- डॉ. महिमा श्रीवास्तव
जब थकी यामिनी
चाँद को पुकार
झुरमुटों के साये में
गहरी हरी दूब के
नर्म बिछौने पर
करवटें बदले
या फिर जब
पौ फटने में
तनिक समय हो
भोर का तारा
दिपदिप नभ में
चमक रहा हो
कमल पर स्वाति
अलसाई-सी पड़ी हो
पर्वतों कि चोटियाँ
तमस् में लिपटीं हों।
झील के ऊपर
एकाकी नौका भी
हिचकोले ले
रही हो,
ठीक उसी समय
तुम्हारे स्वप्न में
हौले से बिना आहट
बिना पूछे ही
मैं झिझकती-सी
चली आऊँगी ।
कुछ अनकही रह गई
बात सुना जाऊँगी
बिना पलटकर देखे
छोड़ जाने का
मधुर उलाहना
भी दे पाऊँगी
अश्रु-मोती छुपा
खनकती हँसी का
जलतरंग बजाऊँगी
तुम नींद में ही सही
हौले से मुस्कुरा दोगे
इतना तो विश्वास है
तुम मुझे
अधमुँदी पलकों के
द्वार से इस बार
लौटा ना पाओगे
तुम मुझे स्वप्न
में भी अब कभी
भूल ना पाओगे।
1 comment:
प्रेम और विश्वास से सराबोर रचना।
सुंदर प्रस्तुति।
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