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Sep 1, 2022

नवगीतः सारे बन्धन भूल गए


 - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

स्नेह सिंचित

सारे सम्बोधन

याद रहे

काँटों ने कितना  बींधा

वह चुभन भूल गए।

चुपके से रक्ताभ हथेली को छूकर

अधरों से जो चूम लिया

वह याद रहा

लोगों की विष-बुझी जीभ के सारे

वर्जन- तर्जन भूल गए ।

भूल गए  अब  राहें 

अपने सपन गाँव की,

गिरते- पड़ते पगडंडी की

फिसलन भूल गए ।

सूखी बेलें अंगूरों की,

माँ-बाप गए तो;

भरापूरा कोलाहल  से अपना

आँगन भूल गए।

गाँव -देश की माटी छूटी

छूटे सम्बन्धों के अनुबंध,

छली-कपटी

और परम आत्मीय

सबसे दूर हुए ।

उधड़े रिश्ते बहुत टीसते

सुख का कम्पन भूल गए।

दीवारें हैं,

चुप्पी है,

बेगानी धरती

अपनी ही छाया है संग में

धूप -किरन सब  भूल गए ।

सब कुछ भूले,

पर स्पर्श तुम्हारा

छपा तिलक-सा

किसने कितना हमें सताया

झूठे नर्तन भूल गए ।

परहित का आनन्द क्या होता

लोग न जाने

भीगे नयनों को जब चूमा

तो सारे दर्पन भूल गए ।

एक किरन

नयनों में अब भी जाग रही है-

तुझसे मिलने की आशा में

सारे बन्धन भूल गए।

17 comments:

भीकम सिंह said...

बहुत सुन्दर गीत, हार्दिक शुभकामनाएँ ।

Upma said...

बहुत सुंदर गीत

Anonymous said...

बहुत सुंदर नवगीत। हार्दिक बधाई सुदर्शन रत्नाकर

Mukta Mukta said...

अद्भुत् मनभावन सृजन।

Dr. Sushma Gupta said...

बहुत ही सुंदर

Sonneteer Anima Das said...

बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन सर 🙏🌹

शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर गीत

Anonymous said...

सहज सरल और अनुपम रचना...🌷🌷🙏

Anonymous said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति 👏👏🙏

साधना said...

भूलकर भी नहीं भूलें हैं..... कविता की हर एक पंक्ति यादों के सैलाब से सराबोर है।
बधाई हो.....

दिनेश चंद्र पांडेय said...

बहुत सुंदर गीत

सहज साहित्य said...

आप सबका हृदय से आभार!

Anonymous said...

Bahut sundar likha Sir aapne..🙏

Anonymous said...

बहुत अच्छी और यादों में डुबाती हुई रचना।

Anonymous said...

वाह ! अति सुंदर गीत
सादर
मंजु मिश्रा
www.manukavya.wordpress.com

Writerdivya Sharma said...

बहुत सुंदर गीत।

Mita Das said...

बहुत अच्छा गीत है