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Jul 11, 2010

विश्वजयी

- नीरज मनजीत
जलते युद्ध शिविरों
और हताहत सैनिकों के बीच
स्वयं से निर्वासित
स्वजनों को
खो देने की असह्य पीड़ा
और गहन एकाकीपन से क्लांत
विश्वजयी सम्राट के लिए
बंद हैं उसी की धरती के
सभी दरवाज़ो।

अंतरिक्ष के अनंत में
खुला है
असीम अंतरिक्ष के
राजप्रसाद का
एक अदृश्य महाद्वार,
निद्र्वंद्व निविड़ स्वाधीन
स्वर्ग के
निर्जन टापुओं का
साम्राज्य उपलब्ध है जिसमें।
अस्त्र- शस्त्रों को त्याग
रह- रहकर पश्चाताप करता
विस्फारित नेत्रों से
युद्धभूमि को देखता
समयचक्र को
रोक लेने के प्रयत्न में
रक्तरंजित हुए हाथों को
धरती पर पटकता वह
अब होना चाहता है
पृथ्वी का एक सामान्य नागरिक।

स्वयं के अंतर्मन से
निर्मल जल- धार सी फूटती
अपनी ही अंतरात्मा की पुकार से
सर्वथा अनभिज्ञ
वह एकाकी सम्राट
शिथिल स्वर में पूछ रहा है -
कौन हो तुम
बताओ मुझे ?
क्योंकि मैं तुम्हारी धरा के
द्वार पर खड़ा हूं।
संपर्क - गुरु गोविंद सिंह मार्ग, कवर्धा (छ।ग.)
मोबाइलः 9301140627

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