मासिक वेब पत्रिका उदंती.com में आप नियमित पढ़ते हैं - शिक्षा • समाज • कला- संस्कृति • पर्यावरण आदि से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर आलेख, और साथ में अनकही • यात्रा वृतांत • संस्मरण • कहानी • कविता • व्यंग्य • लघुकथा • किताबें ... आपकी मौलिक रचनाओं का हमेशा स्वागत है।

Dec 3, 2025

यादेंः रेलवे स्टेशन

 - प्रशान्त

जब मैं अपने यादों के पन्नों को पलटता हूँ तो पाता हूँ, वो बरवीं के दिन और पाता हूँ यादों से पटा रेलवे स्टेशन। वो रेलवे स्टेशन जिस पर मैं रोज जाता था अकेले नहीं; बल्कि अपने एक दोस्त के साथ। ऐसा स्टेशन जिसने मैं रोज जाता था पर कहीं नहीं जाता था। जब दिन भर की भागा – दौड़ के बाद आठ बजे क्लास खत्म होती, तो मानो वो स्टेशन हमें अपनी ओर खींचता और हम उसके जादू के कारण उसकी ओर चल देते। कभी ऐसे ही चल देते तो कभी स्टेशन के सामने वाले भइया की दुकान से लाई-चना ले कर चल देते। लाई-चना खाना उद्देश्य नहीं होता; क्योंकि हम ज्यादातर बिना लाई-चना के ही घुस जाते। मेरे और मेरे मित्र के बीच में अनगिनत बातें, छोटी-से-छोटी फालतू बात से बड़े-से-बड़े वैश्विक मुद्दों पर बातें। जैसे क्या हुआ अमेरिका के चुनाव में, क्या हुआ रूस-यूक्रेन वार में और क्या हुआ एक फालतू से सोशल मीडिया के पोस्ट में। 

उस समय मेरे पास फोन नहीं था, था भी तो टूटी स्क्रीन का की-पैड, जो ज्यादातर मैं अपने कमरे पर रखे रहता था। हालाँकि की मेरे मित्र के पास टच स्क्रीन फोन था, जो कभी-कभी ले आता था। मेरे साथ प्रयागराज (इलाहाबाद) में मेरे बड़े भइया भी रहते थे, उनकी छबी काफी हद तक प्रेमचंद जी के बड़े भाई साहब से मिलती थी। अगर मैं देर कमरे में पहुँचा, तो प्रायः यही बहाना बना देता की क्लास देर तक चली, जबकि असली कारण वह स्टेशन था। जब कभी क्लास जल्दी छूट जाती, तो लाई-चना लेना निश्चित रहता था और स्टेशन में बैठना भी। उस स्टेशन से इतना लगाव था या फिर इतनी बातें की हम ट्रेन के इंजन से आगे उस छोर निकलते ताकि कुछ और समय मिल सके। दिन भर की बातें जैसे क्लास की चुगली, अध्यापक की बुराइयाँ और अनेकों डायरेक्टर की गलतियाँ। अपने-अपने स्कूल की बातें, अपने गाँव की बातें, ऐसी-ऐसी बातें जो कभी खत्म नहीं हुई।

 कभी-कभी इतवार को हमारी कोचिंग की क्लासेस सुबह हो जाया करती, तो स्टेशन के सामने एक शहर की प्रसिद्ध चाय की दुकान पर, क्लास खत्म होने पर, चाय या फिर कभी समोसे खाते-खाते अनगिनत बातें। हमारी बातों में बातों में दिलचस्प बात यह आई की मेरे मित्र को एक कन्या पसंद आ गई, वे दोनों कभी-कभी सोशल मीडिया पर बात भी कर लिया करते थे, तो वे मुझे अपने अफ़साने सुनाता, जो काफी ज्यादा तरंगमय होते उसके लिए, हाँ मेरे लिए भी होते पर उतने नहीं; क्योंकि मैं उसकी बातों अपने से नहीं जोड़ पाता था। इसका कारण यह भी था की अभी तक मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं था। 

कभी बात चलती की ये वन्दे भारत हमारे स्टेशन पर क्यों नहीं रुकती और ये पसेन्जर प्रत्येक स्टेशन पर क्यूँ रुकती है। वहाँ से दर्जनों गाड़ियाँ गुजरती कुछ रुकती, तो कुछ अपनी अकड़ दिखती निकाल जाती, पर हम कहीं नहीं जाते। ऐसा प्रतीत होता की प्रत्येक गाड़ी इस समय की यादों को भरे ले जा रही है, जो कभी लौटकर फिर मिलेगी। रेलवे के लगे पंखे पर रोज तंज कसा जाता और साथ ही साथ रेलवे पर भी। वह पंखा भी बड़ी ढींठ प्रवत्ति का था, कभी नहीं सुधरा, या फिर वो भी चाहता रहा होगा कि मुझ पर रोज टिप्पणी की जाए कि – “इतना धीरे चलता है कि हमें क्या हवा देगा, खुद नहीं ले पाता है|” 

समय के बारे में उतनी समझ नहीं थी पर हाँ इतना पता था की समय बदलता है और समय सच में बदल गया, गिरगिट की तरह तो नहीं बदला पर बदल गया। बारहवीं की परीक्षा पास आने लगी तो कोचिंग का आखरी दिन भी उनके साथ आ गया। मुझे इतना याद है की उस दिन की क्लास सुबह थी, जिसके कारण मेरे पास अधिक समय था स्टेशन पर रुकने के लिए अधिक देर उस पंखे पर टिप्पणी करने के लिए। उस दिन भी दर्जनों ट्रेन गुजरी होंगी पता नहीं। फिर कुछ समय बाद एक ट्रेन आई, वह भी चली गई पिछली ट्रेनों की तरह मगर इस बार हम वहीं नहीं खड़े थे। मैं अपने दोस्त को, उस स्टेशन को छोड़कर किसी दूसरे स्टेशन की तलाश में उस ट्रेन पर चढ़ गया था। वो ट्रेनें मुझे दूसरे शहर में कभी-कभी मिल जाती हैं पर ज्यादातर रेल लाइन के बाहर मेरे कमरे पर ही मिलती हैं। मैं अब जब भी कभी इलाहाबाद जाता हूँ, तो यह कोशिश हमेशा रहती है की उस दोस्त से मिलूँ या फिर यों कहे कि उस स्टेशन की हवा से मिलूँ जो जीवन के एक अंश की यादों को अपने में घोले हैं।

सम्पर्कः पटना, बिहार , मो. 7321065687

1 comment:

  1. Anonymous04 December

    बहुत सुंदर यादें । सजीव वर्णन। बधाई । सुदर्शन रत्नाकर

    ReplyDelete