एक भाई ने अपनी बहन को बहुत दिनों से देखा नहीं
था,
इसलिए वह उससे मिलने के लिए उसकी ससुराल गया। भाई बेहद गरीब था,
और बहन इत्तफाक से एक अमीर से ब्याह दी गई थी। भाई को देखकर बहन का
जी भर आया । वह पीहर के हाल-चाल जानने के लिए बेचैन हो उठी। किन्तु प्रयत्न करने
पर भी दोनों एकान्त में मिल नहीं सके। इसलिए बहन के सामने बड़ी विकट परिस्थिति
पैदा हो गई । सबके सामने पीहर के हाल-चाल पूछकर, वह अपने
पीहर की भी हँसी नहीं उड़वाना चाहती थी । उसका स्वाभिमान उसे ऐसा नहीं करने दे रहा
था। साथ-ही-साथ पीहर के समाचार जाने बिना भी उससे रहा नहीं जा रहा था। इस विकट
परिस्थिति पर उसने अपनी चतुराई से विजय प्राप्त की।
उसने भाई से एक के बाद एक कुल तीन प्रश्न किए।
ये प्रश्न जाहिर में बड़े भोले-भाले व पीहर के गौरव को बढ़ाने वाले थे। किन्तु
अपने सांकेतिक अर्थ में ये प्रश्न भाई से पीहर की वास्तविक स्थिति का परिचय
प्राप्त करने के लिए ही किए गये थे।
भाई भी बहन की इस चतुराई को ताड़ गया।
बहन ने अपने पुराने दिन याद करते हुए पहला
प्रश्न किया- आंगण मोर चुगेरे दादा?
प्रश्न का शाब्दिक अर्थ था- क्यों भैया, क्या अपने आँगन में अभी भी मोर चुगते हैं ?
यह प्रश्न इस सरल अर्थ में पीहर के वैभव को
प्रदर्शित करता था; किंतु भाई के लिए इसका सांकेतिक
अर्थ था- क्या अपने घर में बच्चे-बच्ची अभी भी मोर की तरह दाने चुगा करते हैं ?
रोटी बनाकर खिलाते इतने दाने बेचारों के यहाँ थे
कहाँ ?
इसलिए अनाज के दाने आँगन में बखेर दिए जाते थे और घर के
मोर-बच्चे-उन्हें चुगकर पेट भर लेते थे।
भाई ने प्रश्न के इस सांकेतिक अर्थ को समझकर
उत्तर दे दिया-हाँ वो जीजी।
बहन ने दूसरा प्रश्न किया- डूंगर दीवो वलेरे
दादा?
प्रश्न का शाब्दिक अर्थ था- क्यों भैया, अभी भी अपने यहाँ डूंगर पर दीये जलते हैं न ?
इस सरल अर्थ में यह प्रश्न पीहर की सम्पन्नता की
ओर इंगित करता था। डूंगर पर का दीया उसके पीहर के कारोबार की अधिकता एवं प्रसार को
बतलाता था।
इसके विपरीत सांकेतिक अर्थ में इस प्रश्न का आशय
था- क्या अभी भी दीये का इंतजाम डूंगर पर की लकड़ियों से ही होता है?
भाई इस सांकेतिक अर्थ को समझ गया। उसने पहले की
ही तरह उत्तर दिया- हाँ वो जीजी ।
अब बहन ने तीसरा प्रश्न किया- भाभी घूघर माल रे
दादा?
इसका भी सरल अर्थ था- क्यों भैया, क्या भाभी अभी भी घूघरों की माला की तरह गहनों से लकदक फिरती है?
इस सरल अर्थ में यह प्रश्न घर की सम्पन्नता को
चार चाँद लगा रहा था।
किन्तु भाई के लिए सांकेतिक अर्थ था- क्या भाभी
अभी भी वही चीथड़े पहनती हैं, भैया। जिनके जगह-जगह से फट
जाने के कारण, भाभी को लाज बचाने के लिए, कपड़े में गठान पर गठान लगानी पड़ती है। ऐसी गठानों की माला ही मानो भाभी
है। यह गठानों की माला घूघर माल से मिलती जुलती ही है।
भाई ने बहन के इस इशारे को भी समझ कर सर नीचा कर
कह दिया--हाँ वो जीजी!
1 comment:
संयोग ही है कि इसी अंक में प्रकाशित कहानी "माँ से मायका" इसी तथ्य को दर्शाती है कि मायके की लाज और सम्मान रखने के लिए स्त्री क्या क्या करती है!हमारी लोक कथाओं में हमारे संस्कार निहित हैं।
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