें प्रमुख भूमिका फिदाबाई निभाया करती थीं।
फिदाबाई मरकाम की प्रतिभा को दाऊ मंदराजी ने पहचाना था। छत्तीसगढ़ी नाचा में नजरिया या परी भी पुरुष ही होते थे लेकिन नाचा में महिला कलाकार की पहली-पहल उल्लेखनीय उपस्थिति फिदाबाई की ही थी। वह नया थियेटर से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहुंचीं। तुलसी सम्मान, संगीत नाटक अकादेमी सम्मान प्राप्त कलाकार चरनदास चोर की रानी के रूप में अधिक पहचानी गईं। फिदाबाई के पुत्र मुरली का विवाह धनवाही, मंडला की श्यामाबाई से हुआ था। पारंपरिक गीत 'चोला माटी के हे राम' का मुखड़ा हबीब जी ने श्यामाबाई की टोली से सुना और इसका आधार लेकर उनके मार्गदर्शन में गंगाराम शिवारे (जिन्हें लोग गंगाराम सिकेत भी और हबीब जी सकेत पुकारा
करते थे) द्वारा सन् 1978 में बहादुर कलारिन नाटक के लिए तैयार यह गीत पारागांव, महासमुंद के 'बहादुर कलारिन' वर्कशाप में नाटक का हिस्सा बना। जैसे 'सास गारी देवे' पारंपरिक ददरिया सन 1973 में हबीब जी के रायपुर नाचा वर्कशाप में रचे नाटक 'मोर नांव दमांद, गांव के नांव ससुरार' में गीत बन कर शामिल हुआ था।
स्वीकारोक्ति कि यह मेरी रुचि का क्षेत्र है, लेकिन अधिकार और विशेषज्ञता का कतई नहीं, साथ ही तथ्य एकत्र करने का यह प्रयास, इन गीतों के संदर्भ में जानकारों की लगातार चुप्पी और लगभग सन्नाटे के कारण है, इसका उद्देश्य खंडन-मंडन कतई नहीं है। इस क्रम में कई लोगों ने उदारतापूर्वक जानकारियां दीं और चर्चाओं में शामिल हुए, मुख्यत: जिनमें करमा परम्परा और प्रस्तुति की विस्तृत चर्चा- कमान राकेश तिवारी के हाथों रही। करमा लोक नृत्य, पाठ्यक्रम में शामिल होकर पद चलन, भंगिमा और मुद्रा के आधार पर (झूमर, लहकी, लंगड़ा, ठाढ़ा), जाति के आधार पर (गोंड, बइगानी, देवार, भूमिहार) तथा भौगोलिक आधार पर (मंडलाही, सरगुजिया, जशपुरिया, बस्तरिहा) वर्गीकृत किया जाने लगा है। अंचल में व्यापक प्रचलित नृत्य करमा के लिए छत्तीसगढ़ के नक्शे की सीमाएं लचीली हैं।
छत्तीसगढ़ की प्राचीन मूर्तिकला की विशिष्टताओं के साथ लगभग 13 वीं सदी के गण्डई मंदिर के करमा नृत्य शिल्प की चर्चा रायकवार जी लंबे समय से करते रहे हैं। ओंगना, रायगढ़ और अन्य आदिम शैलचित्रों में करमा जैसे नृत्य अंकन की ओर भी उन्होंने ध्यान दिलाया। यह उल्लेख करमा नृत्य की प्राचीनता को आदिम युग से जोडऩे की कवायद नहीं, बल्कि सहज प्रथम दृष्टि के साम्य से प्रासंगिक और रोचक होने के कारण किया गया है।
पीपली लाइव के म्यूजिक लांचिंग से लौटे कोल्हियापुरी, राजनांदगांव निवासी नया थियेटर के वरिष्ठ सदस्य अमरदास मानिकपुरी ने बताया कि शुरुआती दौर में 'चोला माटी के' गीत को टोली के फिदाबाई, मालाबाई, भुलवाराम, बृजलाल आदि गाया करते थे लेकिन तब से लेकर फिल्म के लिए हुई रिकार्डिंग और म्यूजिक लांचिंग के लाइव शो में भी मांदर की थाप उन्हीं की है।
'बस्तर बैण्ड' और 'तारे-नारे' वाले अनूप रंजन ऊपर आए संदर्भों और पीपली लाइव फिल्म के साथ तो जुड़े ही हैं उनके पास हबीब जी और नया थियेटर संबंधी तथ्यों और संस्मरणों का भी खजाना है। यह ध्यान रखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ की लोक कला के ऐसे पक्ष, जो बाहर भी जाने जाते हैं या चर्चा में रहे हैं, उनमें अधिकतर हबीब जी से जुड़े हैं।
अंतत: भूले जा चुके से इन गीतों की प्रासंगिकता फिर से बन रही है। यह वक्त है, छत्तीसगढ़ी लोक सुर-संवाहकों के बहाने अपनी परम्परा- स्मृति को खंगालने और ताजी कर लेने का। लोक परम्परा की सीमा लांघते हुए छत्तीसगढ़़ के पहचान का परिशिष्ट जुड़ रहा है तो यह मौका, अपनी इकहरी होती याद को संदर्भ के साथ व्यापक करने का, आत्म सम्मान को परम्परा के सम्मान में समाहित करने का और लोक-संगीत में जीवन का लय पाकर, स्व से निकलकर समष्टि की ओर दृष्टिपात का है, जो लोक-परम्परा बनकर संस्कृति को संबल देता है।

पता- राहुल कुमार सिंह, रायपुर, (छ.ग.)
मो. 09425227484
ईमेल- rahulsinghcg@gmail.com, ब्लॉग- akaltara.blogspot.com