- शुभ्रा मिश्रा
तुम्हें हरा भी रहना है
फूल भी देना है
और फल भी
पर
तुम्हें बढ़ना नहीं है
मेरे समक्ष
बोनसाई!
या फिर स्त्री!
या सिर्फ स्त्री!
विस्तृत आकाश था मेरा
पंखों में थी
उड़ते रहने की जिद्द,
अथाह थी धरती मेरी
कदम थक जायें
पर ना थका
कभी उसका कलेजा !
मुझे उखाड़ने में
बरसों लगा उन्हें
पर बना न सके
वे मुझे बोनसाई!
अभी भी जड़ें
मेरी जिंदा हैं
कलेजे में उसके
मेरे पंखों में वह
चुपके से भर जाता है
सातो रंग!
मैं खड़ी हूँ
तुम्हारे समक्ष ,
दिन ब दिन ऊपर
उठ भी रही हूँ
मेरी सशक्त
जड़ें तोड़ चुकी हैं
तुम्हारे दंभ और
अक्खड़पन के
विषाक्त गमले को
मैं फूल भी दूँगी
मैं फल भी दूँगी
और बड़े होकर
तुम्हें छाया भी दूँगी!
मेरे मन ने
यह कभी सोचा भी नहीं
कि तुम्हें
बोनसाई होते हुए देखूँ
पर आज..
जब मैं तुम्हें देखती
हूँ
तुम स्वयं में
एक बोनसाई ही नजर आते
हो!
सोच से!
संस्कार से!
और
व्यवहार से भी!
3 comments:
अच्छी कविता, नयी सोच-बधाई।
स्त्री के जुझारूपन से जुड़ी अच्छी कविता
अपने अस्तित्त्व को पहचानती स्त्री के मनोविज्ञान को उद्घाटित करती अच्छी कविता।
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