अतिथि शब्द सुनते ही मन में घबराहट-सी होने लगती
है,
क्योंकि वह बिना तिथिवाला ठहरा। अतिथि का अर्थ ही होता है- जिसके
आने की तिथि न मालूम हो, यानी जो बिना बुलाए आ टपके अथवा,
बुलाने पर भी बिना बताए कि वह कब पधार रहा है, आ धमके। लेकिन जब कोई बिना बताए या बिना बुलाए टपक ही पड़े तो क्या किया
जाए? उसका स्वागत-सम्मान करना ही पड़ता है। स्कूल के समय से
पढ़ते आए हैं- अतिथि देवो भवः । इसलिए चाहे खुद के खाने का ठिकाना न हो, अतिथि को भोग लगना ही चाहिए- छप्पन प्रकार के न सही, आठ-दस प्रकार के तो चाहिए ही। नाश्ते में, शहर के
नामी हलवाई की दो प्रकार की मिठाई, भुने काजू, दालमोठ, अधिकाधिक दूध में पकी अच्छी-सी चाय और खाने
में दो सब्ज़ियाँ, दाल,
रोटी, चावल, पापड़,
खीर या मिठाई। भोग का सामान
घर में न हो तो उधार लेकर लगना चाहिए, भले ही उसके जाने के
बाद हफ़्ते भर सब्ज़ी खरीदने तक के लाले पड़ जाएँ। प्रेमचंद के ज़माने में तो एक शंकर
नामक गरीब आदमी ने ‘सवा सेर गेहूँ’ उधार लेकर अतिथि-सत्कार किया और उधारी
चुकाते-चुकाते बेचारा चुक गया, फिर भी बाक़ी न चुकी। इसके
बावज़ूद अतिथि-सत्कार की पावन परम्परा का पालन पूरे मनोभाव से किया जाता है। इसका
कारण शायद यही है कि जब कभी आतिथेय को अतिथि बनने का सुयोग आए तो उसकी सेवा में भी
कोई कमी न रहे।
पुराणों में तो अतिथि-सत्कार में आतिथेय को अपना धर्म निभाने के लिए अपनी
पत्नी तक को पेश कर देने की कहानी मिलती है। वह तो ख़ैर पुरानी बात है, लेकिन आजकल के अतिथि का एक ही धर्म होता है, देवता
की तरह आराम से भोग लगाकर आसन जमाना। उसे इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं रहती कि
उसके आने से आतिथेय की हालत कितनी पतली हो रही है! दो कमरे के मकान का एक कमरा तो
उनके लिए आरक्षित हो गया, दूसरे कमरे में पाँच लोग कैसे रहते
और सोते हैं- इससे उनका कोई लेना-देना नहीं होता। पुराने ज़माने की बात कुछ और थी।
अब तो यातायात के इतने निजी और सार्वजनिक साधन हो गए हैं कि अगर अतिथि महोदय थोड़ी
हिम्मत दिखाएँ और शाम होते अपने दौलतखाने को लौट जाएँ तो देर रात पहुँच ही जाएँगे,
लेकिन नहीं, वे तो ‘गरीबखाने’ पर रात बिताकर
ही जाएँगे। कभी-कभी आतिथेय के शहर में उनका काम ऐसे अटक जाता है कि दो-तीन दिनों
तक वे किसी वैताल की तरह घरवालों पर सवार रहते हैं गोया उनके काम न होने के पीछे
घरवालों की कोई साज़िश हो।...
कुछ
अतिथि ऐसे भी पाए जाते हैं कि उनकी सेवा में चाहे जितना निवेश कर दिया जाए, उनके चेहरे पर असंतुष्टि का भाव ही बना रहता है। किसी प्रोफेशनल देवता की
भाँति वे प्रसन्न होना जानते ही नहीं, केवल भोग लगाना जानते
हैं। यही उनकी महत्ता और प्रतिष्ठा है।... अतिथि बेचारा यजमान बना मन-ही-मन रोता
रहता है। उसे देवता से सिद्धि प्राप्ति की भी आशा नहीं।
अतिथि
आजकल विस्तारवादी हो गया है। वह घरों के साथ-साथ सार्वजनिक कार्यक्रमों तक पहुँच
गया है। किसी कार्यक्रम में उसे मंच पर बिठाने का विधान है। यह विधान प्रचलन तब से
आया होगा,
जब कोई वी.आई.पी. कार्यक्रम में बिना बुलाए पहुँच गया होगा। अतः उसे
यथोचित सम्मान देने के लिए मंच पर कार्यक्रम के अध्यक्ष, संस्थाध्यक्ष,
संचालन आदि के साथ विराजमान कर दिया गया होगा। उसे विराजते समय मन
में कहीं यह भी भावना रही होगी, कि वी.आई.पी. है, जान-पहचान हो जाएगी तो कल काम ही आएगा।... आम आदमी की ज़िंदगी इतनी जटिल हो
गई है कि हमें आए दिन वी.आई.पी. की ज़रूरत पड़ ही जाती है।
इस
बात की महत्ता को समझ सयानों ने आगे चलकर मंच पर विराजमान होने के लिए एक स्थायी
अतिथि का प्रावधान ही कर दिया। उसे ‘मुख्य अतिथि’ कहा गया, क्योंकि कार्यक्रम के साक्षी दर्शक-श्रोता अतिथि होते ही हैं। मुख्य अतिथि
प्रायः विषय के विशेषज्ञ न होकर दीगर मामलों के जानकार या मददगार होते हैं।
विषय-विशेषज्ञ तो ‘वक्ता’ के रूप में मंचस्थ रहते हैं। जब अतिथि के रूप में बुलाए
गए वक्ताओं की संख्या अधिक होती है, अथवा, कुछ कमज़ोर वक्ता हों, तो उन्हें श्रोताओं की पहली
पंक्ति में बिठाया जाता है। इसे वे बुरा भी नहीं मानते। अंधों में काना राजा-जैसा
सम्मान पाकर वे अभिभूत हो उठते हैं।
कुछ
दिन पहले एक साहित्यिक कार्यक्रम का पोस्टर देखने को मिला। वह ‘वर्तमान व्यंग्य
साहित्य में सरोकार’ विषय पर केंद्रित था। उसमें चार अतिथियों को मंचासीन करने की
बात चित्रित और प्रचारित थी- मुख्य अतिथि, प्रमुख अतिथि,
विशिष्ट अतिथि और अति विशिष्ट अतिथि। ताज्जुब की बात यह थी इस विषय
का वक्ता एक भी न था। जितने प्रकार के अतिथि पोस्टर में चिपकाए गए थे, उनके फोटो देख यह अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता था कि वे सभी वक्तागण हैं।
गनीमत थी कि अध्यक्ष एक ही था। अतिथियों के विभिन्न प्रकार को देखते हुए यह उचित
लगता था कि अब अध्यक्ष पद का भी विस्तार किया जाना चाहिए। बतर्ज़ अतिथि, अध्यक्ष भी
पाँच प्रकार के हो सकते हैं, यथा- अध्यक्ष, मुख्य अध्यक्ष, प्रमुख अध्यक्ष, विशिष्ट अध्यक्ष और अति विशिष्ट अध्यक्ष। लेकिन ऐसी स्थिति में यह स्थिति
और हास्यास्पद हो सकती है।
एक
कार्यक्रम में मैंने देखा कि मंच पर अध्यक्ष कई हैं, लेकिन
अतिथि एक भी नहीं है। सयानों ने इन अध्यक्षों का नाम ‘अध्यक्ष- मंडल’ दिया। यह
अध्यक्ष पद के दावेदारों के अहं की तुष्टि का अच्छा उपाय है। न्याय की माँग यह है
कि जब अतिथियों की संख्या काबू से बाहर होने लगे तो ‘अतिथि-मंडल’ को अस्तित्व में
आ ही जाना चाहिए। इससे कम-से-कम दो लाभ हैं- एक तो, इस मंडल
को कितना ही बढ़ाया जा सकता है। चार-पाँच से आठ-दस तक। दूसरे, कौन किस प्रकार का अतिथि है और उसे किस क्रम में सम्मानित करने या करवाने
के लिए बुलाया जाए, यह ध्यान रखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
अन्यथा, स्थिति ऐसी उत्पन्न हो सकती है कि संचालक की
आँखों-तले अँधेरा छा जाए, जैसा कि नीचे वर्णित प्रसंग में
हुआ।
एक
सम्मान समारोह में तमाम प्रकार के अतिथियों को मंचासीन करने में संचालक को एक
पर्ची का सहारा लेना पड़ा जिसमें उसने लिख रखा था कि कौन किस प्रकार का अतिथि है, यानी कौन मुख्य अतिथि है और कौन प्रमुख या विशिष्ट? अतिथियों
को मंचासीन करने में तो उसे कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन जब
उन्हें सम्मान-पत्र देने की बात आयी तो उसकी पर्ची कहीं खो गई। एक अतिथि को सम्मानित
करने के लिए उसने जब उन्हें आहूत किया, तो उनसे धीरे से पूछा
कि वे कौन से अतिथि हैं? मुख्य अतिथि हैं या प्रमुख अतिथि
हैं? इतने प्रकार के अतिथियों से निपटने का यह उसका पहला
अवसर था। वह चाहता तो मंच के पीछे लगे बैनर की मदद ले सकता था जिसमें अतिथियों के
प्रकार लिखे हुए थे, पर या तो घबराहट में उसे इसका ध्यान न
रहा हो, अथवा, यह भी हो सकता है कि अगर
वह बार-बार बैनर को देखता तो उसकी संचालन-क्षमता पर भी प्रश्नचिह्न लग सकता था।
मेरे
मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा था कि साहित्यिक समारोह में इतने प्रकार के अतिथियों
से साहित्य का कौन सा हित सिद्ध हो रहा था, जब वे कोई
सार्थक चर्चा नहीं कर रहे थे?
सम्पर्कः 3/29 विकास नगर,
लखनऊ-226 022, मो. 80096 60096
3 comments:
अतिथि के आने की तिथि तो निश्चित नहीं होती पर वह कभी -कभी जाता अपनी मर्जी से ही है।
सुंदर प्रस्तुति।
बहुत बढ़िया व्यंग्य लिखा है।उत्तम।
बहुत ही सुंदर व्यंग्य।
हार्दिक बधाई आदरणीय।
सादर
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